शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

दिल की सुनो तो जो दिल से चाहते हो मिल जाएगा।

ये एक बहुत बड़ा भ्रम है कि जिन्हें हम महान लोगों की श्रेणी में रखते हैं वो अद्भुत होते हैं या कुछ विशेष क्षमताओं वाले होते हैं। एक बहुत ही सामान्य प्रश्न बचपन से ही आप सुनते आ रहे हैं, आप क्या बनना चाहते हैं? छोटे बच्चे आज भी मासूमियत से जवाब देते हैं मैं डॉक्टर बनना चाहता हूं, मैं एअर होस्टेस बनना चाहती हूं, मैं फिल्म स्टार बनना चाहता हूं आदि इत्यादि। ये सवाल कुछ सालों तक तो हमारे साथ रहता है लेकिन उसके बाद दसवीं के बाद कौन सा विषय लेना है पर बात जा टिकती है। किसी तरह 12 वीं पास हो जाए तो कॉलेज का मुंह देखें। फिर फलां कॉलेज फलां विषय का मामला आता है। आप सब दिमाग पर थोड़ा जोर डालेंगे तो याद आएगा कि फाइनल इयर में कैसे भगवान से मन्नत मांगी कि ग्रेज्यूएट करा दो बस। फिर नौकरी... फिर नौकरी में आगे बढ़ते रहने की दौड़। सबकी कहानी लगभग मिलती जुलती मिलेगी। समानता इस बात की भी मिलेगी कि ये सब करते करते जो जहां पहुंच गया है उसे ही वो सबसे सुरक्षित स्थान मानता है। उसे बचाए रखने की और उसी के दायरे में आगे बढ़ते रहने की अपेक्षा से उसके सपने संकुचित हो जाते हैं। यूं तो हम तमाम उदाहरणों को पढ़ते रहे हैं लेकिन अपने निजी जीवन में मैं कुछ लोगों से मिला और बहुत प्रभावित हुआ। ये वो लोग थे जो अपनी पढ़ाई और नौकरी में एक मुकाम पर पहुंचे और फिर उन्होंने अपने शौक और खुशी को अपनी पढ़ाई लिखाई पर तरजीह दी।
पलाश सेन का नाम आप सबने सुना होगा। जो नहीं जानते उन्हें यूफोरिया बैंड या माईरी गीत की याद दिलाने पर उनका चेहरा सामने आ जाएगा। पलाश पेशे से एक डॉक्टर रहे हैं लेकिन उनका दिल कहीं और लगता था। उन्होंने दिल की सुनी और संगीत को चुना। वो डाक्टर बन कर भी समाज को कुछ दे सकते थे लेकिन तब शायद वो अपने साथ न्याय नहीं करते और अगर उनका दिल इस काम में नहीं लगता तो कोई बहुत अच्छे डॉक्टर भी साबित नहीं होते। लेकिन गायक और संगीतकार के तौर पर उन्होंने बहुत लोगों का दिल जीता और आज भी उनके ये गीत सुकून देते हैं। कुछ ऐसी कहानी राहुल राम की है जो इंडियन ओशन बैंड के लीड सिंगर है। आईआईटी से पढ़ाई और विदेश की जानी मानी युनिवर्सिटी से environmental toxicology जैसे विषय पर पीएचडी के बाद किसी के लिए गिटार पकड़ना असंभव सा लगता है लेकिन ऐसा हुआ है। राहुल राम ने अपने गानों से धमाल मचा दिया।
ये बात अपने करियर छोड़ कर संगीत या मनोरंजन के क्षैत्र में आए कुछ नामों की हुई, लेकिन ऐसा नहीं है कि सबके सब गायक ही बनेंगे बात सिर्फ अपने मिज़ाज के काम को चुनने की है। मेलूहा के मृत्यूजंय (the immortal of Meluha) लिखकर अपनी पहचान बनाने वाले अमीश त्रिपाठी ने बैंकिंग क्षैत्र में लंबे समय काम करने और स्थापित हो जाने के बाद लेखक का करियर चुना।
मन की सुनी तो पाठकों ने भी हाथों हाथ लिया। अमीश बहुत ही शानदार इंसान भी है गाहे बगाहे उनसे बात होती रहती है और वो इसे शिव की कृपा मानते हैं। ये बात तो सच है कि पैसे और जिम्मेदारियों के चक्कर में बंधे न रहकर जिस किसी ने भी इस बंधन को तोड़ा उसे पैसा, शोहरत आदि अपने मूल काम से ज्यादा ही मिला। सिद्धांत ये कहता है कि पैसे और स्थायित्व के चिंतन से या चाहे जिस काम में इन्हें तलाशने से इनकी प्राप्ति नहीं होती, हां, ऐसा कुछ करने लगे जिसमें हमें मजा आता हो या जो हमारे मिजाज का हो तो काम तो करेंगे ही पैसा आदि खुद ब खुद खिंचा चला आएगा। अमीश की तरह ही मैनेजमेंट फील्ड के आदमी चेतन भगत आज फिल्में लिख रहे हैं, उनके उपन्यास युवाओं की पसंद बन गए हैं। ऐसी जाने कितनी कहानियां आपको मिल जाएंगी जो बताती हैं कि अगर हम दिल की सुनते हैं तो ये आवाज हमें सचमुच वो दिला देती है जो हम सचमुच दिल से चाहते हैं। मेरे अपने जीवन में मैंने कुछ मित्रों को सफलता पूर्वक ये करते हुए देखा है।
एक मित्र अकांउट की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर पत्रकारिता करने चले आए। मुझे जब मिले तो मैंने कहा आपको भी इस उम्र में क्या कीड़ा काट गया। साल 2004 में वो 30000 हजार रु. की नौकरी छोड़कर एक चैनल में इंटर्न तक बनने को तैयार हो गए। आज मेरे जीवन के कुछ प्रेरणादायी लोगों में शुमार ये बड़े भाई देश के नामी गिरामी चैनल के बहुत सम्मानित पद पर हैं। उनमें लगन थी और उस लगन को मैंने नजदीक से महसूस किया है। सबकुछ दांव पर लगा देने के बाद ये जुनून बन जाता है और फिर कोई आपको नहीं रोक सकता। एक और मित्र ने करीब 14 साल एंकरिंग करने के बाद ये महसूस किया कि उन्हें इस काम में वो सुकून नहीं मिलता जो शायद व्यवसाय में मिल पाए। व्यवसायिक बुद्धि के होने की वजह से वो शेयर मार्केट और छोटे मोटे व्यवसायों में अपनी ऊर्जा तो लगाते थे लेकिन इसका बहुत ज्यादा फायदा उन्हें नहीं हो पाता था। अलबत्ता नुकसान ये होता था कि नौकरी में समय पर नहीं आने पर तनख्वाह कटना या अपने काम में अरुचि होने से काम की गुणवत्ता में कमी आना, ऐसी परिस्थितियों से उपजी खीज को अपने साथियों पर निकालने जैसे कई लक्षणों का तो मैं खुद चश्मदीद भी बना। एक दिन उन्होंने फैसला किया कि वो अब बिजनेस पर ही पूरा ध्यान लगाएंगे। मैंने प्रोत्साहित किया लेकिन मन में ये भय भी आया कि बिजनेस चले ना चले। सैलरी नहीं आएगी तो घर कैसे चलाएंगे। घर में कमाने वाले अकेले हैं और दो छोटे-छोटे बच्चे भी हैं। हांलाकि ये मेरा भय था वो शायद अपनी बिजनेस प्रतिभा को लेकर आश्वस्त थे। कोई आश्चर्य आपको नहीं होगा कि आज वो अपनी सैलरी से कई गुना ज्यादा पैसा कमा रहे हैं। आज उनसे मिला तो एक कामयाब व्यवसायी कि तरह हंसते मुस्कुराते गर्मजोशी के साथ उनकी प्रोत्साहित करने वाली बातों ने इस सिद्धांत को और मजबूत किया कि दिल की सुनो तो दिल से मांगा हुआ मिल जाता है। अंग्रेजी में half heartedly का इस्तेमाल होता है हम उसे अनमने ढंग से कह सकते हैं। अनमना होकर या आधे मन से काम करना हमें तकलीफ तो देता ही है साथ ही कोल्हू के बैल की तरह हम गोल गोल चक्कर लगाकर अपनी बेशकीमती ऊर्जा, बेशकीमती समय भी बर्बाद कर देते हैं। आज आप अनमने ढंग से काम करने वालों की एक बड़ी भीड़ अपने इर्द-गिर्द पाएंगे। हो सकता है आप भी आधे मन से काम करने के रोग से ग्रस्त हों। हैं? … बस इतना जान लेना भर ही तो आपको अपने दिल की आवाज सुनने की तरफ अग्रसर कर देगा। डर तो लगेगा भाई लेकिन अभी तक के सारे मामले जहां पूरी शिद्दत से दिल की आवाज सुनी गई है, वो इस ओर इशारा करते है कि दिल से चाही मुराद भी पूरी हो सकती है। पसंद आपकी है.. गोल.. गोल.. गोल... घूमते रहिए, या तोड़िए घेरा.. अगर जरूरत है तो। जबरदस्ती आजमाना तो महंगा पड़ेगा ही। डॉ. प्रवीण श्रीराम

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