बुधवार, 2 जुलाई 2014

साईं के बहाने......


साईं कहो या उल्टा करके ईसा दोनों किसी सत्ता की तरफ ईशारा करते थे। एक मालिक कहता था दूसरा पिता। सांई के बहाने ही सही भक्ति और भगवान की चर्चा तो शुरू हुई। टीवी के लिए तो चटपटा विषय है ही और दर्शक भी खूब नंबर दे रहे हैं। गंभीर प्रश्न ये है कि क्या ऐसी बहस के बहाने ही सही हमें अंधभक्ति और भक्ति के फर्क को समझने की जरूरत है? स्वामी स्वरूपानंद जी ने जो कहा उसमें मुझे सबकुछ सही नहीं लगता तो सबकुछ गलत भी नहीं लगता है। सांई बाबा को मैंने बहुत छोटी उम्र से भगवान के तौर पर ही देखा है। दरअसल वैसा ही समझाया गया। उनकी तस्वीरें और मूर्तियां अब सिर्फ भक्ति तक सीमित नहीं हैं वो आदत में शुमार हो गई हैं। बहस तो बहुत सही छिड़ी है लेकिन बड़ी सीमित है। क्या ईश्वर का कोई स्वरूप हो सकता है? क्या ईश्वर की उपयोगिता हमारी इच्छाओं की पूर्ति तक सीमित है? ईश्वरीय सत्ता हमारे लिए क्यूं आवश्यक है? और बुद्ध, ईसा और सांई की तरह हम मनुष्यों से ही ईश्वर के स्वरूप की प्राप्ति होती है? ये वो प्रश्न है जिन्हें हर ईश प्रेमी को खुद से पूछना चाहिए। जरूरी नहीं कि आप हिंदू हो, मुसलमान हों, ईसाई हों या कुछ और। यही भेद तो समझना है कि पैदा होते ही बताया तुम हिंदू, तुम ब्राह्मण, तुम ऊंचे, तुम नीचे, ये भगवान, वो शैतान। हमने चुपचाप मान लिया। आज तक माने चले आ रहे हैं। मंदिरों में मन्नत के धागे बांधते हुए कभी सोचा ही नहीं कि भगवान अगर कुछ दे ही रहा है तो सिर्फ परीक्षा में पास करा दे, नौकरी दे दे, तरक्की दे दे जैसी टुच्ची चीजों तक क्यूं सीमित रहे। क्यूं ना ऐसा आनंद मांग लें जो कभी खत्म ना हो, कभी कम ना हो, सदा बढ़ता रहे। शोहरत मांगते हैं तो उसमें दूसरों को नीचा दिखाने या जलाने का भाव ज्यादा होता है। शोहरत के मायने तक तो हम समझते नहीं। वो मांगने से नहीं लोगों के बीच जाने उनके भले की बात करने और भला करने से मिलती है। यही साईं ने किया भी। उनकी लोकप्रियता शिर्डी में रहते हुए इसीलिए बढ़ी क्यूंकि वो अचाह रहते हुए, निस्वार्थ भाव से हर मजहब और जाति के लोगों को समान मानते हुए उनकी सेवा में जुटे रहते थे। मेडिकल साईंस भी मानता है आस्था में बहुत शक्ति होती है। ये बाबा का ईश्वर में अटूट विश्वास था और उनके भक्तों का उनमें अटूट विश्वास की रोगी ठीक हो जाते थे। वो हर एक को समझाते रहे सबका मालिक एक। उनके बारे में कहा जाता है कि वो हमेशा कहते थे कि मालिक सब करेगा। उनके जैसे दयालू और आदर्श संत के चरणों में नतमस्तक रहना और उनके जीवन को आदर्श जीवन मान कर उसे अपनाने की कोशिश करना वाकई देवत्व की प्राप्ति करा सकता है। साईं के नाम पर धंधेबाजी करने से वो प्राप्त नहीं होगा जो साईं देना चाहते हैं। भक्तों और धंधेबाजों के बीच फर्क करने की जरूरत है। अपनी तुच्छ बुद्धि और इन्हीं संतों की पढ़ी वाणी से एक पंक्ति में इसे बताने की कोशिश करता हूं। जो दूसरों को भक्ति के लिए बाध्य करे, जो ईश्वर के नाम पर कुछ मांगे या ईश्वर के नाम पर दिए हुए को रखे, जो ईश्वर में भेद करके अपने ईश्वर को श्रेष्ठ बताए वो धंधेबाज ही नहीं महामूर्ख भी है। ऐसे लोगों के झांसे में आने वाले कथित भक्त क्या होंगे इसका अंदाजा आप लगाईए। अभी कर्मकांडों और पाखंडों पर कुछ लिख दूंगा तो कईयों का विरोध यही शुरू हो जाएगा। ईश्वर की प्राप्ति के लिए अगर कहीं जाने की जरूरत होती तो स्वयं साईं को शिर्डी में बैठे बैठे ये सच्चिदानंद कैसे मिल जाता जिसके लिए आज उन्हें ईश्वर की तरह ही पूजा जाता है। ये सारा आनंद, ज्ञान, देवत्व, दया सबकुछ आप में मौजूद है। कोई और इसे आपको न दे सकता है न ये संभव है। हां कोई रास्ता दिखा सकता है कि भोगों से इंद्रियों पर काबू खो देने के बाद कैसे योग की तरफ बढ़े और इंद्रिय निग्रह करें। वहीं साईं ने किया। उन्होंने लोगों को आसान भाषा और तरीके से स्वयं योग की प्राप्ति का मार्ग दिखाया। ईश्वर को एक मानना और जरूरतमंदों की मदद करना ये आसान तरीके हैं। आप सच्चे साईं भक्त तभी हैं जब आप उनके इन उसूलों पर चलते हुए सत्य और प्रेम की प्राप्ति करें। वे लोग जो मंदिरों पर मंदिर बना रहे हैं या चढ़ावे पर चढ़ावे चढ़ा रहे हैं, भजन संध्याओं और रंगारंग कार्यक्रमों में पैसा फूंक रहे हैं वे तो साईं का घोर अपमान कर रहे हैं। धर्म एक अलग विषय है और धर्मगुरूओं के अपने अधिकार हैं। जीवन शैली और भक्ति या पूजा पाठ के सबके अपने तरीके होते है। कुछ लोगों को परंपरागत तौर पर मुखिया के तौर पर स्वीकार किया जाता है और इसके लिए वो व्यक्ति आवश्यक अर्हताएं भी पूरी करता है। मुझे स्वामी स्वरूपानंद जी से चर्चा करने का मौका मिलता रहा है। उन्होंने जो बयान दिया वो ये जताता है कि सनातन परंपरा में धर्म को नहीं जानने वालों ने मिलावट करने की कोशिश की है। मैं उनकी इस बात से तो सहमत हूं कि किसी नाम, तौर तरीके से एक नए भक्ति मार्ग को निकालना मिलावट ही है क्यूंकि आप ना यहां के रहे न वहां के, लेकिन साथ ही मैं इस बात से नाइत्तफाकी भी जताता हूं कि राम के नाम और गंगा के स्नान पर किसी धर्म विशेष का कॉपीराइट हो जाए। मेरे नाम से ही राम का नाम जुड़ा है और ये मैंने मांगा नहीं इसी परंपरा ने मुझे दिया है। मैं मुस्लिम मान्यता वालों के यहां पैदा होता तो मेरा नाम कुछ और होता। जो ईश्वर का हो जाता है उसका कोई मजहब नहीं रह जाता। जलाना, दफनाना, दाढ़ी रखना, तिलक लगाना ये तो हमारी बनाई हुई परंपराएं हैं और हममें ये इतनी रच-बस गई हैं कि ये अब आदत बन चुकी हैं। आपके तौर तरीकों और रहन सहन से ईश्वर का क्या लेना देना वो तो आपकी खुशी में खुश है। ऐसा तो कोई सिद्धांत है नहीं कि किसी धर्मविशेष या जाति विशेष के व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति में कोई वरीयता मिल जाती हो। सांई को लीजिए उनका नाम किसी को नहीं मालूम। लोगों ने जो नाम दिया वो स्वीकार कर लिया यही तो ईश्वर का भी गुण है। दे दीजिए आपको जो नाम देना है सब स्वीकार्य।
साईं भी भक्त थे और उनका भी कोई मालिक था। ये मैं नहीं कह रहा वो खुद कहते थे। वो मालिक सबका है और सब उसको पा सकते हैं। साईं का ठीक उल्टा ईसा होता है। ईसा इसी मालिक को अपना पिता कहते थे। उनकी बात को तब नहीं माना गया। उन्हें सलीब पर टांग दिया गया और वो फिर भी कहते रहे, ईश्वर है मैं उसका पुत्र हूं और तुम मेरे भाई बहन। हमने ईसा, साईं और ऐसे कितने ही मनुष्य रूप में आए लोगों में ईश्वर की छवि को देखा है। दरअसल ईश्वर तो हम सब में है बस उसकी खोज की प्यास जरूरी है। जिन खोजा तिन पाईयां... और ये संत ऐसे ही खोज कर्ता थे। स्वामी विवेकानंद ने अद्वैत को आसान भाषा में समझाने की कोशिश की। उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस को भी पूजा जाता था और अब भी मिशन के मंदिरों में उनकी मूर्ती की स्थापना है। ऐसे संतों ने देश के आध्यात्मिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनका अनुसरण करके इन्हीं जैसे सच्चिदानंद को पा लेने के बजाय इनके मंदिरों को बनाकर उसमें अंधविश्वास और चमत्कारों को जोड़ देना तो न सिर्फ गलत है बल्कि अपराध है। देश के बहुत से संतों के साथ तो ये नहीं हुआ लेकिन कुछ के नाम पर धंधा चमका दिया गया। शिर्डी साईं उनमें से एक हैं। जगह-जगह मंदिर स्थापित करके बाबा के नाम पर एक तरह से दुकानें बना दी गईं हैं। सच्चे साईं भक्त हैं तो उनके मार्ग पर चलिए, साईं को न आपके समर्थन की आवश्यक्ता है और न ही किसी के कहने से उनका महत्व बढ़ता या घटता है। उनका महत्व उनका अपना आदर्श जीवन और व्यक्तित्व था जो हमेशा जीवित रहेगा। प्रश्न पूछिए स्वयं से मुझे ईश्वर क्यूं चाहिए? जवाब में आपकी कामनापूर्ती और इच्छाओं का झुंड दिखाई दे तो सावधान आप गलत रास्ते पर हैं। आप ऐसा आनंद चाहते हैं जो अविचल और अमर हो तो आप सही रास्ते पर हैं। जी हां होता है ऐसा आनंद, मिला है ऐसा आनंद और उन्हीं को मिला है जिन्हें आजकल आपने मंदिरों में बैठा दिया है। डॉ प्रवीण श्रीराम