शनिवार, 29 मार्च 2014

क्या हम औरों की तरक्की से जलते हैं?

एक बिल्डर का विज्ञापन कहता है कि हम आपको ऐसा घर देंगे जिसे देखकर दूसरे जलन करेंगे। ये उसका हिंदी तर्जुमा या भावार्थ है। आपको याद होगा कुछ ऐसा ही विज्ञापन एक टेलीविजन कंपनी ने भी कई सालों पहले किया था। वैसे देखा जाए तो ये कोई नया पैंतरा नही है आम तौर पर हम इस तरह के पैंतरे मार्केटिंग योजनाओं में देखते रहते हैं। दरअसल मनोविज्ञान पर काम करने वाले ये एटवरटाइजर जानते हैं कि आजकल लोगों के दिल में दूसरों के सामने दिखावा करने की और खुद को उत्कृष्ट दिखाकर अपने आसपास के लोगों को जलाने की एक भावना रहती है। वहीं ये भी देखा गया है कि दूसरों की तरक्की और वैभव को देखकर भी कई लोगों में कुंठा का भाव जागृत होता है। अब जरा गंभीरता से विचार कीजिए आखिर ये स्थिती क्यों बनी? विचार करने पर जवाब खुद मिल जाएगा लेकिन जो इस बीमारी से बुरी तरह ग्रसित हो चुके हैं वो इस पर विचार करने के बारे में भी सोच नहीं पाएंगे क्योंकि अब इसी तरह से सोचना उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है। मनोविज्ञान पर किये गए तमाम शोध बहुत ही स्पष्टता से इस बात को सामने रखते हैं कि लगातार हम जिन बातों को सोचते रहते हैं वही हमारे कर्म में परिवर्तित होती हैं और लगातार हम जिन कर्मों को करते रहते हैं वही हमारे चरित्र में परिवर्तित होता है। यही चरित्र हमारा अस्तित्व बन जाता है और फिर हम जीवन के हर क्षण और हर रण में इसी के हिसाब से अपनी योजनाएं बनाते हैं। आप स्वयं अंदाजा लगा सकते है कि ऐसे विकृत चरित्र के साथ हम क्या योजनाएं बनाएंगे। दरअसल वैभव का दिखावा और उसकी चाहत दोनों आज की बात नहीं है शायद मानव सभ्यता के विकास के साथ ही इस विकृति का भी प्रादुर्भाव हो गया था। विकृति इसीलिए क्योंकि मानव सभ्यता के विकास से इसका कोई लेना देना नहीं है। दुनिया में जिन अविष्कारों और वैभवपूर्ण चीजों के विकास को आप देखते हैं वो मानव जिज्ञासा और विज्ञान के सतत विकास का नतीजा है। फिर इसका इस्तेमाल बाजार के व्यवसायियों ने किया। बड़ी चालाकी से मानवमात्र की इस सामान्य मनोवैज्ञानिक कमजोरी को भुनाया गया जिसमें वह दूसरों से बेहतर दिखना और रहना चाहता है। जरा गंभीरता से विचार कीजिए ऐसा करने से हमें क्या प्राप्त होता है और इससे हमारा और समाज का क्या विकास होता है। पीढ़ी दर पीढ़ी ये परंपरा कुछ इस तरह आगे बढ़ती गई की आज तो ये जीवनचर्या का सामान्य हिस्सा बन चुकी है। इसके बारे में अब सोचने की क्या आवश्यक्ता है। जब इंसान ने धरती से पहली बार चांद तारे देखे होंगे तो आश्चर्य चकित हुआ होगा। फिर उसकी जिज्ञासा पूर्ती के लिए खगतोल शास्त्र बना और आज हम बेशक इन तारों के बारे में सबकुछ न जानते हो लेकिन बहुत कुछ तो जानते ही हैं। आज आसमान में झांकते हुए हमें उतना आश्चर्य नहीं होता और ये हमारे लिए सामान्य बात है। इसी तरह मानव सभ्यता के विकास के साथ कई बातें हमारे लिए बहुत सामान्य हो गई और हमने इन पर सोचना छोड़ दिया। अविष्कारों और सुविधाओं के साथ आमतौर पर कई मनोवैज्ञानिक विकृतियां भी हमारे समाज का हिस्सा बनती चली गई और यही वजह है कि आज समाज सुंदर और सुरक्षित के बजाय असुरक्षित ज्यादा लगता है। एक दूसरे के प्रति प्रेम के बजाय ईर्ष्या को ज्यादा भुनाया जाता है। हमें लगता है कि किसी और के मन में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न कर हम कोई बड़ा तीर मार लेंगे। जरा ठहरिये दुनिया की छोड़िए कुछ देर अपने साथ बैठिए और सोचिए कहीं मैं भी तो अनजाने में इस रोग से पीड़ित नही हो गया हूं? निश्चिंत रहिये मैं पूरी ईमानदारी से इस पर विचार कर रहा हूं। डॉ प्रवीण श्रीराम

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