शनिवार, 3 मई 2014

क्या कर रहे हैं से ज्यादा क्या हो रहा है कि सोचना.. एक सामान्य बेवकूफी !


काम में मन नहीं लग रहा। यार मैं लाइन चैंज करने की सोच रहा हूं। इस जगह पर पॉलिटिक्स बहुत है। देखा बॉस की चमचागीरी से कहां पहुंच गया। ये तो बॉस की खास है। भैया हम तो नौकर हैं, चुपचाप अपना काम करो और घर चलते बनो। आदि... इत्यादि..... ये जुमले अगर आप भी इस्तेमाल करते हैं तो सावधान। आप किसी काम को करने से ज्यादा किसी परिस्थिती के प्राप्त होने की इच्छा के गंभीर रोग से ग्रसित हैं। इस बात को समझने के लिए जरा मस्तिष्क को थोड़ा विश्राम देकर जीवन की किसी भी तकलीफ देने वाली परिस्थिति को उठाइए। आप पाएंगे कि उस तकलीफ के मूल में यही व्यर्थ परिस्थिति चिंतन छिपा बैठा है। बहुत आम सलाह है जो हम रोजमर्रा में देते रहते हैं। जरा ध्यान से इस काम को करना...। लेकिन ध्यान से काम को करने का मतलब शायद ही हम समझ पाते हैं। एकाग्रता तो महत्वपूर्ण है ही लेकिन व्यवहारिक रूप से सिर्फ उस काम में ही मन के लगे होने का अभिप्राय एकाग्रता मात्र नहीं है। उस काम में मन लगे होने में भी हम उससे प्राप्त होने वाली सुखमय परिस्थिति या अप्राप्ति में दुखमय परिस्थिति के चिंतन में आबद्ध रहते हैं। अनासक्ति पर तो पूरी गीता लिख दी गई और उसे अभी कर्मण्येवाधि कारस्ते.... के जरिए समझाएं तो लगेगा.. अरे ये तो बहुत बार सुन चुके हैं। कई बार तो यहां तक कह दिया जाता है कुछ व्यहारिक ज्ञान बताईए किताबी ज्ञान से क्या होगा। ज्ञान तो व्यवहारिक ही है लेकिन वो व्यवहार आपका होना चाहिए। ये व्यवहार कहीं बाहर से नहीं आता और न ही इसका कोई इंजेक्शन बाजार में मिलता है। स्वामी शरणानंद इस विषय को बहुत ही सरलता से समझाते हुए कहते हैं कि हमारे दुखों और जीवन में अरूचि या रस की कमी के पीछे यही सबसे बड़ी वजह है। हम किसी काम को करते वक्त किसी परिस्थिति विशेष की प्राप्ति का चिंतन करते रहते हैं जबकि वो हमारे हाथ में है ही नहीं। इसे जीवन की किसी भी घटना से जोड़कर आप देख सकते हैं। आप जब भी कोई काम करते हैं तो उसमें लोगों की प्रशंसा या उदासीनता या लाभ आदि इत्यादि की तस्वीर को भी बना लेते हैं और सतत इसका चिंतन करते रहते हैं। ये ठीक वैसा ही है जैसे परीक्षा की तैयारी के दौरान हम पढ़ने से ज्यादा इस बात पर जोर दिया करते थे कि प्रश्न पत्र कैसा आएगा? क्या होगा अगर ये परीक्षा मैं पास नहीं कर पाया? कुछ ये भी सोचते थे की कम से कम इतने अंक तो इस परीक्षा में लाने ही चाहिए। कुछ लोग तर्क देते हैं कि इन बातों से उत्साह बढ़ता है। ये एक बहुत बड़ी भ्रांति है कि सकारात्मक परिणामों के सतत चिंतन से उत्साह बढ़ता है। दरअलस ऐसे मौकों पर ये सकारात्मकता एक भय को भी अपने साथ समेटे रखती है। जब भी आप किसी परिणाम के प्रति आसक्त होते हैं तो साथ ही उसके वैसा नहीं हो पाने कि स्थिती बुरी तरह से टूट जाने की बहुत सी संभावनाओं का भी विकास कर लेते हैं। अगर आप किसी काम को करते समय परिणाम के बजाय अपनी ऊर्जा को काम को बेहतर तरीके से करने की तरफ लगाएंगे तो निश्चित ही आपको बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे। ये भी हम सब जानते हैं कि अच्छी तैयारी और दक्षता हमेशा सुपरिणाम लाती ही है लेकिन इस सुपरिणाम के प्रति अतिआत्मविश्वास कार्यक्षमता को बुरी तरह प्रभावित करते है। कृष्ण ने या फिर उनके वचन का टीका करने वाले लगभग सभी ज्ञानियों ने इसी बात पर जोर दिया कि हम जो भी करते हैं उसका फल ईश्वर को ही अर्पित है। आप ईश्वर की सत्ता को माने या न माने पर आपको ये तो मानना ही होगा कि ये परिणाम आपके हाथ में नहीं है। ऐसा नहीं होता तो कार्य की संपूर्णता से पहले उसके परिणाम का व्यर्थ चिंतन हमारी आदत नहीं बन गया होता। अगर हम ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते हुए भी अपने कर्मफल से आसक्ति हटा लेते हैं तो इसका फल हम सृष्टि की सृजनशक्ति को ही अर्पित कर देते हैं। हमें क्या मिलता है क्या नहीं मिलता का हमारे जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। आप अपने जीवन पर ही नजर डालें तो कभी आप दसवीं पास करने को फिर कॉलेज जाने को फिर नौकरी पाने, मनचाहा साथी पाने आदि इत्यादि को ही जीवन समझते थे लेकिन जैसे जैसे आप आगे बढ़ते गए इनके प्रति आसक्ति खुद ब खुद खत्म हो गई। साफ है किसी परिणाम के आने तक ही ये आसक्ति साथ है और परिणाम पर इसका कोई सकारात्मक प्रभाव भी नहीं है। हां इसका नकारात्मक प्रभाव ये जरूर है कि आप अपनी जिस ऊर्जा का पूरा का पूरा उपयोग एक कार्य को सुंदर और भव्य तरीके से संपूर्ण करने में लगा सकते थे। आप इस कार्य पूर्णता के साथ कई और लोगों के लिए जो आदर्श स्थापित कर सकते थे वो नहीं कर पाए। जैसे जीवन में कई अपेक्षित परिस्थितियों को पा लेने के बाद आप फिर से उसी अपेक्षा की कतार में खड़े हो जाते हैं.. इसी अभ्यास पर चलते रहने से ये एक आदत सी बन जाती है और हम इसे मानव मात्र का सहज गुण मानने लगते हैं जबकि ऐसा है नहीं। अगर आप कर्म फल के परिणाम का व्यर्थ चिंतन छोड़ते हैं तो परिणाम निश्चित ही और बेहतर आते हैं लेकिन ऐसा विचार भी उसी लालच में आबद्ध कर देता है जिससे बचने का प्रयास हम कर रहे हैं। प्रयास नहीं करना ही तो जीवन है और प्रयास ही चिंतन। यहां प्रयास नहीं करने का मतलब आलसी हो जाना नहीं अपितु कर्म फल को छोड़ देना मात्र है। आप स्वयं अनुभव करेंगे कि सारा प्रयास और तनाव इसी अपेक्षित परिस्थिती प्राप्ति का चिंतन है न की काम को करने में लगने वाली ऊर्जा। किसी कार्य को करते रहने से तो आपकी ऊर्जा और बढ़ती है ठीक वैसे ही जैसे कसरत से शरीर सुघड़ और स्वस्थ होता है। लेकिन इस कसरत के साथ आप अगर नशाखोरी और खान पान को अव्यवस्थित रखते हैं तो निश्चित ही आप की कसरत बेकार है और स्वस्थ शरीर पाने का सपना भी। इसी तरह ऐसा हो जाए, काश ऐसा होता, ये नहीं हुआ तो... आदि जैसे सवाल किसी काम को करते वक्त सोचना वैसी ही नशाखोरी है और ये नशा भी आपको कभी स्वस्थ जीवन नहीं जीने देगा। आपका प्रवीण श्रीराम।