ओलंपिक में पदकों की चाह ने कई सवाल खड़े किए
हैं। पदकों की ये चाह पिछले दो ओलंपिक्स में किए गए निशानेबाजों, पहलवानों और
मुक्केबाजों के प्रदर्शन के बाद शुरू हुई थी। इस ओलंपिक में अभी तक पदकों का खाता
नहीं खुलना भारतीय खेल प्रेमियों को परेशान कर रहा हैं। ये बहस शुरू हो गई है कि
आखिर हम खेलों में अमेरिका और चीन से इतने पिछड़े हुए क्यूं हैं? खेलों में हमारी
खस्ता हालत कुछ खास वजहें हैं और यदि इन खामियों को दूर कर लिया जाए तो भारत को भी
पदक तालिका में इक्का दुक्का पदकों के लिए लार नहीं टपकानी पड़ेगी।
![]() |
Courtesy- Kirtish/BBC Hindi |
हमारे खिलाड़ी जबरदस्त मेहनत करते हैं। बेहतरीन
खिलाड़ियों को छांटने की कोशिश भी होती रही है लेकिन इस सबके बीच राजनीति का कीड़ा
हमारे खेलों को भी खोखला कर देता है। ये सारी बातें पहले भी होती रही हैं लेकिन
चीन और अमेरिका की तरह पदकों का ढेर नहीं लगा पाने की वजह ये राजनीति नहीं बल्कि
कुछ और है। दरअसल हमारे देश में खेलों को कभी भी स्कूल शिक्षा का गंभीर हिस्सा
नहीं माना गया है। सरकारी स्कूल में एक-आध स्पोर्ट्स टीचर या पीटी टीचर रखने की
परंपरा तो रही है लेकिन यहां भी सभी स्कूलों की बात नहीं हो रही है। औपचारिकता के
तौर पर पीटी टीचर भी चंद एक स्कूलों को ही नसीब हो पाता है।
ज्यादातर स्कूलों में तो पढ़ाने के लिए शिक्षकों
के टोटे हैं तो स्पोर्ट्स के लिए शिक्षक की बात को तो कोई गंभीरता से लेगा भी
नहीं। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में खेल प्रतिभाएं नहीं है। आप आज भी कई छोटे
शहरों में चले जाएँ तो मैदानों पर आपको बेहतरीन फुटबॉल या बैडमिंटन खेलते खिलाड़ी
मिल जाएंगे। इस बात को पढ़ते हुए यदि आपके जेहन में ये बात आए कि जहां जाएं वहां
क्रिकेट खेलते ही खिलाड़ी मिलते हैं तो भी आप गलत नहीं है। क्रिकेट की अपनी
लोकप्रियता है और साथ ही साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे देश की एक साख भी है।
यही वजह है कि हमारे युवाओँ में क्रिकेट को लेकर एक दीवानगी रहती है।
कुछ सालों पर क्रिकेट के बेहतरीन खिलाड़ी रहे
नवजोत सिंह सिद्धू से एक कार्यक्रम के दौरान इसी मुद्दे पर बहस हो रही थी।
उन्होंने हॉकी और क्रिकेट की लोकप्रियता पर दर्शकों के बीच से आए एक सवाल का
बढ़िया जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि वो बचपन में वो खुद हॉकी के दीवाने थे।
वही नहीं बल्कि हॉकी का कोई भी मुकाबला उस जमाने के दूसरे युवा भी नहीं छोड़ते थे।
मैदानों पर जगह पाने के लिए वैसी ही मारा मारी होती थी जैसी आज क्रिकेट के लिए
होती है। इसकी बड़ी वजह ये थी कि उस दौर में हॉकी में भारत बेहतरीन परफॉर्म करता
था। ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतते थे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत का दबदबा
था। उस वक्त हॉकी के खिलाड़ी आम लोगों के बीच खासे लोकप्रिय भी होते थे, ठीक वैसे
ही जैसे आज क्रिकेटर्स होते हैं।
सिद्धू की इस बात में दम इसीलिए भी दिखता है
क्यूंकि पिछले कुछ सालों में सुशील कुमार, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा, लिएंडर
पेस, विजेंदर कुमार जैसे तमाम खिलाड़ियों ने अपने अपने खेलों की लोकप्रियता बढ़ाने
में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वो भी अब किसी सेलीब्रिटी से कम नहीं हैं। अपने
खेलों को लोकप्रिय बनाने के लिए इन्होंने कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किए या सरकार
से गुहार नहीं लगाई बस अपने-अपने खेलों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धूम मचाई। उनके
द्वारा लाए गए मैडलों ने अन्य युवाओं में भी इन खेलों को लेकर न सिर्फ रुचि जगाई
बल्कि एक नए जज्बे को पैदा किया। निजी तौर पर किए गए इन प्रयासों से भारत में
खेलों को एक नई उर्जा मिली लेकिन एक बार फिर हम पदकों के टोटे से झूझ रहे हैं।
पिछले ओलंपिक के बाद भी उम्मीद जागी थी कि अब
भारत अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में अपने स्तर को सुधारते हुए उत्तरोत्तर आगे
बढ़ेगा। ऐसा नहीं है कि आने वाले समय में अच्छे खिलाड़ी हमें नहीं मिलेंगे लेकिन
ये भी सच है कि हर बार खिलाड़ियों के अच्छे प्रदर्शन से बनने वाले माहौल को हम
भुना नहीं पाते हैं। हम अमेरिका और चीन की तरह पदकों की उम्मीद तो करते हैं लेकिन
हमारी स्पोर्ट्स पॉलिसी और खास तौर पर स्कूल स्तर पर स्पोर्ट्स एजूकेशन इन देशों
के इर्द गिर्द भी नहीं दिखती।
स्पोर्ट्स एजुकेशन की खस्ता हालत के बारे में
जानकारी दी, इस दिशा में लगातार प्रयास कर रही संस्था से जुड़े हुए पीयूष जैन साहब
ने। उन्होंने बताया कि कुछ प्रयास होते भी हैं तो वो बर्बाद हो जाते हैं। उदाहरण
के लिए मध्य प्रदेश की कई पंचायतों में अच्छे जिम बनाए गए लेकिन वो आज तक बंद ही
पड़े हैं। स्कूलों में स्पोर्ट्स एजूकेशन को कोई तवज्जो ही नहीं दी जाती है। हम
पढ़ाई लिखाई के बोझ में इतने दबे रहते हैं कि खेलों की प्रतिभा को कुछ मानते ही
नहीं है।
ये बात सही है कि किताबी ज्ञान और पढ़ाई लिखाई का
अपना महत्व है लेकिन यदि खेल प्रतिभाओं को सामने लाना है तो इन्हें स्कूल स्तर से
ही पहचानने की जरूरत है। ये कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है हम सभी जानते हैं कि देश
में खेलों के प्रति तमाम युवाओं और बच्चों का जबरदस्त रुझान होता है लेकिन उन्हें
वो प्रोत्साहन नहीं मिलता जो खेलों को गंभीर करियर के तौर पर भी सामने रखे। भिवानी
में बॉक्सिंग के निजी प्रयास हो या महाबली सतपाल की कुश्ती एकेडमी से निकलती
प्रतिभाएं हों, इस तरह की गंभीर एजूकेशन के कितने बेहतरीन परिणाम हो सकते हैं इसके
परिणाम भी हमारे सामने हैं। यदि यही प्रयास सरकार की तरफ से गंभीरता से लागू किए
जाएं तब आप सचमुच चीन और अमेरिका जैसे पदकों की आशा कर सकते हैं।
![]() |
Courtesy- Shekhar Gurera |
अभी खेलों में जो प्रयास होते हैं वो बहुत ही
निजी स्तर पर होते हैं। कोई खिलाड़ी जब नेशनल लेवल पर खेल लेता है तब उसे कुछ
सरकारी सुविधाएं दी जाती हैं। इसके बाद भी सिस्टम इतना आसान नहीं है कि खिलाड़ियों
को प्रोत्साहन मिल पाए। मैं खुद ताइक्वांडों का खिलाड़ी रहा हूं और राज्य स्तर पर
तीन प्रतियोगिताएं भी खेलने का अवसर मिला। मेरे कोच करीब 20 से 22 नेशनल मुकाबलों
में हिस्सा ले चुके थे और इनमें से 14 में उन्हें गोल्ड मैडल भी मिला था। उनके
दयनीय जीवन और दुखद अंत का मैं खुद चश्मदीद रहा हूं। ये कहानी अपने आप में एक अलग
विषय है लेकिन ये कोई अकेली कहानी नहीं है।
कुछ सालों पहले किसी जमाने में देश के जाने माने
तीरंदाज रहे लिंबाराम की खराब हालत पर उनका इंटरव्यू करने का मौका मिला था। मुझे
आश्चर्य हो रहा था कि किसी जमाने में अखबारों में छाया रहने वाला ये नाम और ये
चेहरा आज किसी गैराज में रहने को मजबूर है। ये भी कोई अकेली कहानी नहीं है
खिलाड़ियों की बुरी हालत के ऐसे कई किस्से आपको अपने इर्द गिर्द भी मिल जाएंगे। इन
पर भी गौर करना इसीलिए जरूरी है क्यूंकि खेल जगत की ऐसी प्रतिभाओं का भी इस्तेमाल
करने की कोई पॉलिसी हमारे पास नहीं है।
स्कूल एजूकेशन में यदि खेलों को गंभीर तौर पर
शामिल करना है तो ऐसी प्रतिभाओं का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। पीयूष जैन जैसे
लोग जो प्रयास कर रहे हैं उसे सरकार का और समर्थन मिलना चाहिए और तंग हाली में जी
रहे अनुभवी खिलाड़ियों का भी सही इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है। खेल प्रतिभाएं
हमारे देश की मिट्टी में है उन्हें तराश कर जब सामने लाया जाता है तो कई ऐसे
खिलाड़ी निकलते हैं जो देश का नाम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोशन कर देते हैं। इन प्रतिभाओं
को किस्मत के हाथों पर निखरने के लिए छोड़ देने के बजाय सरकार को स्कूल स्तर से ही
गंभीर प्रयास करने की जरूरत है। यदि ऐसा होता हो तो विश्वास मानिए आपको इक्का
दुक्का पदकों की आस नहीं लगानी पड़ेगी बल्कि आप अमेरिका और चीन की तरह पदकों की
दौड़ में भी शामिल हो पाएंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें