रविवार, 11 जनवरी 2015

स्वामी विवेकानंद और युवाशक्ति

स्वामी विवेकानन्द (जन्म- 12 जनवरी, 1863, कलकत्ता (वतर्मान कोलकाता), भारत; मृत्यु- 4 जुलाई, 1902, रामकृष्ण मठ, बेलूर) एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन व क्रम, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। स्वामी विवेकानंद के जन्म के 150 साल हो गए हैं। आज भी वो युवाओं के लिए वो एक आदर्श हैं। आज की भाषा में उनकी जबरदस्त ह्यफैन फॉलोईंगह्ण है। उनकी कई किताबें हैं जो आज भी बेस्ट सेलर की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। पूरे देश में उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ही नहीं बल्कि ढेर सारे संस्थान उनके विचारों और सपने को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस सबके बावजूद ये सवाल भी बहस में उठाया जा रहा है कि स्वामी विवेकानंद के विचारों का क्या आज का युवा सचमुच सम्मान कर रहा है? इसमें कोई संदेह नहीं की चाहे आध्यात्म हो, विज्ञान हो, वैश्विक शांति हो या युवाओं को उत्साहित करने का जादू हो हर मोर्चे पर स्वामी विवेकानंद के आसपास भी कोई दिखाई नहीं पड़ता लेकिन क्या उन्हें पढ़ लेने मात्र से, उनकी तस्वीरों को दीवारों पर टांग देने मात्र से या फिर उनके नाम पर नित नए संस्थानों का निर्माण कर देने मात्र से ही हम उनके सपने को पूरा कर पाएंगे? वसुधैव कुटुंबकम का संदेश पूरी दुनिया को देने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति और संस्कार पर जिस गर्व के साथ पूरी दुनिया में खुद को खड़ा किया क्या आज हम उसी गर्व के साथ खुद को दुनिया के सामने खड़ा करने के काबिल हैं? दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल ने इस वर्ष स्वामी विवेकानंद पर एक विशेष कार्यक्रम अवेकनिंग इंडिया का प्रसारण किया और सौभाग्य से इस कार्यक्रम में अपने विचार रखने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया। स्वामी विवेकानंद को पढ़ना और उनके विचारों से प्रभावित होना किसी भी भारतीय के लिए शायद कोई बड़ी बात न हो और कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी है। मैंने फौरन इस प्रस्ताव पर हामी भर दी। साल भर चले इस कार्यक्रम में देश की कई जानी हस्तियों के साथ स्वामी जी के जीवन, विचारों और आज के दौर में उनकी उपयोगिता पर काफी बातचीत हुई। स्वामी जी के प्रति सम्मान और बढ़ गया और एक इच्छा जागृत हुई कि काश हम उनके समझ लें, उनकी सुल लें तो वाकई विश्व गुरू बन सकते हैं क्योंकि जिस युवाशक्ति पर वो पूरी जिंदगी जोर देते रहे उसकी सबसे बड़ी तादाद आज हमारे ही पास है। (फोटो के साथ कैप्शन) ह्यह्यभारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारित्र्य है। चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें। सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।ह्णह्ण यूं तो हिंदुस्तान की बढ़ती हुई आबादी हमारे लिए चिंता का सबब है लेकिन इस चिंता मे भी सुकून देने वाली बात ये है कि इस आबादी का ज्यादातर हिस्सा युवा है, यानि हमारे देश दुनिया के सबसे ज्यादा युवा हैं। युवाओं में असीम ऊर्जा और शक्ति होती है और यही युवा भविष्य के निर्माता भी हैं। युवा शक्ति की दिशा ही किसी राष्ट्र की दशा को तय करती है। देश का युवा भटक गया तो राष्ट्र भटक सकता है और राष्ट्र का युवा सही रास्ते पर चल दे तो राष्ट्र की प्रगति निश्चित है। स्वामी जी ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि धर्म और संस्कृति किसी भी राष्ट्र की जड़ होती है और जब तक जड़ पर प्रहार नहीं होता राष्ट्र अखंड बना रहता है। आज स्वामी जी के विचारों के क्रियान्वयन की जितनी जरूरत महसूस होती है उतनी तो शायद इनके उद्गार के वक्त भी नहीं थी। जिस समय स्वामी विवेकानंद ने भारत भ्रमण शुरू किया तब उनके सामने अशिक्षा और रूढियों से जूझता भारत था लेकिन आज इन चुनौतियों के अलावा संस्कृति के लगातार हो रहे ह्रास को बड़ी चिंता माना जा सकता है। भारत की तरफ पूरी दुनिया की नजर सिर्फ इसीलिए नहीं है कि यहां के बाजार पर पकड़ बनाने का मोह उन्हें है बल्कि भारत को संस्कारों के उत्थान के लिहाज से भी उम्मीद की नजर से देखा जाता है। ये कोई नई बात नहीं है कि दुनिया के कई दिग्गज भारत में शांति और आध्यात्मिकता की तलाश में भारत आते रहे हैं और अब भी आते हैं। भारत की गरीबी और अशिक्षा को हमेशा ही पाश्चात्य देशों ने बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है लेकिन ये भी सच है कि दुनिया के कई दूसरे देशों के मुकाबले हमारी स्थिति बहुत दयनीय है भी। क्या सिर्फ ढोंग और पाखंड को आगे बढ़ाते हुए हम विश्व गुरू बन सकते हैं और दुनिया भर की उम्मीदों को पूरा कर सकते हैं? जाहिर है जवाब ना में ही होगा और जब विवेकानंद ने इस सवाल को भारत के सामने रखा तब भी जवाब यही मिला। ये बात और है कि उनके रहते उनका जो जादू और उनमें जो विश्वास तमाम भारतवासियों में दिखाई पड़ता था वो अब नहीं दिखाई पड़ता। आज भी एक तरफ स्वामी जी के विचार और उनकी बातों को सामने रखने वाले कई विद्वान मिल जाएंगे लेकिन पाखंडी बाबाओं की तादाद और उनके मानने वाले ऐसा लगता है ज्यादा तादाद में हैं। जिस वक्त स्वामी विवेकानंद पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे उस समय भी देश पाखंडियों की जकड़ में था। अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने हमेशा ध्यान में डूबे रहने से ज्यादा तवज्जो देशवासियों के उत्थान में दी। ये उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय विचारों में से एक है कि बजाय गीतापाठ के अगर युवा फुटबॉल खेले तो अपने स्नायू मजबूत करके समाज और देश के ज्यादा काम आ सकता है। ये भी सत्य है कि गीता की मीमांसा करते हुए और श्रीकृष्ण के बारे में अपने विचार रखते हुए उन्होंने इस प्रचंड युवा शक्ति को सकारात्मक दिशा में मोड़ने का ज्ञान गीता में ही होने की बाद को भी पुरजोर तरीके से रखा। यहां वो ये समझाने चाहते थे कि गीता ज्ञान से पहले खुद को स्वस्थ्य,पुरजोर तरीके से दुनिया के सामने रखा। ये जरूर है कि वो गीता ज्ञान से पहले स्वस्थ्य शरीर और ऊर्जावान बनने पर ज्यादा जोर देते थे। ये हम सब जानते है कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मन निवास करता है और इसी से असीम युवा ऊर्जा का इस्तेमाल सकारात्मक रूप से हो सकता है। आज का युवा भटका हुआ दिखता है, हांलाकि इसे पूरे देश के युवाओं की स्थिति कहना गलत होगा। लेकिन जिस तेजी से बाजारवाद ने युवाओं को बड़े शहरों में आकर्षित किया है वो चिंता का विषय है। ऐसा नहीं है कि युवाओं ने हमें शमर्सार ही किया हो बल्कि इन्ही युवाओं में वो भी शामिल है जो देश को गौरवान्वित भी करते हैं। खेल हो, राजनीति हो, साहित्य और कला जगत हो हर मोर्चे पर युवा अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। बदले माहौल में सामाजिक मुद्दों को सड़कों पर लाने का काम भी देश का यही युवा कर रहा है। प्रश्न ये है कि क्या उसकी ऊर्जा का सही इस्तेमाल किया जा रहा है? जिस तरह से वो अपनी जड़ों से कटता जा रहा है और शराब और दूसरे नशों की जद में आता जा रहा है उससे चिंता बढ़नी लाजिमी है। स्वामी विवेकानंद भी चाहते तो पूरे देश के युवाओं का बीड़ा उठाने के बजाय खुद के ध्यान में मस्त रह सकते थे लेकिन उन्हे पता था कि उनके जीवन का मकसद खुद का सुखभोग नहीं बल्कि भारत के विश्वपटल पर गुरू के रूप में स्थापित करने का प्रयास करना है। वो ये भी कह चुके हैं कि उनका काम ऐसा नहीं जो एक जीवन काल में पूरा हो जाए पर उन्हे पूरा विश्वास था कि उनकी तरह देश में 50-60 युवा भी उभरकर सामने आ गए तो इस सपने को पूरा होने से कोई नहीं रोक पाएगा। आज हमारे देश का युवा पूरी दुनिया में छाया हुआ है दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं जहा भारतीय युवकों ने अपनी जगह न बनाई हो। इसे भारत के लिहाज से कई बार नुकसान दायक भी कहा जाता है और ब्रेन ड्रैन की संज्ञा दी जाती है, लेकिन स्वामी जी इस बात से आज बहुत खुश होते कि वसुधैव कुंटुंबकम आज जितना साकार दिखता शायद उतना कभी नहीं था। ये बात सच है कि हमारे युवाओं का सम्मान घर में रहते हुए होने के बजाय बाहर जाकर ज्यादा होता है। यहां तक की खुद स्वामी विवेकानंद जब शिकागो में भाषण देने के बाद भारत वापस आए तो उनका स्वागत एक विजेता कि तरह हुआ। हांलाकि वो विदेश जाने से पहले भी अपनी इन्हीं बातों को रखते रहे थे। उन्होंने विदेश यात्रा के दौरान दूसरी संस्कृतियों को जाना समझा और उनका सम्मान भी किया। इन देशों को लेकर बहुत सी नकारात्मक बातें उन्होंने भी सुन रखी थी लेकिन बचपन कि बिना आजमाए किसी बात को न मानने वाली आदत कि वजह से वो कभी किसी सुने सुनाय पूर्वाग्रह से पीडि़त नहीं रहे। आज के युवा के साथ बड़ी समस्या अंधानुकरण और बिना जांचे परखे बातों को मान लेना ही दिखाई पड़ती है। हम सड़कों पर भीड़ तो देखते हैं लेकिन क्या देश का ये भविष्य वाकई जानता है कि वो क्या कर रहा है? राजनीति में युवा चेहरों को लाने कि युवा शक्ति को तवज्जो देने की बात तो कही जाती है लेकिन क्या वाकई में सही मायनों में वो स्वामी जी के भारत जागरण के सपने को समझने की कोशिश कर रहे हैं और क्या बहस से इतर उन्हें हकीकत में वो तवज्जो दी जा रही है जिसके वो हकदार हैं? अंधी प्रतियोगिता के युग में सबको साथ लेकर चलने से ज्यादा जोर सबसे आगे निकलने पर है। बिना जांचे परखे हमारा युवा इस दौड़ में शामिल होता जा रहा है। अच्छी बात ये है कि हालात अभी बहुत नहीं बिगड़े हैं या ये कह सकते हैं कि ये हमारी संस्कृति की मजबूती है कि हम आज भी अपने नाम को बचाए रखने में कुछ हद तक कामयाब दिखाई पड़ते हैं लेकिन कब तक ? ये अहम सवाल है। स्वामी विवेकानंद का हमेशा मानना रहा कि हमारी परंपरा और संस्कृति का सम्मान सिर्फ हमारे लिए ही नहीं अपितु पूरे विश्व के कल्याण के लिए आवश्यक है। ये बात और है कि अब हम खुद इस चिंता में कि क्या हमारी ये धरोहर और स्वामी जी के ये विचार हमारे ही काम आ पा रहे हैं या नहीं? देश के गरीबों और जरूरतमंदों में ही शिव का निवास है। इनकी सेवा करने का मतलब ही भगवान की सेवा करना है। महामारी से जूझ रहे लोगों की सेवा के लिए अपने आश्रम तक को बेच देने की बात कहने वाली स्वामीजी का ये मानना था कि इस देश के जरूरतमंदों की मदद को जब तक अपने जीवन का लक्ष्य नहीं माना जाएगा देश का कल्याण नहीं होगा। यही वजह थी कि युवाओं को वो हमेशा ऊर्जावान बने रहने और तमाम परेशानियों और कष्टों के बावजूद आगे बढ़ते रहने की सलाह देते थे। आज का युवा दूसरों में बुराइयां देखने, सिस्टम को गरियाते रहने के बजाय खुद को स्वामी जी के सपने को पूरा करने के लिए जिम्मेदार माने तो ही बात बन सकती है। उनका कहा और लिखा बहुत कुछ हमारे बीच है लेकिन कितने युवा इस सपने को आगे बढ़ाना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं? आज का युवा एक दूसरे से होड़ में लगा है। उसका मकसद अपनी तरक्की और बेशुमार दौलत और शोहरत ही दिखाई पड़ता है। वैसे पूरी दुनिया की यही हालत है तो भारत इससे अछूता कैसे रह सकता है लेकिन हमारी संस्कृति में आज भी युवा विवेकानंद को पढ़ता है और उनमें से कुछ उनको समझते भी हैं। आज के दौर में युवा शक्ति के क्षरण की वजह नशाखोरी बनती जा रही है। इस पर लगाम लगाने के लिए कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है। हाल के दिनों में जो घिनौनी घटनाएं सामने आई हैं वो भी बताती है की नशा कैसे इंसान को जानवर बना देता है। साथ ही घरों में शुरूआत से बच्चों को किस किस्म की शिक्षा दी जा रही है ये भी बहुत अहम है। आज डॉक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी, गायक, पत्रकार और जाने क्या क्या बनाने का प्रयास तो किया जा रहा है लेकिन सभ्य नागरिक और समाज के लिए उपयोगी मनुष्य बनाने पर किसी का विचार नहीं। आज ये विचार 'आउटेडेट' कहे जाने लगे है। लेकिन जरा गौर से सोचें तो क्या अब जीवन सहज होने के बजाय ज्यादा दूभर और परेशानियों से भरा दिखाई नहीं देता? क्या आज का युवा जल्दी हताश नहीं हो जा रहा है? क्या इनमें छोटी-छोटी बात पर थोड़ी-थोड़ी देर में खतरनाक गुस्सा नहीं देखने को मिल रहा है? आज विवेकानंद की जरूरत पहले से ज्यादा है सच तो ये है कि वो होते तो युवाओं की देश में बढ़ती तादाद पर खुश होते लेकिन उनकी ऊर्जा के सकारात्मक इस्तेमाल को नहीं देखकर व्यथित भी होते।

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