शनिवार, 29 मार्च 2014
जीवन के फैसले और फिसलते मौके !
पहले क्षमता और अक्षमता को समझना जरूरी है। दो परिस्थितियां हैं शारीरिक और मानसिक। शारीरिक अक्षमता में मनुष्य में आम तौर पर पाई जाने वाली सक्षमता का अभाव होता है। मानसिक अक्षमता में हम जानते हैं कुछ लोग कम बुद्धि के या सामान्य बुद्धि ज्ञान से कम आंके जाते हैं। हमने अपने आसपास और जीवन के अनुभव से ये समझा है कि इन दोनों ही अक्षमताओं का सफलता और असफलता से ज्यादा लेना देना नहीं होता है। दुर्भाग्यवश अगर कोई बिस्तर पर ही पड़ा है या मानसिक रूप से विकलांग है तब बात दूसरी होती है, वहां निर्णय लेने का पैमाना और घटनाएं बहुत सामान्य होती हैं। जैसे खाने-पीने और घूमने तक सीमित जैसा आमतौर पर बच्चों के साथ होता है। वहीं मानसिक रूप से स्वस्थ और शारीरिक रूप से विकलांग लोगों में आम तौर पर एक कुंठा होती है कि वो अगर पूर्णतः स्वस्थ होते तो शायद जीवन में कुछ उपलब्धियों को हासिल कर पाते। हांलाकि इस पूरे विषय का एक पहलू ये भी है कि कई लोगों में इसी विकलांगता ने लगन को और मजबूत किया और ये लोग वो कर पाए जो पूर्णतः स्वस्थ लोग भी नहीं कर पाते हैं। यानि कई बार अभाव और परेशानियां ही आपके लिए उत्प्रेरक का काम करती है। आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिकों या कई अन्य कलाकारों के बारे में सामान्य तौर पर यह बात पढ़ने को मिलती है कि ये लोग सामाजिक तौर पर उतने ज्यादा सफल नहीं थे जितने अपने करियर और विषय में। इसके मायने ये हैं कि उनके मित्र, परिजन एवं उनके व्यक्तित्व को नजदीक से समझने वाले लोगों के लिए वे उतने अच्छे नहीं थे जितने वे अपने विषय के प्रति समर्पण को लेकर अपने चाहने वालों के लिए थे। संघर्ष से उठे चार्ली चैप्लिन के जीवन में भी ऐसी कई बातें दृष्टी गोचर होती हैं कि वे फिल्मी पर्दे पर जितने हंसमुख और मजाकिया थे असल जीवन में उतने ही गंभीर और संबंधों से जल्दी विरक्त हो जाने वाले इंसान थे। उनकी कई शादियां इस बात का सबूत है। ऐसे सभी महान लोगों को हम समाज में एक आदर्श के तौर पर देखते हैं क्योंकि उनका जो चेहरा हमारे सामने आता है वो बड़े परिदृश्य में या ज्यादा लोगों को कुछ देने वाला चेहरा होता है। आप कोई भी उदाहरण ले लें वहां आप ये सामान्य तथ्य जरूर पाएंगे। ज्यादातर लोग भाग्य का हवाला देते हुए कहते हैं कि ये उनकी किस्मत थी लेकिन हकीकत दरअसल ये है कि ये उनके फैसले थे और फैसलों के साथ-साथ एक के बाद एक हाथ से फिसलते वो मौके थे जिन्हें हम ठोकरें भी कहते हैं। जीवन में तमाम ऐसे मोड़ आते हैं जब हमें फैसला लेना होता है। इन ठोकरों से कई लोग अपने फैसले लेने की क्षमता को बढ़ाते हैं यानि इन्हें एक सबक की तरह लेते हैं और फिर प्रयास में जुट जाते हैं। तो वहीं बड़ी तादाद ऐसे लोगों की होती है जो इनसे हताश होते हैं और एक और ठोकर का मतलब इनके लिए खुद पर से विश्वास खत्म होने जैसा हो जाता है। परिस्थिति एक जैसी है पर उसका इस्तेमाल एक दम अलग-अलग परिणाम हमारे सामने रखता है। आमतौर पर ड्राइविंग सीखते वक्त हम ये सुनते है कि एक दो बार गाड़ी ठुकेगी और फिर सीख जाओगे। वहीं कई लोग शुरूआत में हुई गाड़ी कि भिड़ंत या नुकसान से इतना डर जाते है कि दोबार वे स्टीयरिंग पर हाथ नहीं रख पाते हैं। सामान्य तौर पर गाड़ी सीख लेने वालों की तादाद ज्यादा होती है और डर जाने वालों की तादाद कम होती है। लेकिन जब जीवन की गाड़ी सीखने के बात आती है तो डरने वालों की तादाद ज्यादा होती है। जो जीवन की गाड़ी चलाना सीख जाते हैं उन्हें हम कामयाब लोग कहते हैं और जो डर जाते हैं वो इन्ही कामयाब लोगों की तारीफे करने में, भयग्रस्त होने पर उनसे प्रेरणा लेने में या ज्यादातर कामयाब लोगों के लिए काम करते रहने में जीवन व्यतीत कर देते हैं।
डॉ. प्रवीण श्रीराम
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