बुधवार, 5 नवंबर 2014

'मैं' और 'वह'!

मैं विवेक के प्रकाश और ज्ञान के साथ मानव का जन्म होता है। दुनिया का ज्ञान उसे उसकी परिस्थितियां और उनसे जुड़े लोग कराते हैं। नाम, धर्म, जाति, अमीरी-गरीबी, बड़े-छोटे का भाव ये सब हमें अन्य लोगों द्वारा दिया जाता है। जीवन पर्यंत हम इन्हीं को सत्य मानते हैं और इन्हीं के आधार पर सत्य की खोज करते हैं। जो इन्हीं में बंध कर रह जाते हैं वे सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाते। जो धीरे-धीरे इन आवरणों को तोड़ते हुए अपने अस्तित्व को पा लेते हैं उन्हें सत्य की प्राप्ति होती है। आप को माता-पिता और समाज से जो पहचान मिलती है उसी के आधार पर आप अपनी सोच विकसित करते हैं। इस सोच का असर जीवन के हर फैसले और लक्ष्यों के चुनाव पर पड़ता हैं। एक स्थिती ऐसी आती है जब आप की दुनिया दायरों में बंध जाती है। आपके लोग, समाज में आपकी प्रतिष्ठा, आपके प्रियजन, आपके निंदक, आपका वैभव-संपदा और आपका पांडित्य इन सब बातों को मिला कर ‘मैं’ बन जाता है। दरअसल सीमाओं में बंध कर अपने अस्तित्व को कोई आकार और नाम दे देने का ही मतलब ‘मैं’ है। ये ‘मैं’ किसी का स्वामी बन जाता है तो किसी का गुलाम। इसकी पसंद-नापसंद तक इस पर थोपी हुई होती है। कुछ लोग कुछ मायनों में दायरा तोड़ देते हैं लेकिन फिर भी वे झूठे ‘मैं’ के अस्तित्व से बंधे रहते हैं। उदाहराणर्थ कुछ उच्च कुलीन लोग अपने बताए हुए कुल की परंपराओं आधार पर अपने नाम तो रख लेंगे लेकिन कर्मों में वे उस कुल विशेष के लिए वर्जित किए गए कर्मों को भी करते रहेंगे। कर्म बदल जाएंगे लेकिन उस नाम को और कुल को पकड़े रहेंगे। ये भी ‘मैं’ का ही असत अस्तित्व है कि आप किसी को अपने से बड़ा और किसी को अपने से छोटा समझने लगते हैं। इस ‘मैं’ के भ्रामक अस्तित्व को तोड़ने की आवश्यक्ता महसूस न होना भी एक गंभीर भूल है। ‘मैं’ की सीमाओं में बंधकर मानव अपनी असीमता को खो देता है। ज्ञानी होने के भ्रम में वो इसे तोड़े जाने के हर प्रयास को कमजोर करने के लिए कुतर्कों को जन्म देता है। ये ‘मैं’ इतने गहरे पैठ बना लेता है कि इसने तोड़ने मात्र का विचार डरा देता है। मानव, शरीर के साथ विवेक का भी प्रतीक है। ये मानव विवेक ही है जिसने अपने से बड़ी सत्ता की खोज की और ‘मैं’ के असत को तोड़ने में भी कामयाब हुआ। विवेक के प्रकाश में कई मनुष्यों ने जाना कि वे असीमित क्षमता वाली किसी परम सत्ता का अंश हैं। जब कोई मनुष्य परम सत्ता के गुणों को समझ कर उन्हें खुद में विकसित कर लेता है तो वो भी ‘वह’ हो जाता है। सारे मनुष्य जल की बूंद के समान हैं और ‘वह’ समंदर के समान। जब बूंद समंदर में मिलती है तो ‘मैं’ भी ‘वह’ ही हो जाता है। इस ’वह’ को हमने भगवान, गॉड, अल्लाह जैसे कई नाम दे दिए हैं। कृष्ण, ईसा, बुद्ध, नानक आदि वो बूंदे हैं जो परमसत्ता रूपी समंदर में समाकर खुद भी समंदर ही हो गई। हमने ईश्वर को देखा नहीं इसीलिए उसके गुणों को धारण करने वाले मनुष्यों में ही उसकी छबि बना ली। हर ‘मैं’ का विलय ‘वह’ में हो सकता है लेकिन उसके लिए ‘मैं’ के असत अस्तित्व को खोना होगा। किसी और का लिखा हुआ, सुना हुआ या पढ़ा हुआ ज्ञान इसकी प्राप्ति नहीं करा सकता बल्कि स्वयं का जाना हुआ इसकी प्राप्ति करवा पाएगा। जिन्हें लगता है कि वे ‘मैं’ में ही खुश हैं वे भूलवश सुंदर मानव जीवन को नष्ट कर रहे हैं। वह वेद के आरण्यक, तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में कुछ भी नहीं था। अन्तरिक्ष, पृथ्वी और वायुमण्डल किसी का भी अस्तित्व नहीं था। उस असत् ने एक इच्छा कीः मैं होऊं। सृष्टि भी ‘मैं’ ही है। जिसने सृष्टि कि इस इच्छा को स्वीकार किया वो ‘वह’ है। कोई न कोई इस सृष्टि का जनक है इसे आधार बनाकर ज्ञानियों ने ‘वह’ कौन है की खोज शुरू की। उसे शक्ति माना गया, ऊर्जा माना गया, कुछ ने कहा वो निराकार है तो कई ज्ञानियों ने उसे और सुलभता से समझाने के लिए मानव की तरह ही मूर्त रूप भी दिया। ‘वह’ है का संदेह तो बहुत पहले ही मिट गया और ये इसी से सिद्ध हो जाता है कि कईयों को उसकी प्राप्ति हुई है और कई तो उसी के रूप में लीन भी हो गए। ‘वह’ की खोज करते हुए कई ग्रंथों की रचना कर दी गई। कई ज्ञानियों ने सबको उसकी अनुभूति हो पाए के प्रयास में कुछ प्रक्रियाएं भी अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत कर दी और ‘वह’ की खोज चलती रही। इन ग्रंथों आदि से मदद लेकर अपने ज्ञान को विकसित कर ‘वह’ को पाने के बजाए हमने इन्हें भी ‘मैं’ का अस्तित्व बना दिया। मेरा भगवान, मेरा मंदिर, मेरा ये मेरा वो आदि में हम ज्ञानियों के प्रयासों को भूल ही गए। सत्य एक ही है उसे प्राप्त करने की राह अलग-अलग हो सकती हैं। कई ऐसे उदाहरण हैं जो बताते हैं कि ‘वह’ की प्राप्ति उन्ही को हुई है जिन्होंने ‘मैं’ के असत अस्तित्व का त्याग कर दिया। जिन्हें ‘वह’ कि प्राप्ति नहीं हुई उन्होंने इन लोगों का अनुसरण करना शुरू कर दिया। इसकी वजह साफ है कि अपने सत्य अस्तित्व को समझना हर मानवमात्र की मांग है। अनुसरण करने से कुछ दूरी तक तो राह दिखती है लेकिन जब तक स्वविवेक की जागृति नहीं होती ‘वह’ की प्राप्ति असंभव हो जाती है। ऐसे कई ज्ञानी जिन्होंने ने ‘वह’ के अस्तित्व को समझाने की कोशिश की उनकी बातों को लोगों ने भूलवश अपने ही रंग में रंग दिया। हम शब्दों को पकड़ने में लग जाते हैं और अपने अनुभवों के आधार पर उनकी विवेचना शुरू कर देते हैं। इसी तरह देवस्थानों और पूजास्थलों की स्थापना होती चली गई। हमने असीम ‘वह’ को भी ‘मैं’ की ही तरह सीमाओं में बांधने का प्रयास किया और जितना उसे पकड़ने की कोशिश की उतना ही वो हाथ से फिसलता गया। वो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान है हम उसे अपनी मुठ़्ठी में, अपनी प्रार्थनाओं मे, अपनी किताबों में या अपने देवालयों में जकड़ कर नहीं रख सकते हैं। उसके गुणों को हम धारण कर सकते हैं। वो दयालू है, उदार है, सबका है और समदृष्टि वाला है। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है सृष्टि की उत्पत्ति की इच्छा की तरह वो हमारी इच्छाओं के प्रति भी उदारता दिखाता है। सदइच्छा से सदपरिणाम और मलिन इच्छाओं के दुष्परिणाम तो हम स्वयं ही पैदा करते हैं। ‘वह’ के इन गुणों को हम ‘मैं’ में भी विकसित कर सकते हैं। उदार हो सकते है, दयालू हो सकते हैं, समभाव रख सकते हैं, इच्छाओं से रहित हो सकते हैं। ‘वह’ के गुणों को प्राप्त करने वाले मानवों को हमने योगी का नाम दिया। योग का मतलब ही ही जुड़ना। जब ‘मैं’ का योग ‘वह’ से हो जाता है तो योगी बनता है। सामान्य तौर पर कसरत करने, शरीर को स्वस्थ रखने के तरीकों आदि को योग की संज्ञा देना हास्यास्पद है। क्यूंकि मानव अपनी सीमित दृष्टि से ‘वह’ की खोज करता है इसीलिए वो और दूर प्रतीत होता है। जैसे ही ‘मैं’ के असत अस्तित्व का लोप होते है ‘वह’ की ओर यात्रा शुरू हो जाती है। यात्रा शुरू भर करनी है उसके बाद राह स्वयं प्रशस्त होती चली जाती है।

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