प्लेन की यात्रा में अगली पंक्ति का टिकट था। सीट बीच वाली थी। प्लेन
में घंटे भर की यात्रा करनी होती है फिर भी बीच वाली सीट को लेकर हीन मनोदशा पता
नहीं क्यूं हो जाती है। मैं खड़ा खड़ा सीट बदलने की योजना बना रहा था क्यूंकि कुछ
पीछे ही हमारे सीनियर दीपक चौरसिया बैठे थे। सोचा उनके साथ बातचीत करते हुए जाने
का मौका मिल जाएगा। खड़े खड़े विचार कर ही रहा था कि जो
सज्जन विंडो सीट पर थे वो आए और मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा क्या मैं अपनी सीट पर
बैठ जाऊं। बहुत सौम्य चेहरा और सौम्य आवाज, मैंने कहा जी जरूर। फिर मैं भी सोचते
विचारते अपनी मिडिल सीट पर बैठ गया। इतने में आइल सीट पर बैठे सज्जन आ गए।
उन्होंने आते ही जोरदार आवाज के साथ मेरे साथ बैठे सज्जन का अभिवादन किया और उनके
पैर छुए। इसके बाद उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि क्या मैं मिडिल सीट पर बैठ सकता
हूं। नेकी और पूछ पूछ मैं तो उधार ही बैठा था। खैर सीट की अदला बदली हो गई। इसके
बाद अब मिडिल सीट पर बैठे सज्जन ने अपना फोन निकला और विंडो सीट पर बैठे सज्जन के
साथ सेल्फियां खींचने लगे। मुझे उनके बातचीत के अंदाज और उनके प्रति दिख रहे
उत्साह से लगा कि हो न हो मेरे बाजू में बैठे सज्जन कोई खास व्यक्ति हैं। मैंने
मिडिल सीट वाले भाई साहब से पूछा ये हैं कौन? उन्होंने कान में फुसफुसाते हुए कहा देश
के रक्षा राज्य मंत्री।
डॉ. सुभाष भामरे के बारे में मैं बहुत नहीं जानता था लेकिन वो एक
बेहतरीन डॉक्टर रहे हैं और कैंसर के प्रति उन्होंने जागरुकता का बड़ा अभियान चलाया
था और साथ ही वो मोदी कैबिनेट के सबसे बेहतरीन मंत्रियों में शामिल हैं, इतनी
जानकारियां मुझे थीं। सीट बदलने पर थोड़ा सा निराश हुआ लेकिन अब भी ज्यादा दूर
नहीं था मेरे और मंत्री जी के बीच वही सज्जन थे जिनसे मुझे उनके बारे में जानकारी
मिली। वो भी मराठी मूल के थे और रक्षा राज्य मंत्री भी धुले के सांसद हैं और
महाराष्ट्र के काफी लोकप्रिय नेता भी हैं। दोनों की बातें चल रही थीं और मुझे भी
मराठी का थोड़ा बहुत ज्ञान होने से बातचीत में दिलचस्पी हो रही थी। मैंने बातचीत
के बीच में अपना सिर घुसाया और पहले तो मंत्री जी को नहीं पहचानने के लिए उनसे
माफी मांगी। हंसते हुए ये भी कहा कि मोदी कैबिनेट के इतने बड़े मंत्री बाजू वाली
सीट पर बैठे होंगे इसका जरा भी गुमान नहीं था। फिर उनसे पूछा कि क्या अब प्रैक्टिस
कर पाते हैं? क्यूंकि मूलतः वो एक डॉक्टर हैं। उन्होंने जवाब दिया इस मंत्रालय में
आने के बाद तो बिलकुल भी नहीं, जिम्मेदारियां बहुत हैं।
अब बारी मेरी थी। डॉ. भामरे को मैंने अपना परिचय दिया। एक घंटे से
ज्यादा का वक्त था और मेरे भीतर सवालों की कोई कमी नहीं थी। बातों बातों में मेरी
पुस्तकों के बारे में चर्चा निकली और ब्लूम्सबरी के साथ प्रकाशित होने वाली पुस्तक
के बारे में भी कुछ जानकारियां उन्हें दी। वो इसके विषय को सुनकर बहुत उत्साहित हो
गए। उन्होंने कहा मुझे इसकी पहली प्रति जरूर देना। इसकी विषय वस्तु उनकी दिलचस्पी
का विषय है। इस पुस्तक के बारे में तो मैं आपको आगे कभी विस्तार से बताऊंगा ही
लेकिन इस लंबी यात्रा के बाद उनके व्यक्तित्व का एक बेहतरीन पहलू सामने आया जिसकी
वजह से मैंने इस मुलाकात पर इतना लंबा ब्लॉग लिखने का मन बनाया। यात्रा खत्म होने
को थी मैंने संकोच के साथ पूछा प्लेन के बाहर तो आप तक पहुंचना बहुत कठिन होगा। किताब
लेकर कैसे पहुंचूंगा आप तक? क्या रक्षा मंत्रालय के जरिए संपर्क करूं? उन्होंने हंसते हुए
कहा हां ये तो एक बढ़िया तरीका है ही लेकिन आप मेरा पर्सनल नंबर भी रख सकते हैं।
बातें करते करते कैसे एक घंटा बीत गया पता ही नहीं लगा।
प्लेन के लैंड करते ही बारी थी उनका प्रोटोकॉल देखने की। मैंने तो ये
देखा है कि हम जैसे छोटे मोटे पत्रकारों को भी कई बार सीआईएसएफ के भाईयों की वजह
से कुछ विशेष ट्रीटमेंट मिल जाता है फिर रक्षा राज्य मंत्री के लिए तो विशेष
सुविधाएं निश्चित तौर पर होंगी। हम प्लेन से नीचे उतरे तो मैंने सोचा उन्हें उनकी
कार तक छोड़ देता हूं फिर बस से आगमन स्थल तक पहुंच जाऊंगा। मुझे आश्चर्य तब हुआ
जब वो मेरे ही साथ सीधे बस में चढ़ गए। मैंने भी उनसे पूछ लिया आप बस में क्यूं जा
रहे हैं?
उन्होंने कहा क्यूं नहीं जैसे सब जा रहे मैं भी जाऊंगा। मैं उनसे प्लेन में हुई
लंबी बातचीत के बाद उनकी सहजता और विजन का जबरदस्त कायल हो ही गया था लेकिन उनकी
सादगी ने मुझे और प्रभावित किया। आम तौर पर इस तरह के प्रशंसा पत्र को चाटूकारिता
माना जा सकता है लेकिन मुझे सचमुच ये कहने में कोई परहेज नहीं कि टीम मोदी में कई
ऐसे चेहरे हैं जो सचमुच जिम्मेदारियां उठाने के काबिल हैं। डॉ. सुभाष भामरे की
योग्यता को उनके बस में बैठने भर से नहीं तौला जा रहा बल्कि एक डॉक्टर के तौर पर
कामयाब रहने के बाद राजनीति और फिर देश के बड़े मंत्रालय तक बेदाग तरीके से पहुंचने
की उनकी यात्रा भी उनकी योग्यता का प्रमाण हैं। मैं उन्हें अपनी किताब की पहली
प्रति दे पाऊंगा या नहीं ये कहना तो मुश्किल है। उनके पर्सनल नंबर पर मुझे जवाब
मिलेगा या नहीं ये कहना भी मुश्किल है, लेकिन उनके साथ घंटे भर की हवाई यात्रा के
बाद की गई कुछ मिनटों की बस यात्रा को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा।