शनिवार, 3 जनवरी 2015
परमहंस योगानंद जी का जीवन और ध्यान विधि
परमहंस योगानंद (जन्म 5 जनवरी 1893 मृत्यू 7 मार्च 1952)
वर्तमान उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में एक बंगाली परिवार में मुकुंद लाल घोष के रूप में योगानंद का जन्म
हुआ था। बहुत छोटी उम्र से परिवार के आध्यात्मिक संस्कारों के प्रति उनमें गहरी रूचि जाग गई थी। वे एक
बार बीमार पड़े तो उनकी माताजी ने अपने गुरू लाहिरी महाशय की तस्वीर उनके पास रख दी। ठीक होने के
बाद उनकी श्रद्धा उनमें काफी बढ़ गई। जितनी छोटी उम्र से आध्यात्मिक चिंतन शुरू हो जाता है उतने ही
सुंदर परिणाम सामने लेकर आता है। योगानंद ने अपने जीवन को आध्यात्म के लिए समर्पित करने का मन
बहुत छोटी उम्र से बना लिया था। अपनी समस्त जीवन ऊर्जा को वे इन्ही विचारों में लगाते रहे। कलकत्ता
युनिवर्सिटी से संबद्ध सीरमपूर कॉलेज से उन्होंने ने कला संकाय में स्नातक की उपाधी ली। पढ़ने से ज्यादा
उनकी रूचि आध्यात्म में थी। महज 17 वर्ष की उम्र में वे स्वामी युक्तेश्वर गिरी के शरणागत हो गए।
युक्तेश्वर गिरी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे और सत्य को प्राप्त कर चुके थे। उनके साथ ध्यान की साधना
करते हुए योगानंद को कई अलौकिक अनुभूतियां भी हुई जिनका जिक्र उन्होंने अपनी मशहूर पुस्तक एक योगी
की आत्मकथा में किया है। योगाभ्यास पर इससे पहले किसी ने अपने जीवन के संस्मरणों को इतने प्रभावी
ढंग से संजोया नहीं था। इस पुस्तक में उन्होंने अपने जीवन की घटना के साथ साथ सत्य के अनुभवों को
भी साझा किया। 1920 में ही एक आध्यात्मिक सभा का हिस्सा बनने के लिए उन्हें अमेरिका जाने का अवसर
मिला। वे पाश्चात्य देशों की आध्यात्म के लिए भारत पर निर्भरता को उस वक्त ही समझ गए थे। उन्होंने
‘सेल्फ रिअलाइजेशन फैलोशिप’ की स्थापना की। 1930 में वे भारत वापस आए और युक्तेश्वर गिरी जी के
साथ योगदा सत्संग के कार्य में जुट गए। आज भी उनके द्वारा स्थापित योगदा संस्थान देश विदेश में है और
क्रिया योग की शिक्षा दे रहा है।
अपनी पुस्तक डिवाइन रोमांस में योगानंद लिखते हैं कि, आप स्वपनावस्थआ में ही इस धरती पर विचरण
कर रहे हैं। हमें जो संसार दिख रहा है वो एक सपने में सपने के चलने जैसा है, इसमें सत्य कुछ भी नहीं।
हर मानव मात्र को सत्य की और ईश्वर की आवश्यक्ता अनुभव होनी चाहिए क्यूंकि वहीं इस जीवन का
अंतिम लक्ष्य है। उसके लिए इस संसार में सिर्फ आप है और आप को उसे ढूंढना ही होगा। योगानंद सत्य की
आवश्यक्ता को अपने कई आख्यानों और पुस्तकों में जताते रहे हैं। सत्य के बहुत नामकरण हुए हैं। शरणानंद
इसे ईश्वर कहते थे, जे. कृष्णमूर्ती इसे प्रेम कहते थे तो योगानंद इसे योग की प्राप्ति कहते थे। योग का
चिंतन वही है जो पतंजलि ने कहा है। योगानंद परमहंस ने अपने समय और आवश्यक्ता का आकलन करते
हुए योग की शिक्षा दी। इन सभी की शिक्षाओं या सत्य के स्वरूप में कोई भेद नहीं है, बस प्रक्रियाओं का
अंतर दिखाई पड़ता है। योगानंद परमहंस ने ध्यान की जिस प्रक्रिया को अपने अनुयायिओं के सामने रखा उसे
नाम दिया गया क्रिया योग। हांलाकि ये क्रिया योग उनके गुरू युक्तेश्वर गुरू, उनसे पहले लाहिड़ी महाशय और
उनसे पहले योगगुरू बाबाजी के काल से प्रचलित रहा था। इसे पाश्चात्य देशों के साथ भारत में भी लोकप्रिय
बनाने का कार्य योगानंद जी ने किया।
ध्यान की किसी भी प्रक्रिया में हम जाएं, निर्विचारता को प्राप्त करना ही उसके मूल में होगा। योगानंद
परमहंस योगनिद्रा को भी अपने अनुयायियों के सामने रखते थे। आप जब सोने के लिए जाते हैं तो विचारों
की कौंध आपको सोने नहीं देती है। कई बार तो बहुत थकान होने के बावजूद आप विचारों की उथल पुथल से
सो नहीं पाते हैं। विचारों को शिथिल करने के लिए लोग नशीली दवाओँ तक का सेवन करते हैं और फिर
इसके इतने आदि हो जाते हैं कि कभी अपनी प्राकृतिक क्षमताओं को समझ ही नहीं पाते। योगानंद परमहंस
निर्विचारता को किस हद तक साध चुके थे इस बात का अंदाज आप उनके के वीडियो से लगा सकते हैं
जिसमें वे एक सैकेंड में ही सुष्पुतता में चले जाते हैं। ये विधा मैंने कई और योगियों में भी देखी है वे
निर्विचारता के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें स्वप्न भी नहीं आते।
अनुशासन को योगानंद ने योग की प्राप्ति के लिए प्राथमिक आवश्यक्त माना। वे खुद गुरू शिष्य परंपरा से
योग को प्राप्त हुए थे इसीलिए उन्होंने योग की प्राप्ति के लिए विशेषज्ञों के मार्गदर्शन को जरूरी बताया। जब
आप सत्य की ओर अग्रसर नहीं हुए हैं तो असत संसार से बाहर निकलना बहुत कष्टकारी होता है। बार-बार
दुनिया का लालच आपको आकर्षित करता है। योगानंद कहते थे कि वर्तमान की शांति और सुंदरता में जीने
वालों का भविष्य अपना ध्यान खुद रखता है। आप वर्तमान में आनंद और शांति में है और अपने वर्तमान की
सुंदरता का आनंद ले रहे हैं तो भविष्य का आनंददायी होना आवश्यक है। हम वर्तमान में भविष्य के व्यर्थ
चिंतन में लगे हैं तो निश्चित ही वर्तमान की अनदेखी होगी और जिसका वर्तमान नहीं होता उसका कोई
भविष्य भी नहीं होता। वे इसके लिए ध्यान और ईश्वर स्मरण को ही उत्तम कर्म बताते हुए कहते हैं कि आप
हाथी को काबू कर सकते हैं, शेर का मुंह बंद कर सकते हैं, आग-पानी पर चल सकते हैं, लेकिन सबसे उत्तम
और मुश्किल काम है अपने मन पर काबू करना।
मन पर काबू ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है और जितने भी ज्ञानी आज तक हुए हैं उन्होंने भिन्न-
भिन्न विधियों से निर्विचार होने पर ही जोर दिया है। आप जितना ज्यादा निर्विचार रहने का अभ्यास करेंगे
आत्मबल उतना ही ज्यादा बढ़ेगा और जितना आत्मबल बढ़ने से सदैव निर्विचारता और वर्तमान में बने रहने
की सिद्धि मिल जाती है। जो वर्तमान को सिद्ध कर लेता है उसे ही सत्य की प्राप्ति होती है। ईश्वर की
रचनात्मक शक्ति आपके भीतर भी मौजूद है। योगानंद कहते हैं कि इस शक्ति को पहचान कर जीवन में कुछ
ऐसा काम कीजिए जिससे दुनिया चमत्कृत हो जाए। आप अलौकिक है और आपमें कृष्ण, बुद्ध और ईसा की
सारी शक्तियां मौजूद है। वर्तमान की सुंदरता का आनंद लेते हुए अपनी शक्ति को पहचानिए और वो जीवन
पाइये जिसके लिए आपका जन्म हुआ है।
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