रविवार, 28 फ़रवरी 2016

हरियाणा पुलिस को क्यूं नहीं मिल रहे मुरथल के मुजरिम?


मुरथल में महिलाओं के कपड़ों की तस्वीरों और चश्मदीदों के मुंह से सुनी कहानी हर किसी के रौंगटे खड़े कर दे रही है। सड़कों पर गाड़ियों को रोक कर वहशियों ने महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया। गाड़ियों से बच्चों को निकाल निकाल कर फेंका गया। इस तस्वीर के दो पहलु हैं। एक मौका ए वारदात से मिली तस्वीरें और चीजों के साथ ही वहां मौजूद बहुत से लोगों द्वारा बयां की गई उस खतरनाक मंजर की कहानी। तो दूसरी तस्वीर वो है जो पहले दिन से हरियाणा पुलिस दिखा रही है। यहां किसी ने शिकायत नहीं की? हमें कोई भी चश्मदीद ऐसा नहीं मिला। अभी कुछ देर पहले हरियाणा पुलिस की क्राइम ब्रांच की डीआईजी डॉ. रश्मि सिंह लाइव थीं। उनसे जब ये सवाल किया कि जिन चश्मदीदों तक मीडिया पहुंच रहा है आप क्यूं नहीं पहुंच पा रहीं तो उनका जवाब था ये लोग पुलिस के सामने नहीं आ रहे। उन्होंने आगे कहा कि ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट उत्सव बैंस ने हमें चंडीगढ़ बुलवाया और इंतजार करवाया लेकिन किसी भी चश्मदीद से नहीं मिलवाया। डीआईजी साहिबा को तब तक जानकारी नहीं थी कि उत्सव भी मेरे साथ लाइव मौजूद थे। उत्सव ने उन्हें काटते हुए कहा कि ये सरासर झूठ बोल रहीं हैं और इनकी बात सुनकर तो मेरा हरियाणा पुलिस की कार्रवाई से विश्वास ही उठ गया। डीआईजी डॉ. रश्मि सिंह को भी जब एहसास हुआ कि उन्होंने उत्सव के बारे में बातें उन्हीं के सामने कह दीं तो उन्हें अपना स्टैंड बनान पड़ा और वो अपनी बात पर अड़ी रहीं जबकि उत्सव का कहना था कि हम मैडम का इंतजार चंडीगढ़ में कर रहे थे और चश्मदीद दिल्ली पहुंच चुके हैं जहां मैं उनकी मिलवाना चाह रहा हूं लेकिन ऐसा लग रहा कि हरियाणा पुलिस चश्मदीदों से मिलना ही नहीं चाह रही और ऐसे में इस मामले को सीबीआई के हवाले कर देना चाहिए।

पहला बड़ा सवाल तो ये उठता है कि पुलिस को कबसे अपनी तफ्तीश के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मोहताज होना पड़ गया है। जिन चश्मदीदों तक मीडिया बड़ी आसानी से पहुंच पा रहा है वहां तक हरियाणा पुलिस क्यूं नहीं पहुंच पा रही है? ट्रिब्यून अखबार की खबर के मुताबिक तो पहले दिन ही पुलिस ने वहां कई लोगों को मामला रफा दफा करने की सलाह देकर वापस भेज दिया था। स्थानीय लोगों ने महिलाओं को बचाया था। खेतों में महिलाओं को खींच कर ले जाते की लोगों ने देखा है। इस सबके बावजूद मेरे साथ मौजूद हरियाणा बीजेपी के उपाध्यक्ष राजीव जैन और क्राइम ब्रांच डीआईजी ने इस बात तक को स्वीकार नहीं किया कि वहां कुछ होने की कम से कम आशंका हो सकती है। उन्हें सबकुछ नॉर्मल दिखाई पड़ रहा है। क्या ये पुलिस की नाकामी को छिपाने की कोशिश है? क्या ये हरियाणा सरकार की किरकिरी होने के डर से उठाया गया कदम है? और सबसे बड़ी वजह कि एक बार शुरूआत में जो बयान हरियाणा पुलिस की तरफ से आया उसे ही बचाने के चक्कर में उस घटना को सामने लाने वाली संभावनाओं से बच रही है वही पुलिस?

हरियाणा पुलिस का ये बयान कि उनके पास कोई चश्मदीद नहीं आ रहा दो तरफ इशारा करते हैं या तो सचमुच यहां कुछ नहीं हुआ या फिर हरियाणा पुलिस इस मामले को दबाने में लगी हुई है। ऐसा कुछ हुआ है के कई प्रमाण मिलते हैं, जैसे वहां मौजूद चश्मदीद और कपड़े, लेकिन वहां ऐसा कुछ नहीं हुआ पर पुलिस का एक भी तर्क जंचने वाला नहीं है। इस पूरे मामले में हरियाणा पुलिस की भूमिका पर पहले ही दिन से सवाल उठ रहे हैं। अब हरियाणा सरकार भी सवालों के घेरे में है। जाट आंदोलन को हवा देने की कोशिश पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा के नजदीकियों की तरफ से हुई थी इस तरह के सबूत भी सरकार की तरफ से रखे गए लेकिन अब मुरथल की सनसनीखेज कहानी ने हरियाणा सरकार और पुलिस को पूरी तरह से कटघरे में खड़ा कर दिया है।



गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

माफ करना मैं नहीं हूं बुद्धिजीवी और सहिष्णु।


कुछ लोग टाइटल पढ़कर सोच सकते हैं ये तो हम जानते ही हैं.. खैर यहां इस बात को प्रमुखता से उठाने की वजह है.. मां दुर्गा पर लिखे गए मेरे लेख पर लगातार फोन, व्हाट्सएप और फेसबुक पर आ रही टिप्पणियां। कई लोग बहस तक करने को तैयार हैं। बताईए इस देश में मां दुर्गा के अपमान पर बहस की जाएगी अब। नाम नहीं लिखूंगा क्यूंकि ये ऐसे लोगों को तवज्जो देना होगा.. लेकिन कुछ तो ऐसे भी रहे जिन्होंने महिषासुर पर रिसर्च करके मेरे फोन में कचरा भेज दिया.. मेरा एक ही जवाब था.. मां की गाली सुनकर सहिष्णुता का पाठ नहीं पढ़ सकता.. दूसरा मुझे शर्म इस बात पर आ रही है कि मेरे इर्द गिर्द ऐसी गंदी मानसिकता के लोग भी पल रहे हैं।
एक और वरिष्ठ पत्रकार हैं जो जेएनयू के ही हैं.. बहुत लोग मेरे सरनेम को मेरी हालिया पोस्ट से जोड़ रहे हैं.. तो बता दूं जिनके बारे में बता रहा हूं वो भी यही सरनेम धारण करते हैं.. उन्होंने फोन कर कहा.. आप तो पढ़े लिखे पत्रकार हैं कहां नेताओं की चालबाजियों में आ गए। मैं जानता हूं कि बहुत से लोगों के दिमाग में इस तरह की बातें आ रही हैं.. कि स्मृति ईरानी यही चाहती थीं कि मां का अपमान बहस का मुद्दा बने। वो क्या चाहती हैं इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी इस बात को राजनैतिक रंग देने वाले क्या चाहते हैं.. जो बुद्धिजीवी फोन कर रहे हैं उनका कहना है छात्रों के बीच इस तरह की बातें चलती रहती हैं.. जेएनयू कैंपस में तो ये सब होता रहा है... इस कथित बुद्धिजीवी उत्पादक कैंपस में यदि इन मुद्दों पर चर्चा चल रही है और महिषासुर के फैन्स या खुद को उसका वंशज कहने वाले मुंह उठा रहे हैं तो क्या उस पर बात नहीं करने से उनकी ये बीमारी रुक जाएगी?
जी हां.. विचारधारा के ढोंग में ये मनोरोग से ग्रसित भटके युवा हैं.. जिन्हें हवा देते हैं इनकी ही तरह भटके हुए सीनियर... ये लोग कहते हैं कि हमारे देश में मुद्दों पर विचार किया जाता है... हमारी संस्कृति इतनी कमजोर नहीं जो दो चार नारों या इस तरह की बातों से कमजोर हो जाएगी। मुझसे कहा आप पढ़े लिखे पत्रकार हैं कहां इन बातों में उलझ गए... वाह जनाब.. बुद्धिजीवियों के कैंपस के कचरे पर कुछ लिखने वाला आपको पढ़े लिखों का काम नहीं लगता... और जो यहां इस तरह के मुद्दों को हवा देते हैं वो क्या हैं? ईश्वर में विश्वास रखने वाला पढ़ा लिखा नहीं होता? वाह मेरे देश के बुद्धिजीवियों यही है तुम्हारी समस्या.. तुम विदेशी किताबों, फलसफों और चेहरों के चक्कर में अपनी जमीन, अपनी संस्कृति और अपनी समृद्ध परंपरा को भूल चुके हो... तुम से अब हो भी नहीं पाएगा.. क्यूंकि इतना कचरा तुम साफ नहीं कर पाओगे दूसरा उसकी जरूरत या इच्छाशक्ति ही तुममें जाग नहीं पाएगी।

हां जहां संभावना है वहां कुछ हो सकता है.. और यही वजह है कि देश के युवा और छात्र ज्यादा जरूरी हैं.. यही वजह है कि शिक्षा संस्थान और कैंपस जरूरी हैं... लेकिन वहां छात्रों ने अपनी अलग क्लासेस लगानी शुरू कर दी हैं... आज सरकार के दखल की दुहाई देने वाले क्या वहां राजनीति के घिनौने दलदल को पहले नहीं देख रहे थे... आज वहां देश के खिलाफ बोलना, आस्था के खिलाफ बोलना प्रगतिवादी होने की पहचान बन रहा है... देश को बचाना है तो जड़ों को बचाना होगा.. जड़ों को बचाना है तो वहां से कचरे निकालना होगा.. और हां यदि ऐसे होते हैं बुद्धिजीवी तो माफ करना मैं नहीं हूं बुद्धिजीवी.. और अपनी आस्था और स्वाभिमान पर चोट को सहना होती है सहिष्णुता तो मैं नहीं हूं सहिष्णु... आप खुद को बेनकाब करते रहो इसी बहाने मुझे भी पता चल रहा है कि मेरे इर्द गिर्द कौन पल रहे हैं... इस बहाने जो अभी भटके नहीं हैं उन्हें भी अहसास होगा कि आस्था पर चोट करने वाले अवसादग्रस्त लोगों की हकीकत क्या है।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

मां का अपमान कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं हम?


जो लिख रहा हूं उसके लिए माफ कीजिएगा.. गुस्से में हूं इसीलिए लिख रहा हूं.. पत्रकार हूं इसीलिए इतना सोचना पड़ा.. हो सकता है ये पोस्ट कई लोगों को आहत करे... ये लिखना इसीलिए जरूरी है क्यूंकि किस तरह कि मानसिकता कथित बुद्धिजीवियों के बीच पल रही है उसका अंदाजा हो पाया। उनका समर्थन करने वाले अंधे बुद्धिजीवियों को भी ये समझऩा जरूरी है कि वे बिना जाने किन लोगों के समर्थऩ में हैं.. सबसे पहले मां दुर्गा मुझे माफ करें.. मेरे नाना ने उन्हीं कि सेवा की और मैं मानता हूं कि आज मैं जो कुछ भी मां भवानी के ममता से ही हूं.. अपनी माता को में देवी के साक्षात रूप में देखता हूं और न चाहते हुए भी पूरे गुस्से और आंखों में आंसूओं के साथ इस पोस्ट को लिख रहा हूं... कोई ऐसा व्यक्ति इस पोस्ट पर कंमेंट न करे जो मेरी भावनाओं से और खिलवाड़ हो.. स्मृति ईरानी ने सुगत राय, सुगत बोस और राहुल गांधी को सड़कों पर इस पर बहस करने के लिए कहा है.. अगर सचमुच कोई आता है तो उसे जूतों से मारा जाना चाहिए बहस दूर की बात है..
स्मृति ईरानी ने जेएनयू के SC-ST, अल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्ग छात्रों की तरफ से 4 अक्टूबर 2014 को जो बात पोस्ट की गई और प्रचारित की गई उसका जिक्र किया। अंग्रेजी में होने की वजह से कई लोग समझ नहीं पाए होंगे.. समझऩा जरूरी है.. हम देश की जड़ों पर ही नहीं.. लोगों के दिलों पर हमला करने वालों के बीच में है... स्मृति ईरानी के शब्दों में
''... मुझे ईश्वर माफ करें इस बात को पढ़ने के लिए... दुर्गा पूजा सबसे ज्यादा विवादास्पद और नस्लवादी त्योहार है... जहां प्रतिमा में खूबसूरत दुर्गा मां को काले रंग के स्थानीय निवासी महिषासुर को मारते दिखाया जाता है... महिषासुर एक बहादुर, स्वाभिमानी नेता था... जिसे आर्यों द्वारा शादी के झांसे में फँसाया गया... उन्होंने एक सेक्स वर्कर का सहारा लिया... जिसका नाम दुर्गा था... जिसने महिषासुर को शादी के लिए आर्कषित किया और 9 दिनों तक सुहागरात मनाने के बाद उसकी हत्या कर दी...ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? कौन मुझसे इस मुद्दे पर कोलकाता की सड़कों पर बहस करना चाहता है?"

मुझे आप चाहे जो कहें मैं आपको स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस से बड़ा नहीं मानता... परमहंस तो मां को साक्षात देखते थे। विवेकानंद उसी चाहत में गए और बहुत कुछ पाया.. अपनी बातों का निचोड़ लिखते हुए कहा था... इस देश की ताकत इसकी जड़ें हैं.. संस्कृति है.. भक्ति है और ईश्वर के प्रति अगाध प्रियता और श्रद्धा है जब तक जड़ों पर हमला नहीं होगा कोई हमारा बाल भी बांका नहीं कर पाएगा.. लेकिन ये जड़ों पर नहीं हमारे दिलों पर हमला है.. कोई चोरी चुपके भी ये कर रहा है तो वो माफी के काबिल नहीं... सरकार को सिर्फ इनके बारे में जानकारियां ही सामने नहीं रखनी चाहिए बल्कि इन जानवरों को बाहर निकालना चाहिए और कड़ी सजा देनी चाहिए.. मां मुझे माफ करना... ऐसे गंदे शब्द किसी और के ही क्यूं न हों मुझे यहां लिखने पड़े.. पर मैं जानता हूं तुम दयालू हो.. करूणामयी हो.. ममता से भरी हुई हो.. जब इन नीचों को माफ कर दिया तो मुझे क्यूं नहीं करोगी... बस ...

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

24 दिन 24 बातें- डॉ. प्रवीण तिवारी

हम अपनी आदतों का पुलिंदा हैं। हमारा मन या चित्त चाहे जो कहें वो हमारी इन्हीं आदतों से बना हुआ है। खाने पीने और दिनचर्या की दूसरी आदतों से आगे बढ़ते हुए हमारे डर, आत्मविश्वास, खुशी, दुख और अन्य तमाम भाव भी आदतों से ही जुड़े हुए हैं। ऐसे कई प्रयोग हुए जो बताते हैं कि नई चीजों तो करने में हम हमेशा एक परेशानी महसूस करते हैं और इसकी वजह ये होती है कि हम अपनी आदतों के दायरे को तोड़ना नहीं चाहते हैं। ये भी सच है कि यदि शुरूआती नीरसता के बावजूद किसी अच्छे काम को यदि आदत बनाने के लिए उसे सतत 24 दिनों तक किया जाए तो वो उतना ही सहज हो जाता है जितनी हमारी दूसरी आदतें। इन 24 दिनों में ऐसी कौनसी 24 बातें हैं जिनका अभ्यास हमें सत्य के करीब ले जाता है पर इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है।

24 दिन 24 बातें cover page. Book is published by Mahaveer Publishers, Delhi
करत करत अभ्यास के जडमती होत सुजान.. ये बात हम कहते, पढ़ते तो बहुत आए लेकिन हम इसके अपने जीवन में महत्व को कितना समझते हैं। एक छोटे से उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है कि यदि आपको किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में गाने, नाचने या बोलने के लिए कहा जाता है तो आप के हाथ पैर फूल सकते हैं। ऐसा तभी होता है जब आप इन विधाओं में महारत नहीं रखते हों। इसके उलट यदि किसी ने गाने, नाचने या बोलने का अभ्यास किया है या वो इन्हें अभ्यास के तौर पर अपने जीवन में आजमाता है तो वो खुशी खुशी ऐसे मौकों पर अपनी इस कला का मुजाअरा करता है। अलग अलग हुनर के मामले में तो ये बात हम सब समझते हैं लेकिन जीवन जीने की कला, विभिन्न परिस्थितियों पर हमारी प्रतिक्रिया, लक्ष्य के लिए आगे बढ़ते हुए पेश आने वाली चुनौतियों जैसी बहुत सी बातों में हम इस सामान्य से विज्ञान को भूल जाते हैं। आप जिस अभ्यास में माहिर हो जाते हैं उसमें आत्मविश्वास से लबरेज भी होते जाते हैं। सत्य को पाने और जीवन को सही तरीके से जीने पर भी यही बात लागू होती है।

यूं तो बहुत कुछ बहुत से ज्ञानियों ने पहले ही लिख दिया है लेकिन फिर भी उन्हें जीवन में उतारने का अभ्यास हम नहीं कर पाए हैं। विचारों की कौंध में जीते हुए हम ठीक से देखना, सुनना, लिखना और बोलना तक भूल गए हैं। ये किताब पहले तो आपको स्वविवेक से इस बात को समझने में मदद करती है कि क्या हम सोए हुए हैं। क्या सचमुच हम दिन प्रतिदिन अपने जीवन के साथ सही अभ्यास कर रहे हैं? क्या हम सही आदतों को अपने जीवन में जगह दे रहे हैं? उन्हें पहचानना और यदि वो सही नहीं हैं तो उनके विपरीत सही अभ्यास को जीवन का हिस्सा बनाना इस पुस्तक का मकसद है। ऐसे ही 24 महत्वपूर्ण अभ्यासों पर ये पुस्तक रौशनी डालती हैं। जिनमें सतत अभ्यास का अभ्यास और अनुभव का अभ्यास भी शामिल है। इन अभ्यासों को जीवन का हिस्सा बनाने से आप सत्य की ओर अग्रसर होते हैं और एक अच्छे व्यक्तित्व के मालिक भी बनते हैं। अच्छा व्यक्तित्व और सत्य की जीवन में क्या आवश्यकता है पर भी ये पुस्तक रौशनी डालती है।