
स्वामी गंगाराम का जन्म 1949 में महू के नजदीक एक गांव में हुआ था। पारिवारिक माहौल अध्यात्मिक था और
स्वयं उनकी भी आध्यात्म में सामान्य बच्चों जितनी ही रूचि थी। हम सब के जीवन में आध्यात्मिक जागृति के
पहले भी इसके जागरण की एक सतत प्रक्रिया चलती रहती है और हम सवालों के जरिए अपने जीवन का ही
अनुसंधान करते रहते हैं। स्वामी गंगाराम भी जीवन की घटनाओं और संबंधों का अध्ययन करते रहे। कबीर, रहीम,
दादू के दोहों और गीतों की मालवा में एक पुरानी परंपरा रही है। इन संतों की रचनाओं से स्वामी गंगाराम का
संबंध तो रहा पर उन्होंने इनके अर्थों को ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही समझा। वे अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं
कि वे बचपन से ही इंद्रयातीत ध्वनि को सुनते थे लेकिन उसका अर्थ नहीं समझते थे। सतत ब्रह्मांड में चलती
रहने वाली इस ध्वनि को ही हम नाद ब्रह्म कहते हैं। गंगाराम जी ने एलएलबी की पढ़ाई करने के बाद वकालत को
अपना पेशा बना लिया। इस पेशे के दौरान उन्होंने घोर असंयमित जीवन जिया। वे आगे चलकर न्यायाधीश के
प्रतिष्ठित पद पर भी विराजमान हुए। इस पूरे सफर के दौरान उनके मन में एक प्रश्न बना रहा कि आखिर सत्य
क्या है और सतत परिवर्तनशील जीवन में ऐसी कौनसी अवस्था है जो हमें ठहराव दे और अपने अस्तित्व को
जानने का अवसर भी। दुर्व्यसनों और असंयमित जीवनचर्या ने उन्हें बुरी तरह कमजोर किया और वे सत्य के लिए
विचलित हो उठे। साल 1997 में उन्हें जानलेवा लकवे का दौरा पड़ा। इस दौरे के साथ ही वे ईश्वर से मृत्यू की
मांग करने लगे। 2 महीने तक बिस्तर पर पड़े पड़े उनमें आध्यात्मिक चेतना जागृत हुई। उनके अनुयायी इसे उनके
आध्यात्मिक रूपांतरण के रूप में भी देखते हैं। उन्हें सत्य का अनुभव होने लगा और जिस आवाज को वे महज
कौतुहल वश सुना करते थे उसे उन्होंने और गंभीरता और रस के साथ सुनना शुरू कर दिया। विचारों का पूर्णतः
निरोध होने के बाद उन्हें सत्य के दर्शन हुए और वे ज्ञान को प्राप्त हुए। वर्तमान समय के क्रांतिकारी और सच्चे
संतों में उनका नाम शुमार है। वे ढोंग ढकोसलों के खिलाफ जागरूकता फैला रहे हैं। उन्होंने नाद ब्रह्म योग धाम
संस्थान की स्थापना की, जिसके जरिए अब वे जन जन को उस ब्रह्मनाद से परिचित करवा रहे हैं जिसे कबीर,
नानक, दादू आदि ने शब्द और नाम के रूप में संबोधित किया है।
दो चीजों के टकराने से पैदा होने वाली आवाजों से तो हम वाकिफ होते हैं। स्वामी गंगाराम समझाते हैं कि ताली
बजाना, बर्तनों का गिरना या हमारे कानों से सुनाई देने वाली सारी आवाजें दो चीजों के घर्षण या टकराने से पैदा
होती हैं। इसे हम आहत नाद कहते हैं, क्यूंकि ये आहत होने से उत्पन्न हुई हैं। इसे स्थूल नाद कहा जाता हैं क्यूंकि
इसे हम अपने कानों से सुन सकते है। स्वामी गंगाराम अपनी दीक्षा में उस नाद को अनुयायियों को सुनवाते हैं जो
अतीन्द्रिय है और इसे सुनने के लिए कानों की आवश्यक्ता नहीं है। सबसे चौंकाने वाली बात आपको ये लग सकती
है कि आप इसे 24 घंटे सतत सुनते रहते हैं लेकिन आप दुनिया के आहत नादों और अपने विचारों में इतने खोए
रहते हैं कि आपका ध्यान कभी अनहद नाद पर जाता ही नहीं है। ये नाद अखंड ब्रह्मांड में घूम रहा है। हमेशा ये
ध्वनी गूंजती रहती है। ध्यान कि किसी भी विधी में जब साधक पूरी तरह से निर्विचार होता है तब भी यही नाद
शेष रह जाता है। स्वामी गंगाराम कहते हैं जिस अवस्था में ध्यान की तमाम विधियां पहुंचा रही हैं वहीं से शुरूआत
करने से सत्य की प्राप्ति सहज हो जाती है।
इस ब्रह्मनाद का अनुभव करने के लिए कई प्रयोग किए गए हैं। ज्यादातर एकांत जगहों पर इसको सुनना सहज
होता है। ध्यान की किसी भी विधि में शांति पर विशेष जोर दिया जाता है। अनहद नाद के लिए शांति को और
आवश्यक इसीलिए बताया गया हैं क्यूंकि शुरूआती चरण में साधक आहत नादों की वजह से एकाग्रचित्त नहीं हो
पाता है और उसे अनहद नाद को सतत सुनते रहने में परेशानी का अनुभव होता है। अनहद नाद को प्रसन्नचित्तता
के साथ सुनना आवश्यक है। वेदों की उत्पत्ति प्रणव से यानि ओंकार से बताई जाती है। ओंकार के प्रादुर्भाव के मूल
में भी ब्रह्मनाद ही है। स्वामी गंगाराम बताते हैं कि इससे नाद की आवाज कुछ-कुछ अ ऊ और म अक्षरों से
मिलकर बनी है इसीलिए ज्ञानियों ने ऊँ के रूप में इसे शब्दों ढाला है। ये भी पाया गया है कि शुरूआती अभ्यास में
जब सतत ऊँ का उच्चारण किया जाता है तो साधक धीरे धीरे अपने भीतर स्वतः ही ब्रह्मांड में घूम रहे नाद से
जुड़ जाता है। कुछ समय के अभ्यास के बाद शब्दों का लोप हो जाता है और अनहद नाद ही शेष रह जाता है।
इसका अनुभव बहुत कठिन नहीं है लेकिन स्वामी गंगाराम इसे विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में ही अपनाने की सलाह देते
हैं। वे मानते हैं कि हम विचारों के कोलाहल में दिन रात दौड़ रहे हैं। हमारी कई मान्यताएं हैं और कई चाहतें हैं।
पहले ध्यान और सत्य की प्राप्ति के अर्थ को समझना आवश्यक है। चित्त की शुद्धि के लिए आप ध्यान करते हैं,
इस विधि से ध्यान की प्राप्ति अवश्य होगी लेकिन साधक को पहले चित्त की शुद्धि की इच्छाशक्ति और
आवश्यक्ता अपने भीतर अनुभव करनी होगी।
जब तक आहत नाद, यानि संसार की आवाजों का जोर चलता रहता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह हमें घेरे रहते हैं।
जिस तरह हम पूजा के पहले पूजास्थान को स्वच्छ करते हैं अपने बाह्य शरीर का भी शुद्धिकरण करते हैं ठीक
वैसे ही अंतर्मन की यात्रा में भीतर भी सफाई की आवश्यक्ता होती है। नाद ब्रह्म के कुछ आवश्यक ज्ञानवर्धन के
बाद ही स्वामी गंगाराम दीक्षा देना उचित मानते हैं। एक बार इस नाद को सुनना प्रारंभ हो जाता है तो सतत
अभ्यास से माया के सारे जाल टूटते चले जाते हैं। जब अनहद नाद को सुनना प्रयासहीन हो जाता है तब वर्तमान
की स्वतः सिद्धि हो जाती है। वर्तमान की सिद्धि ही सत्य है, सुंदर है और जीवन है। अभ्यास से धीरे धीरे ये नाद
मधुर धुन की तरह लगने लगता है, जैसे कोई वाद्य यंत्र, शंख ध्वनि या कृष्ण की मुरली। विभिन्न ज्ञानियों ने
इसका अनुभव किया और इसे अपने-अपने तरीके से समझाया। नानक, कबीर, दादू, ओशो आदि ज्ञानियों ने इस पर
खूब लिखा है और इसे सबद, शब्द, नाम, नाद आदि नामों से अपने लेखन में उल्लेखित किया है। इनके साहित्य में
आप इससे जुड़ी और चर्चाओं को देख सकते हैं।
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