गुरुवार, 25 अगस्त 2016

हाजी अली पर बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

हाजी अली पर बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, दरगाह ट्रस्ट का बेतुका बयान, फैसल इस्लामिक संविधान के खिलाफ
हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश की इजाजत का ऐतिहासिक फैसला हाईकोर्ट ने आखिरकार सुना ही दिया। इस फैसले को सुनाते हुए कोर्ट ने इसे संवेदनशील मसला भी बताया। इस मसले पर जमकर सियासत हुई। याचिकाकर्ताओं ने जहां इस फैसले पर खुशी जताई तो हाजी अली ट्रस्ट ने इसे दूसरे के घर में घुसने की हरकत करार दिया। हाजी अली दरगाह के ट्रस्टी मुफ्ती मंजूर जिआई ने तो ये तक कह दिया कि ये इस्लामिक संविधान के खिलाफ है। मैंने उनसे पूछा भाई ये इस्लामिक संविधान क्या होता है। देश में एक संविधान है और सबके लिए समान है। जाहिर तौर पर कोर्ट ने पूरे मामले को समझते हुए जिम्मेदारी के साथ फैसला लिया। आप किसी परंपरा को बचाए रखने के नाम पर क्या करते हैं वो सामाजिक मसला है लेकिन जब कानून के आधार पर बात होगी तो देश में इस तरह की कई परंपराओं को कचरे की टोकरी में डालना ही होगा।
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की मध्य प्रदेश इकाई की संयोजक सफिया अख्तर से भी बात हुई। सफिया ने इसे सभी महिलाओं की जीत करार देते हुए कहा कि महिलाओं को बराबर का अधिकार मिलना ही चाहिए। हमें पहले से ही भरोसा था कि कोर्ट का फैसला हमारे पक्ष में आएगा। वहीं उनके वकील फिरोज ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में भी इसी आधार पर बहस होगी और निश्चित ही वहां भी फैसला हमारे ही पक्ष में आएगा। हाजी अली दरगाह ट्रस्ट इस फैसले से बौखलाया हुआ है और वो कोर्ट के फैसले को गलत तक करार दे रहा है।

ट्रस्टी जिआई के मुताबिक ये हमारे घर में घुसने की कोशिश है। वो इस मुद्दे को सियासी रंग देने से भी नहीं चूक रहे हैं। वहीं इस्लाम के जिन जानकारों से बात हुई वो भी घुमा फिराकर बात करते दिखे। मौलान निजामी के मुताबिक इस्लाम महिला पुरुषों को बराबर का अधिकार देता है लेकिन हर धर्म स्थल के अपने तौर तरीके होते हैं और उनका सम्मान होना चाहिए। वो कोर्ट के फैसले से सहमत होने की बात तो कहते हैं लेकिन इस फैसले का स्वागत करने से इंकार करते हैं। ये मामला इस्लाम से जोड़ने की कोशिश भी की जा रही है लेकिन पहले भी इस्लाम के कई जानकार कह चुके हैं कि जब इस्लाम में दरगाह पर जाना ही हराम है तो फिर वहां स्त्री पुरुष के जाने पर क्या बहस की जाए।


हाल ही में तृप्ति देसाई ने शनि शिंगणापुर को लेकर एक संघर्ष किया था उन्हें इसमें जीत भी मिली और उन्होंने आखिरकार गर्भ गृह में पहुंचकर शनिदेव को स्नान भी करवाया। अब बारी हाजी अली दरगाह की है। कोर्ट का फैसला आ गया है लेकिन अब हाजी अली में क्या इस फैसले के बावजूद महिलाओं का प्रवेश संभव हो पाएगा? ये सवाल दरगाह ट्रस्ट के कड़े रुख के बाद उठ रहा है। ट्रस्ट कोर्ट के आदेश के खिलाफ ही खड़ा हा गया है और इस्लामिक संविधान की बात कर रहा है। सबसे पहले तो उनके इस बयान को गंभीरत से लेना चाहिए। ये समानता की लड़ाई को धार्मिक रंग देने की एक कोशिश भी है। देश कानून से चलता है और वो सबके लिए बराबर है। बॉम्बे हाइकोर्ट के इस फैसले ने ये भी साफ कर दिया है कि कानून सबके लिए बराबर वो दरगाह और मंदिर के लिए अलग अलग नहीं हो सकता।

साभार- janwadi.blogspot.com

योगेश्वर श्रीकृष्ण को भूलकर, माखनचोर के पीछे क्यों  पड़े रहते हैं?

लेखक- श्रीराम तिवारी

हिन्दू पौराणिक मिथ अनुसार  भगवान् विष्णु के दस अवतार माने गए हैं। कहीं-कहीं २४ अवतार भी माने गए हैं।  अधिकांश हिन्दू मानते हैं कि केवल श्रीकृष्ण अवतार ही  भगवान् विष्णु का पूर्ण अवतार हैं। हिन्दू मिथक अनुसार श्रीकृष्ण से पहले विष्णु का 'मर्यादा पुरषोत्तम' श्रीराम अवतार हुआ और वे केवल मर्यादा के लिए जाने गए। उनसे पहले परशुराम का अवतार हुआ, वे  क्रोध और क्षत्रिय-हिंसा के लिए जाने गए। उनसे भी पहले 'वामन' अवतार हुआ जो न केवल बौने थे अपितु दैत्यराज प्रह्लाद पुत्र राजा – बलि को छल से ठगने के लिए जाने गए। उनसे भी पहले 'नृसिंह' अवतार हुआ, जो आधे सिंह और आधे मानव रूप के थे अर्थात पूरे मनुष्य भी नहीं थे। उससे भी पहले 'वाराह' अवतार हुआ जो अब केवल एक निकृष्ट पशु  ही माना जाता है। उससे भी पहले कच्छप अवतार हुआ, जो समुद्र मंथन के काम आया। उससे भी पहले मत्स्य अवतार हुआ जो इस वर्तमान ' मन्वन्तर' का आधार  माना गया। डार्विन के वैज्ञानिक विकासवादी सिद्धांत की तरह यह 'अवतारवाद' सिद्धांत भी वैज्ञानिकतापूर्ण है। आमतौर पर विष्णु के ९ वें अवतार 'गौतमबुद्ध ' माने गए हैं, दसवाँ अवतार कल्कि के रूप में होने का इन्तजार है। लेकिन हिन्दू मिथ भाष्यकारों और पुराणकारों ने श्री विष्णुके श्रीकृष्ण अवतार का जो भव्य महिमामंडन किया है वह न केवल भारतीय मिथ-अध्यात्म परम्परा में बेजोड़ है ,बल्कि विश्व के तमाम महाकाव्यात्मक संसार में भी श्रीकृष्ण का चरित्र ही सर्वाधिक रसपूर्ण और कलात्मक है।
श्रीमद्भागवद पुराण में वर्णित श्रीकृष्ण के गोलोकधाम गमन का- अंतिम प्रयाण वाला दृश्य पूर्णतः मानवीय  है। इस घटना में कहीं कोई दैवीय चमत्कार नहीं अपितु कर्मफल ही झलकता है। अपढ़ -अज्ञानी  लोग कृष्ण पूजा के नाम पर वह सब ढोंग करते रहते हैं जो कृष्ण के चरित्र से मेल नहीं खाते। आसाराम जैसे कुछ महा धूर्त लोग अपने धतकर्मों को औचित्यपूर्ण बताने के लिए  कृष्ण की आड़ लेकर कृष्णलीला या रासलीला को बदनाम करते रहते हैं। श्रीकृष्ण ने तो इन्द्रिय सुखों पर काबू करने और समस्त संसार को निष्काम कर्म का सन्देश दिया  है। आपदाग्रस्त द्वारका में जब यादव कुल आपस में लड़-मर रहा था। तब दाहोद-झाबुआ के बीच के जंगलों में श्रीकृष्ण किसी मामूली भील के तीर से घायल होकर  निर्जन वन में एक पेड़ के नीचे कराहते हुए पड़े थे । इस अवसर पर न केवल काफिले की महिलाओं को भीलों ने लूटा बल्कि गांडीवधारी अर्जुन का धनुष भी भीलों ने  छीन लिया । इस घटना का वर्णन किसी लोक कवि ने कुछ इसतरह किया है:- जो अब कहावत  बन गया है।

      ''पुरुष  बली नहिं  होत है, समय होत बलवान।
       
भिल्लन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बाण।।''

कोई भी व्यक्ति उतना महान या  बलवान नहीं है ,जितना कि 'समय' बलवान होता है। याने वक्त सदा किसी का एक सा नहीं रहता और मनुष्य वक्त के कारण  ही कमजोर या ताकतवर हुआ करता है। कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में, जिस गांडीव से अर्जुन ने हजारों शूरवीरों को मारा, जिस गांडीव पर पांडवों को बड़ा अभिमान था, वह गांडीव भी श्रीकृष्ण की रक्षा नहीं कर सका। दो-चार भीलोंके सामने अर्जुनका वह गांडीव भी बेकार साबित हुआ।  परिणामस्वरूप 'भगवान' श्रीकृष्ण घायल होकर 'गोलोकधाम' जाने का इंतजार करने लगे।

पराजित-हताश अर्जुन और द्वारका से प्राण बचाकर भाग रहे  यादवों के स्वजनों- गोपिकाओं को भूख प्यास से तड़पते  हुए  मर जाने का वर्णन मिथ-इतिहास जैसा चित्रण नहीं लगता। यह कथा वृतांत कहीं से भी चमत्कारिक  नहीं लगता। वैशम्पायन वेदव्यास ने  श्रीमद्भागवद में  जो मिथकीय वर्णन प्रस्तुत किया है, वह आँखों देखा हाल जैसा लगता है। इस घटना को 'मिथ' नहीं बल्कि इतिहास मान लेने का मन करता है। कालांतर में चमत्कारवाद से पीड़ित, अंधश्रद्धा में आकण्ठ डूबा हिन्दू समाज इस घटना की चर्चा ही नहीं करता। क्योंकि इसमें ईश्वरीय अथवा मानवेतर  चमत्कार  नहीं है। यदि विष्णुअवतार- योगेश्वर श्रीकृष्ण एक भील के हाथों घायल होकर मूर्छित पड़े हैं तो उस घटना को अलौकिक कैसे कहा जा सकता है? जो मानवेतर नहीं वह कैसा अवतार? किसका अवतार? किन्तु अधिकांश सनातन धर्म अनुयाई जन द्वारकाधीश योगेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर, पार्थसारथी-योगेश्वर  श्रीकृष्ण को भूलकर   माखनचोर  के पीछे पड़े हैं। लोग श्रीकृष्ण के 'विश्वरूप' को भी पसन्द नहीं करते उन्हें तो   'राधा माधव' वाली छवि ही भाती  है।

रीतिकालीन कवि बिहारी ने कृष्ण विषयक इस हिन्दू आस्था का वर्णन इस तरह किया है :-

 “मोरी  भव  बाधा  हरो ,राधा  नागरी  सोय।

 
जा तनकी  झाईं परत ,स्याम हरित दुति होय।।

या

मोर मुकुट कटि काछनी ,कर मुरली उर माल।

 
अस बानिक मो मन बसी ,सदा  बिहारीलाल।।''

जिसके सिर पर मोर मुकुट है, जो कमर में कमरबंध बांधे हुए हैं, जिनके हाथों में मुरली है और वक्षस्थल पर वैजन्तीमाला है, कृष्ण की वही छवि  मेरे [बिहारी ]मन में सदा निवास करे!
कविवर रसखान ने भी इसी छवि को बार-बार याद किया है।

 '
या लकुटी और कामरिया पर राज तिहुँ पुर को तज डारों '

 या

 '
या छवि को रसखान बिलोकति बारत कामकला निधि कोटि'

संस्कृत के भागवतपुराण-महाभारत, हिंदी के प्रेमसागर-सुखसागर और गीत गोविंदं तथा कृष्ण भक्ति शाखा के अष्टछाप-कवियों द्वारा वर्णित कृष्ण-लीलाओं के विस्तार अनुसार  'श्रीकृष्ण' इस भारत भूमि पर-लौकिक संसार में श्री हरी विष्णु के सोलह कलाओं के सम्पूर्ण अवतार थे। वे न केवल साहित्य, संगीत, कला, नृत्य और योग विशारद थे। अपितु वे इस भारत भूमि पर आम लोगों के लिए लड़ने वाले योद्धा थे जिन्होंने इंद्र  इत्यादि जैसी दैवीय शक्तियों या ताकतवर लोगों के अलाव वैदिक देवताओं के  विरुद्ध शंखनाद किया था। खेद की बात है कि श्रीकृष्ण के इस रूप को भूलकर लोग उनकी बाल छवि वाली मोहनी मूरत पर ही फ़िदा होते रहे। श्रीकृष्ण ने  'गोवर्धन पर्वत क्यों उठाया? यमुना नदी तथा गायों की पूजा के प्रयोजन क्या थाइन सवालों का एक ही उत्तर है कि श्रीकृष्ण प्रकृति और मानव समेत तमाम प्रणियों के शुभ चिंतक थे। श्रीकृष्ण ने कर्म से, ज्ञान से और बचन से मनुष्यमात्र को नई  दिशा दी। उन्होंने विश्व को कर्म योग और भौतिकवाद से जोड़ा।  शायद इसीलिये उनका चरित्र विश्व के तमाम महानायकों में सर्वश्रेष्ठ है। यदि वे कोई देव अवतार नहीं भी थे तो भी वे इतने महान थे कि उनके मानवीय अवदान और चरित्र की महत्ता किसी ईश्वर से कमतर नहीं हो सकती। 


शनिवार, 13 अगस्त 2016

भारत भी आ सकता है अमेरिका चीन की तरह पदक तालिका में, लेकिन ये खामियां रोक लेती हैं कदम।


ओलंपिक में पदकों की चाह ने कई सवाल खड़े किए हैं। पदकों की ये चाह पिछले दो ओलंपिक्स में किए गए निशानेबाजों, पहलवानों और मुक्केबाजों के प्रदर्शन के बाद शुरू हुई थी। इस ओलंपिक में अभी तक पदकों का खाता नहीं खुलना भारतीय खेल प्रेमियों को परेशान कर रहा हैं। ये बहस शुरू हो गई है कि आखिर हम खेलों में अमेरिका और चीन से इतने पिछड़े हुए क्यूं हैं? खेलों में हमारी खस्ता हालत कुछ खास वजहें हैं और यदि इन खामियों को दूर कर लिया जाए तो भारत को भी पदक तालिका में इक्का दुक्का पदकों के लिए लार नहीं टपकानी पड़ेगी।
Courtesy-  Kirtish/BBC Hindi

हमारे खिलाड़ी जबरदस्त मेहनत करते हैं। बेहतरीन खिलाड़ियों को छांटने की कोशिश भी होती रही है लेकिन इस सबके बीच राजनीति का कीड़ा हमारे खेलों को भी खोखला कर देता है। ये सारी बातें पहले भी होती रही हैं लेकिन चीन और अमेरिका की तरह पदकों का ढेर नहीं लगा पाने की वजह ये राजनीति नहीं बल्कि कुछ और है। दरअसल हमारे देश में खेलों को कभी भी स्कूल शिक्षा का गंभीर हिस्सा नहीं माना गया है। सरकारी स्कूल में एक-आध स्पोर्ट्स टीचर या पीटी टीचर रखने की परंपरा तो रही है लेकिन यहां भी सभी स्कूलों की बात नहीं हो रही है। औपचारिकता के तौर पर पीटी टीचर भी चंद एक स्कूलों को ही नसीब हो पाता है।

ज्यादातर स्कूलों में तो पढ़ाने के लिए शिक्षकों के टोटे हैं तो स्पोर्ट्स के लिए शिक्षक की बात को तो कोई गंभीरता से लेगा भी नहीं। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में खेल प्रतिभाएं नहीं है। आप आज भी कई छोटे शहरों में चले जाएँ तो मैदानों पर आपको बेहतरीन फुटबॉल या बैडमिंटन खेलते खिलाड़ी मिल जाएंगे। इस बात को पढ़ते हुए यदि आपके जेहन में ये बात आए कि जहां जाएं वहां क्रिकेट खेलते ही खिलाड़ी मिलते हैं तो भी आप गलत नहीं है। क्रिकेट की अपनी लोकप्रियता है और साथ ही साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे देश की एक साख भी है। यही वजह है कि हमारे युवाओँ में क्रिकेट को लेकर एक दीवानगी रहती है।

कुछ सालों पर क्रिकेट के बेहतरीन खिलाड़ी रहे नवजोत सिंह सिद्धू से एक कार्यक्रम के दौरान इसी मुद्दे पर बहस हो रही थी। उन्होंने हॉकी और क्रिकेट की लोकप्रियता पर दर्शकों के बीच से आए एक सवाल का बढ़िया जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि वो बचपन में वो खुद हॉकी के दीवाने थे। वही नहीं बल्कि हॉकी का कोई भी मुकाबला उस जमाने के दूसरे युवा भी नहीं छोड़ते थे। मैदानों पर जगह पाने के लिए वैसी ही मारा मारी होती थी जैसी आज क्रिकेट के लिए होती है। इसकी बड़ी वजह ये थी कि उस दौर में हॉकी में भारत बेहतरीन परफॉर्म करता था। ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतते थे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत का दबदबा था। उस वक्त हॉकी के खिलाड़ी आम लोगों के बीच खासे लोकप्रिय भी होते थे, ठीक वैसे ही जैसे आज क्रिकेटर्स होते हैं।

सिद्धू की इस बात में दम इसीलिए भी दिखता है क्यूंकि पिछले कुछ सालों में सुशील कुमार, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा, लिएंडर पेस, विजेंदर कुमार जैसे तमाम खिलाड़ियों ने अपने अपने खेलों की लोकप्रियता बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वो भी अब किसी सेलीब्रिटी से कम नहीं हैं। अपने खेलों को लोकप्रिय बनाने के लिए इन्होंने कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किए या सरकार से गुहार नहीं लगाई बस अपने-अपने खेलों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धूम मचाई। उनके द्वारा लाए गए मैडलों ने अन्य युवाओं में भी इन खेलों को लेकर न सिर्फ रुचि जगाई बल्कि एक नए जज्बे को पैदा किया। निजी तौर पर किए गए इन प्रयासों से भारत में खेलों को एक नई उर्जा मिली लेकिन एक बार फिर हम पदकों के टोटे से झूझ रहे हैं।

पिछले ओलंपिक के बाद भी उम्मीद जागी थी कि अब भारत अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में अपने स्तर को सुधारते हुए उत्तरोत्तर आगे बढ़ेगा। ऐसा नहीं है कि आने वाले समय में अच्छे खिलाड़ी हमें नहीं मिलेंगे लेकिन ये भी सच है कि हर बार खिलाड़ियों के अच्छे प्रदर्शन से बनने वाले माहौल को हम भुना नहीं पाते हैं। हम अमेरिका और चीन की तरह पदकों की उम्मीद तो करते हैं लेकिन हमारी स्पोर्ट्स पॉलिसी और खास तौर पर स्कूल स्तर पर स्पोर्ट्स एजूकेशन इन देशों के इर्द गिर्द भी नहीं दिखती।

स्पोर्ट्स एजुकेशन की खस्ता हालत के बारे में जानकारी दी, इस दिशा में लगातार प्रयास कर रही संस्था से जुड़े हुए पीयूष जैन साहब ने। उन्होंने बताया कि कुछ प्रयास होते भी हैं तो वो बर्बाद हो जाते हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश की कई पंचायतों में अच्छे जिम बनाए गए लेकिन वो आज तक बंद ही पड़े हैं। स्कूलों में स्पोर्ट्स एजूकेशन को कोई तवज्जो ही नहीं दी जाती है। हम पढ़ाई लिखाई के बोझ में इतने दबे रहते हैं कि खेलों की प्रतिभा को कुछ मानते ही नहीं है।

ये बात सही है कि किताबी ज्ञान और पढ़ाई लिखाई का अपना महत्व है लेकिन यदि खेल प्रतिभाओं को सामने लाना है तो इन्हें स्कूल स्तर से ही पहचानने की जरूरत है। ये कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है हम सभी जानते हैं कि देश में खेलों के प्रति तमाम युवाओं और बच्चों का जबरदस्त रुझान होता है लेकिन उन्हें वो प्रोत्साहन नहीं मिलता जो खेलों को गंभीर करियर के तौर पर भी सामने रखे। भिवानी में बॉक्सिंग के निजी प्रयास हो या महाबली सतपाल की कुश्ती एकेडमी से निकलती प्रतिभाएं हों, इस तरह की गंभीर एजूकेशन के कितने बेहतरीन परिणाम हो सकते हैं इसके परिणाम भी हमारे सामने हैं। यदि यही प्रयास सरकार की तरफ से गंभीरता से लागू किए जाएं तब आप सचमुच चीन और अमेरिका जैसे पदकों की आशा कर सकते हैं।
Courtesy- Shekhar Gurera

अभी खेलों में जो प्रयास होते हैं वो बहुत ही निजी स्तर पर होते हैं। कोई खिलाड़ी जब नेशनल लेवल पर खेल लेता है तब उसे कुछ सरकारी सुविधाएं दी जाती हैं। इसके बाद भी सिस्टम इतना आसान नहीं है कि खिलाड़ियों को प्रोत्साहन मिल पाए। मैं खुद ताइक्वांडों का खिलाड़ी रहा हूं और राज्य स्तर पर तीन प्रतियोगिताएं भी खेलने का अवसर मिला। मेरे कोच करीब 20 से 22 नेशनल मुकाबलों में हिस्सा ले चुके थे और इनमें से 14 में उन्हें गोल्ड मैडल भी मिला था। उनके दयनीय जीवन और दुखद अंत का मैं खुद चश्मदीद रहा हूं। ये कहानी अपने आप में एक अलग विषय है लेकिन ये कोई अकेली कहानी नहीं है।

कुछ सालों पहले किसी जमाने में देश के जाने माने तीरंदाज रहे लिंबाराम की खराब हालत पर उनका इंटरव्यू करने का मौका मिला था। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि किसी जमाने में अखबारों में छाया रहने वाला ये नाम और ये चेहरा आज किसी गैराज में रहने को मजबूर है। ये भी कोई अकेली कहानी नहीं है खिलाड़ियों की बुरी हालत के ऐसे कई किस्से आपको अपने इर्द गिर्द भी मिल जाएंगे। इन पर भी गौर करना इसीलिए जरूरी है क्यूंकि खेल जगत की ऐसी प्रतिभाओं का भी इस्तेमाल करने की कोई पॉलिसी हमारे पास नहीं है।


स्कूल एजूकेशन में यदि खेलों को गंभीर तौर पर शामिल करना है तो ऐसी प्रतिभाओं का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। पीयूष जैन जैसे लोग जो प्रयास कर रहे हैं उसे सरकार का और समर्थन मिलना चाहिए और तंग हाली में जी रहे अनुभवी खिलाड़ियों का भी सही इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है। खेल प्रतिभाएं हमारे देश की मिट्टी में है उन्हें तराश कर जब सामने लाया जाता है तो कई ऐसे खिलाड़ी निकलते हैं जो देश का नाम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोशन कर देते हैं। इन प्रतिभाओं को किस्मत के हाथों पर निखरने के लिए छोड़ देने के बजाय सरकार को स्कूल स्तर से ही गंभीर प्रयास करने की जरूरत है। यदि ऐसा होता हो तो विश्वास मानिए आपको इक्का दुक्का पदकों की आस नहीं लगानी पड़ेगी बल्कि आप अमेरिका और चीन की तरह पदकों की दौड़ में भी शामिल हो पाएंगे।

बुधवार, 10 अगस्त 2016

क्या है नीतीश कुमार की शराबबंदी का सच? क्यूं डर रही है शराबबंदी से बिहार की महिलाएं?

नीतीश कुमार शराब बंदी पर अपने विरोधियों के खिलाफ खुलकर सामने आए हैं। उन्होंने एक ब्लॉग के जरिए कहा है कि ये एक बड़ी चुनौती है लेकिन वो इससे पीछे नहीं हटेंगे। दूसरी तरफ उनके गृह जिले नालंदा में शराब बनाने वाले लोगों पर हुए सामुहिक जुर्माने ने शराबबंदी से बेरोजगार हुए लोगों की एक नई कहानी सामने रख दी है। 10 पुलिस अधिकारियों के सस्पेंड कर भी उन्होंने शराबबंदी को लेकर अपनी सख्ती दिखाने की कोशिश की है। इन तमाम उठापटक के बीच अब ये सवाल गहरा रहा है कि नीतीश कुमार की शराबबंदी को लेकर आखिर क्या सोच है? क्या सचमुच बिहार को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने शराबबंदी की इस मुहिम को शुरू किया है या फिर इस पीछे भी कोई सियासी गणित हैं?
निजी तौर पर मैंने पहले भी नीतीश कुमार की इस पहल को एक बेहतरीन कदम बताया है। शराब इस देश को खोखला कर रही है और शराबबंदी के जरिए देश में अपराध और युवाओं के भटकाव की समस्या से बहुत हद तक निपटा जा सकता है। बिहार में शराब बंदी के बाद से ही नीतीश कुमार शराब माफिया और विरोधियों के निशाने पर रहे हैं। बिहार में शराबबंदी के बाद से एक छटपटाहट देखने को मिली है। इसी का नतीजा है कि उनके अपने गृह जिलें नालंदा से लगातार अवैध शराब मिलना उनके लिए चुनौती बना हुआ है। इस सबके बीच नीतीश कुमार ने एक ब्लॉग के जरिए शराबबंदी की पुरजोर वकालत करते हुए गांधी जी को कोट किया।

उन्होंने लिखा है कि महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में 1931 में लिखा था - यदि मुझे एक दिन के लिए भारत का तानाशाह बना दिया जाए तो मैं सबसे पहले पूरे देश में बिना कोई मुआवजा दिए सभी शराब की दुकानों के बंद करवा दूंगा। साथ ही उन्होंने गांधी जी की इस बात को भी पुरजोर तरीके से लिखा कि किसी भी देश की जड़ों को खोखला करने के लिए नशा ही जिम्मेदार होता है। बड़ी बड़ी सियासतों का अंत इसी शराब की वजह से हुआ है। नीतीश ने जितनी भी बातें लिखी हैं उनसे शायद ही कोई इन्कार कर पाए।

इसमें सियासत की बू तब सामने आती है जब वो इसी ब्लॉग में गुजरात का नाम लिए बगैर कहते हैं कि जिन राज्यों में शराब बंदी लागू भी की गई है वहां ये पूरी तरह से कामयाब नहीं है। ये बात सच भी है कि जिन राज्यों में शराबबंदी होती है वहां शराब उपलब्ध हो जाती है। गुजरात भी इससे अछूता नहीं है। ये जरूर है कि जिन राज्यों में शराबबंदी होती है वहां अपेक्षाकृत इसके दुष्प्रभाव कुछ कम हो जाते हैं। हांलाकि शराब के दुष्प्रभाव सामने आते हैं तो शराबबंदी के भी कुछ दुष्प्रभाव हमारे सामने आए हैं।

एक तरफ नीतीश कुमार शराब बंदी का दावा कर रहे दूसरी तरफ उनके गृह जिले नालंदा के इसलामपुर एक गांव के दलित परिवार उनकी सरकार पर बरसते दिखाई दे रहे हैं। दरअसल शराबबंदी के बावजूद यहां से बङे पैमाने पर देशी-विदेशी शराब मिलने का सिलसिला जारी है। इसी वजह से प्रशासन ने हर परिवार पर पांच पांच हजार रुपय का जुर्माना लगा दिया है। इन लोगों का कहना है कि उनके पास खाने को पैसा नहीं है तो वो जुर्माना कहां से भर पाएंगे? प्रशासन इस मामले को लेकर कितना सख्त है इसकी बानगी 10 एसएचओ को सस्पेंड करने की कार्रवाई से लगाया जा सकता है।
गांव वालो का आरोप है कि राज्य सरकार ने इन लोगों को बेरोजगार कर दिया है। बेरोजगारी के कारण ही ये लोग शराब बनाने के धंधे में आए थे। इनका कहना है ये जुर्माना कहा से भरेंगे जब पेट भरने के लिए भी पैसा नहीं है। सबसे अहम बात उन महिलाओं की है जो शराबबंदी के फैसले से बहुत खुश थीं लेकिन उनका अब कहना है कि वो शराब बंदी तो चाहती हैं लेकिन उनके पतियों के जेल जाने की कीमत पर नहीं। शराबबंदी करना और शराब का छूट जाना में बहुत फर्क होता है। शराब लाखों लोगों का कारोबार है तो करोड़ों लोगों की लत है। लत और रोजगार दोनों ही चुनौतियों को सामने रखकर कोई फैसला लेना ही कारगर हो सकता है। यही वजह है कि सुशासन बाबू को ये लोग तानाशाह कहने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं।

उन्होंने अपने ब्लॉग के जरिए इन आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि सरकार को मिली शक्ति समाज की भलाई के लिए ही होती हैं। नशे का कारोबार किसी अधिकार के दायरे में नहीं आते हैं। ये आरोप बेबुनियाद है कि ये तानाशाही रवैया है क्यूंकि सुप्रीम कोर्ट ने खुद कहा है कि नशे बेचना, खरीदना, आयात करना, निर्याता करना या भंडारण करना किसी मौलिक अधिकार का हिस्सा नहीं है। समाज के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी भी सरकार की है और मैं ये जिम्मेदारी निभाता रहुंगा।

इन आरोपों के बीच सुशासन बाबू पर शराबबंदी को लेकर एक राजनैतिक आरोप भी लगा ये आरोप उनकी सियासी दोस्त कही जाने वाली आम आदमी पार्टी के ही एक सदस्य ने लगाए। अपने एक ब्लॉग में इन्होंने लिखा कि शराबबंदी के बाद जब मैं बिहार गया तो लोगों में इसको लेकर सकारात्मकता तो दिखी लेकिन साथ ही साथ एक डर का माहौल भी देखने को मिला। खासतौर पर महिलाएं जबरदस्ती शराबबंदी होने के बाद लगातार हो रही पुलिसिया कार्रवाई से बहुत खौफजदा हैं। उन्होंने ये भी लिखा कि नए कानून के मुताबिक सिर्फ शराब रखने वाला शख्स ही नहीं उसके परिवार के 18 वर्ष से ज्यादा उम्र के सभी लोगों को जेल भेजने का प्रावधान है।

शराब बंदी के बाद राज्य सरकार को आबकारी आय में जबरदस्त घाटा उठाना पड़ रहा है। सुशासन बाबू को अपनी छबि मजबूत करने में तो इससे फायदा मिल रहा है लेकिन आर्थिक तौर पर सरकार को इस मोर्चे पर झटका लग रहा है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर वो ये काम कर ही क्यूं रहे हैं। इसी ब्लॉग में एक स्थानीय पत्रकार के हवाले से ये भी लिखा है कि अवैध शराब का कारोबार पार्टी फंड में ज्यादा पैसा लेकर आता है। नीतीश अगले लोकसभा चुनाव में खुद को मोदी की टक्कर में खड़ा मान रहे हैं, यही वजह है कि वो अगले चुनाव के लिए पैसा जुटाने में लगे हुए हैं।

ये तर्क कमजोर दिखाई पड़ सकता है लेकिन नीतीश कुमार की महत्वकांक्षा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नीतीश कुमार ने बिहार लोकसभा चुनाव में अपनी हार को मोदी के खिलाफ हुई हार माना और लालू जैसे धुर विरोधी से हाथ मिलाने में भी गुरेज नहीं किया। केंद्र की राजनीति में मोदी के खिलाफ कोई और चेहरा विपक्ष की तरफ से नहीं दिखाई पड़ता है। मुलायम, ममता, जयललिता और नीतीश कुमार जैसे चेहरे स्थानीय राजनीति में बड़े हो सकते हैं लेकिन जब केंद्र की राजनीति की बात आती है तो ये चेहरे मोदी के कद के दिखाई नहीं पड़ते।


इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि दो साल पहले मोदी भी क्षेत्रीय राजनीति का ही चेहरा थे। गुजरात में रहते हुए उन्होंने खुद को राष्ट्रीय पटल पर एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करने में कामयाबी हासिल की थी। नीतीश कुमार मोदी की ही राह पर चल रहे हैं। मोदी मंत्र को अपनाते हुए पहले उन्होंने अपने प्रचार को बिलकुल उन्हीं के अंदाज में सामने रखा। उन्हें किसी समय में मोदी की ही टीम का हिस्सा रहे प्रशांत किशोर का साथ भी मिला। गौर करने वाली बात ये है कि प्रशांत औपचारिक तौर पर बिहार सरकार के सलाहकार भी हैं। नीतीश के शराबबंदी के फैसले को भी बहुत दूरदर्शिता के साथ लिए गए फैसले के बजाए चुपचाप मोदी मंत्र को मान लेने के तौर पर भी देखा जा सकता है। यही वजह है कि बेशक गांधी के बहाने ही सही नीतीश कुमार को तानाशाह कहलाने में भी कोई हर्ज नहीं है।