शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

पंडित या कॉमरेड (जैसी जिसकी रुचि)!!! श्रीराम तिवारी जी के व्यक्तिव के तीन आयाम (जन्मदिन विशेष)


गूगल बाबा (पांडित्य प्राप्त करने की सही परिभाषा)

प्रवीण जी देशभक्ति पर संस्कृत में कोई श्लोक जानते हैं क्या? मैंने कहा मैं नहीं जानता मेरे गूगल बाबा जानते है। अरे प्रवीण जी गूगल पर नहीं मिल रहा तभी तो पूछा। मैंने फिर कहा मेरे गूगल बाबा अलग है ...एक मोबाइल नंबर है... जिस पर सिर्फ अपना सवाल बता दो.. साहित्य, विज्ञान, अध्यात्म, राजनीति या कोई भी विषय.. आपको जवाब मिल जाएगा। आश्चर्यजनक... मैं तो ऐसे किसी नंबर के बारे में नहीं जानता। ... कोई बात नहीं ये लीजिए नंबर.. फोन करिए आपको परिचय भी नहीं देना होगा और जानकारी मिल जाएगी। कुछ अविश्वास के साथ मेरे मित्र ने फोन किया.. और प्रणाम कहकर अपना सवाल पूछा.. कुछ देर में उन्हें जानकारियां मिल गईं। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उत्साह से उन्होंने पूछा अरे अब तो बता दीजिए कौन ज्ञानी हैं ये? मैंने इतराते हुए, गर्व और अहंकार की मिश्रित अनुभूति के साथ कहा मेरे पिताजी हैं.. और उनका नंबर मेरी मित्र मंडली में कई लोगों के पास है। जब जिसे जो जानना होता है या कुछ लिखना होता है तो उन्हें फोन घुमाकर बतिया लेता है..काफी जानकारियां मिल जाती हैं... पिताजी की हजारों किताबों का संकलन बचपन से देखता आया.. आश्चर्य होता था कोई कैसे इतना पढ़ सकता है.. यही वजह रही मुझे कभी किताबों को पढ़ने का मन नहीं किया और सच पूछिए तो जरूरत भी महसूस नहीं हुई। इसे आप वंशानुगत बीमारी कह सकते हैं अब मेरे पास भी ऐसा ही संकलन है लेकिन पढ़ता अब भी नहीं.. जब सुनना होता है तो गूगल बाबा को फोन घुमा लेता हूं... पिताजी बचपन से ही समझाते रहे तिवारी, मिश्रा, दूबे.. आदि इत्यादि होने से कोई पंडित नहीं होता.. पांडित्य अध्ययन से और उसे बांटने से आता है.. मुझे खुद से तो ऐसी किसी प्रतिभा के विकसित होने की कोई उम्मीद या महत्वकांक्षा नहीं लेकिन निश्चित तौर पर मैं अपने पिता के व्यक्तित्व में ये एक दैवीय पांडित्य मानता हूं जो उन्हें जन्मजात प्राप्त है....


अपने आदर्शों से कोई समझौता नहीं (कड़क मिज़ाजी)

इनके मिज़ाज से इन्हें दूर से जानने वाला भी वाकिफ है। कोई कुछ भी कहे, चाहे जितना मना करे... जो मन में है वो कह कर रहेंगे.. कोई बुरा माने भला माने कोई फर्क नहीं पड़ता। पापा के एक अजीज मित्र थे जो अब नहीं रहे.. चाचा ने धनोपार्जन के मामले में अपने सभी सहयोगियों को पीछे छोड़ दिया था.. लेकिन पिताजी के पास हफ्ते में एक बार बैठने जरूर आते थे.. बस पापा को सुनते रहते थे (जैसा ज्यादातर लोगों को करना पड़ता है).. मैं इत्तेफाक से इंदौर में था.. चुटकी लेने के लिहाज से मैंने उनके सामने पापा से कह दिया.. देखा पापा आप ने भी व्यवसाय सीख लिया होता तो आज अंकल की तरह गाड़ी और बंगला बना लिया होता.. पापा भी .. हूंssss… वाली मुद्रा में आ गए.. इतने में अंकल खड़े हुए और पापा के पीछे जाकर खड़े हो गए.. हाथ जोड़कर मुझसे बोले... बेटा मैं जानता हूं तू मजाक में ये कह रहा है लेकिन मेरे जीवन की उपलब्धि बस इतनी है कि इस इंसान के पीछे खड़े होने का मौका मिला है.. ये कभी गाली भी बक देते हैं तो लगता है आशीर्वाद मिल गया... इनके सामने धन क्या है.. इनकी बराबरी के बारे में तो सोचना भी पाप है.. अब पापा मुस्कुराए और मुझे देखते हुए बोले.. मैंने ये कमाया है और तुमसे भी यही कमाने की उम्मीद करता हूं.. जो पापा के मिज़ाज को समझ गए वो सचमुच भाग्यशाली हो गए और कड़क मिज़ाजी से बिदक जाने वाले अभागों की तो लंबी लिस्ट है.. पर जो अपने आदर्शों से समझौता नहीं करता उसके साथ रहने का तो बस एक ही तरीका है समर्पण..

वसुधैव कुटुंबकम (परिवार की विस्तारित संकल्पना को मानने वाले)

मेरे सभी मित्र मेरे पापा से आज भी पापा ही कहते हैं.. श्याम ऐसा मित्र था जो सामाजिक रूप से भी अपने पिता का नाम श्रीराम तिवारी ही बताता था और कहता था उन्हें पिता कहने का सौभाग्य छोड़ना नहीं चाहता उसकी ये बात सुनकर मुझे अपने सौभाग्य का एहसास होता था.. दुर्भाग्य से श्याम अब नहीं रहा लेकिन उसका मेरे पिता के लिए सम्मान अब भी मन में है.. पापा भी मेरे मित्रों पर वहीं अधिकार और व्यवहार रखते हैं जो मुझ पर.. फिर चाहे एक समय सबकी पिटाई की बात हो या उनके खौफ से उन्हें कहीं देखकर दोस्तों का भाग खड़े होना हो.. निश्चित तौर पर अपने छोटे भाई परशुराम तिवारी (जिन्हें वो अपना बड़ा बेटा ही मानते हैं), मेरी बहन अनामिका, मेरी और मेरे भांजे अक्षत को तो उन्होंने बेहतरीन परवरिश और शिक्षा दीक्षा दी ही.. साथ ही जो मुमकिन हो सका वो उन सभी के लिए शिक्षा के क्षेत्र में किया जो उनके संपर्क में आए.. उनके कड़क स्वभाव से हम सभी परेशान भी हुए हैं.. कठोर अनुशासन और अपने हिसाब से ही हर चीज को चलाना उनकी पहचान है और इससे वो समझौता नहीं करते... चाहे आप बुरा माने या भला माने.. चाहे आप साथ हो या न हो..

मेरी और पापा की राजनैतिक विचारधारा कभी नहीं मिली.. पिताजी की राजनैतिक विचारधारा की विरासत मेरे चाचा परशुराम तिवारी जी को मिली.. लेकिन चाहे मेरे प्रिय मामाओं की एकदम अलग विचारधारा हो या मेरी अपनी राजनैतिक विचारधारा हो हमें अपने घर में ही अपनी धार तेज करने का मौका मिला.. अच्छी बात ये है कि मुझे चाहे तीखे जवाब ही मिले हों लेकिन तार्किक जवाब रहे हैं जो मुझे खुद को बेहतर करने में और सहयोग करते हैं.. ये भी सच है कि उनके कठोर अनुशासन और गुस्से के पीछे बहुत जल्दी शांत हो जाने वाला एक चित्त भी है.. जिसे मेरी मां उर्मिला तिवारी से बेहतर कोई नहीं जानता और यही बात है कि ये जोड़ी सबसे जुदा दिखने के बावजूद भी सबसे ज्यादा परफेक्ट है.. उफ्फफ क्या क्या लिख देना चाहता हूं लेकिन वो मेरे मन के भाव हैं.. कुल मिलाके सब बातों को समेट लूं तो एक ही बात समझ आती है... मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं जो मुझे ऐसे पिता मिले... मेरे जीवन में अध्यात्म का प्रवेश भी बहुत छोटी उम्र में अपने पिता को देखकर ही हुआ.. उनके जनवादी लेखन और संस्कृत वांग्मय पर पकड़ ने मुझे सहजता से बहुत कुछ सीखने में मदद की और ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहे ऐसी अपने कुल देवता ठाकुर बब्बा और सबके पालनहार और संहारक बाबा महाकाल से अभिलाषा है.. यहां तक मेरे मन के भावों को पढ़ने के लिए ह्रद्य से धन्यवाद...