शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

यूपी में ब्राह्मण के शंखनाद और राम नाम की गूंज


पहले कांग्रेस ने अपनी छबि के विपरीत जाते हुए यूपी में ब्राह्मण कार्ड खेला। शीला दीक्षित और राज बब्बर को यूपी में चेहरा बनाकर उतार दिया। अब समाजवादी पार्टी ने भी अपनी छबि से विपरीत काम करते हुए राम की शरण ले ली। मुल्ला मुलायम के नाम से मशहूर नेता जी को भी अब राम नाम जपने की जरूरत महसूस हो रही है। कांग्रेस के लिए रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अपने आंकलन से बताया कि इस दफा चुनाव में ब्राह्मण मतदाता महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। समाजवादी पार्टी के राजनैतिक पंडितों को बीजेपी की हवा के बीच हिंदू मतदाताओं को रिझाने की चिंता सता रही है। वहीं बीजेपी ने भी जय श्रीराम के नारे को बुलंद कर ये अहसास करा दिया कि राम का नाम उसके लिए भी उत्तर प्रदेश चुनाव की नैया पार लगाने वाला है। राहुल गांधी की नहा धोकर हनुमान जी की पूजा पाठ वाली तस्वीरें भी आप नहीं भूले होंगे। एक बात तो साफ है कि सभी राजनैतिक दलों की नजर इस बार हिंदू वोटों पर लगी हुई है। खास तौर पर ब्राह्मण वोटों को अपनी तरफ करने का प्रयास सभी दलों की तरफ से किया जा रहा है। इसकी अहम वजह है 2014 लोकसभा चुनाव के नतीजे। इस चुनाव में ये वोट बैंक बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत बना। यदि मोदी और बीजेपी का वही असर यूपी पर देखने को मिला तो विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को एक बड़ी जीत हासिल होगी। राम नाम की नैया पर सवार बीजेपी के पीछे पीछे समाजवादी पार्टी जैसे राजनैतिक दल भी अब इस जप के महत्व को समझ रहे हैं।

विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दशहरे पर ‘जय श्री राम’ का नारा बुलन्द करने के साथ ही ‘राम संग्रहालय’ का निर्माण करवाने का निर्णय लेकर अयोध्या को एक बार फिर सुर्खियों में ला खडा किया। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी ने भी रामायण सर्किट की सौगात देकर राम भक्तों को रिझाने की कोशिश की है। विपक्ष इसे नरेंद्र मोदी की सोची समझी रणनीति का हिस्सा मान रहा है तो बीजेपी का कहना है कि पार्टी ने मंदिर मुद्दे को कभी भी राजनीति से जोड़कर नहीं देखा। राम मंदिर को अपने मेनिफेस्टो का अहम हिस्सा बताने वाली बीजेपी की राम मंदिर पर ज्यादा जिम्मेदारी है लेकिन अभी तक इस मुद्दे पर बीजेपी निशाने पर ही रही है। मंदिर से शुरू हुए और म्यूजियम तक पहुंचे के आरोप भी बीजेपी पर लगने लगे हैं। विनय कटियार जैसे नेताओं ने भी इस मुद्दे पर अपने तेवर तल्ख कर लिए। 

बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती कहती हैं कि चुनाव के मौके पर बीजेपी और सपा दोनों मिलकर अयोध्या मुद्दे को गरम करना चाहते हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए सपा अध्यक्ष मुलायम यादव को हर चुनाव में ‘बाबरी विध्वंस’ की याद आती है तो दूसरी ओर उनके मुख्यमंत्री पुत्र हिन्दुओं में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए अयोध्या में थीमपार्क बनवाने जा रहे हैं। दूसरी तरफ ब्राह्मणों को अपना चेहरा बनाने वाली कांग्रेस का आरोप है कि चुनाव के समय ही रामायण संग्रहालय बनवाने की याद क्यों आई। इसके आगे पीछे भी इस योजना पर काम किया जा सकता था। 

बीजेपी ने कहा कि अयोध्या और श्री राम को हमने हमेशा से आस्था का विषय माना है। पार्टी ने इसे राजनीति या चुनाव से जोड़कर कभी नहीं देखा है। बीजेपी का ये भी कहना है कि विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं है इसलिए वो अनावाश्यक रूप से आरोप लगाते रहते हैं।

बयान बाजी की राजनीति तो होती रहेगी लेकिन जाति और धर्म की राजनीति यूपी की राजनीति का एक अहम सच है। इस सच को कोई भी राजनीतिक दल अनदेखा नहीं कर सकता पर अचानक यूपी की पूरी सियासत में ब्राह्मण बेहद महत्वपूर्ण हो गए हैं। 2017 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के मद्दे नजर क्या सपा क्या कांग्रेस सभी ब्राह्मणों को रिझाने की जुगत में लगे हुए हैं। उत्तर प्रदेश में 10 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण उत्तर प्रदेश में किसी भी पार्टी की सियासी नांव किनारे लगाने के लिहाज से एक हैसियत रखते हैं। जिस तरफ ब्राह्मण मुड़ जाते हैं उस पार्टी की नैय्या पार लग जाती है। हांलाकि ये भी एक तथ्य है कि लंबे समय से उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण हाशिए पर आ गए थे। 

इस बार पूरा चुनावी गणित उल्टा हो गया है। ब्राह्मण वोट को बीजेपी बाय डिफॉल्ट अपने साथ मानती है और इसीलिए उसका जोर दलितों को लुभाने पर है। करीब 22 फीसदी दलितों का साथ बीजेपी के पास आ जाए तो सूबे में उसकी सरकार होगी। 2007 में दलितों की मसीहा मायावती ने 86 ब्राह्मणों को टिकट दिया था और इस वोट बैंक की ताकत भी सियासी दलों को दिखाई थी। बेशक वो सपा और बीजेपी पर सवाल खड़े करें लेकिन वो भी राम नाम की सियासत के खिलाफ खुलकर कुछ नहीं बोल पाएंगी। मायावती का ध्यान भी ब्राह्मण वोटों पर लगा है। वहीं अभी तक मुस्लिम, यादव और दूसरे ओबीसी की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी भी ब्राह्मणों को रिझाने में जुटी है। 

पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा ने लगभग 40 ब्राह्मण सम्मेलन किए थे। बसपा पार्टी ने नारा दिया था, ब्राह्मण शंख बजायेगा, हाथी दिल्ली जायेगा, लेकिन मोदी की आंधी में ब्राह्मण के बीजेपी में जाने से बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था। 1990 पहले ब्राह्मण को कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था। 1990 के आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों ने बीजेपी का दामन थामा जिससे पार्टी सीधे 221 सीट जीतकर सूबे की सत्ता पर काबिज़ हो गई लेकिन उसके बाद बीजेपी में ब्राह्मणों की अनदेखी होने लगी। एक समय ऐसा भी आया जब ब्राह्मणों की हालत पार्टी में पतली हौ गई। ब्राह्मणों का भी बीजेपी से मोह भंग हुआ और इसका नतीजा रिजल्ट 2007 और 2009 में देखने को मिला। बीजेपी महज 10 लोकसभा सीट और 40 विधानसभा सीटों पर सिमट कर रह गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी जीत के जिस शिखर पर दिखाई पड़ती है उसके पीछे उसे मिला ब्राह्मणों का साथ ही है। 

2014 के नतीजों ने सभी राजनैतिक दलों को ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाऩे की जरूरत महसूस करवाई है। इसके साथ ही अभी तक मुस्लिम मतदाताओं के पीछे भागने वाले राजनैतिक दलों को हिंदू मतदाताओं की याद आ रही है। हिंदू मतदाता जातियों में बंटा हुआ है और यही वजह है कि उस सवर्ण दलित, पिछड़े, अति पिछड़े जैसे अलग-अलग भाग देखने को मिलते हैं। जब राम नाम की बात आती है तो आस्था जाति से ऊपर उठकर होती है। सवर्णों के साथ के अलावा राम का नाम इन हिंदू मतदाताओं को भी अपनी तरफ आकर्षित करने का एक जरिया है। मुस्लिम मतदाता बीजेपी की तरफ न के बराबर जाएगा ऐसे में तमाम दूसरे राजनैतिक दल बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। एमआईएम जैसे दलों की घुसपैठ हो या फिर सपा और कांग्रेस के बीच चुनाव का कन्फ्यूजन, करीब 18 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का बंटना तय है। लोकसभा चुनाव में उनका पूरा का पूरा वोट बीजेपी के खिलाफ रहा लेकिन इसके बावजूद बीजेपी को बड़ी कामयाबी मिली। बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की ये कोशिश कितनी कामयाब होगी ये कहना तो मुश्किल है लेकिन ये तय है कि चाहे कांग्रेस हो या समाजवादी पार्टी वो चुनाव से पहले ही अपनी रणनीति के जरिए बीजेपी को चुनाव जीता हुआ दिखा रही है।



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