शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

National Herald Scam..Indore, Bhopal, Mumbai scams and history..

कच्चा तेल सस्ता, पेट्रोल डीजल क्यूं महंगे.. देखिए खबरों में खास

Is Kejriwal trying to save his officer?

क्या मंदिरों में गैरब्राह्मण हो सकते हैं पुजारी?

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

ISIS Targeting India Youth: Indian Oil Jaipur Managers Connections with IS!!!

Aaj ka Mudda: Ignored Parents.. How we are behaving with our elders?

Jia Khan CBI Chargesheet.. Role of Parents..

Excellent job done by Indian Army in Chennai.. Live on IBN 7

सोमवार, 30 नवंबर 2015

salman ahamad, pakistan, mr. universe 2015


it's not about criticizing pakistan but this young sportsman expressed his views in an impressive way. it's another eg. showing the strength of social media. salman ahmad is pakistani young sports man who won the titleof runner up for mr. universe 2015

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

Baba Neeb Karori (Neem Karoli) Steve Jobs Mark Zukerburg Julia Roberts

Nostradamus' predicted Paris Attack long before???

Cyber Bomb of ISIS on Britain!!!

Cabinet of Dawood Ibrahim- Exclusive Neeraj Kumar-Ex CP Delhi Police

Global Fight against ISIS- Hum To Puchhenge Prime Time Show on IBN7

ISI's ill mission on BJP and VHP

सोमवार, 6 जुलाई 2015

योग ही जीवन है

21 जून को "अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" घोषित किया गया है। 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 193 सदस्यों द्वारा 21 जून को "अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से पारित किया गयाजो संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी दिवस प्रस्ताव के लिए सबसे कम समय है। इससे पहले 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योग के महत्व पर प्रकाश डाला था और ये प्रस्ताव सभी सदस्यों के सामने रखा था। ये वाकई बहुत खुशी की बात है कि योग के बारे में हम फिर बात कर रहे हैं। योग का प्रचार करने वाले भी एक ही मंच पर आ रहे हैं और योग के प्रति जागरूकता बढ़ाने की ओर भी ये एक महत्वपूर्ण कदम दिखाई देता है। मोदी जी ने सत्ता में आने के बाद गांव शहर की स्वच्छता के लिए अभियान की शुरूआत की थी। उसे एक उत्सव का रूप दिया था। इसके लिए बहुत प्रचार प्रसार भी किया गया और अब भी इस अभियान को आगे बढ़ाया जा रहा है। इसी धूम धाम के साथ योग को भी उत्सव का रूप दिया गया है और ये भी एक सराहनीय पहल कही जानी चाहिए। महत्वपूर्ण प्रश्न ये उठता है कि चाहे बाहर की सफाई हो या योग से भीतर की सफाई हो इस मकसद को क्या सही तरीके से लोगों तक पहुंचाने में कामयाबी मिल रही हैये महत्वकांक्षी पहल है लेकिन क्या इसे सही तरीके से अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है?
स्वामी विवेकानंद
यूं तो भारतवर्ष का ठीक-ठीक इतिहास कोई नहीं बता सकता क्यूंकि हम पिछले कुछ 400-500 सालों के इर्द-गिर्द ही अपने इतिहास को खंगालते रहते हैं। हमारे इतिहास को मिटाने और दबाने की भी बहुत कोशिशें की गईं और बहुत हद तक आज के हालात देखकर ये लगता भी है कि उन कोशिशों में आने वाले समय तक लोगों को भ्रमित रखने की कितनी ताकत थी। वेदांत इतिहास की कहानी तो नहीं कहते लेकिन हमारी जड़ को जरूर समझाते हैं। समय-समय पर कई महापुरूषों का अवतरण हुआ और उन्होंने भारतीय वैदिक परंपरा को जन जन तक पहुंचाने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया। उन लोगों को निराशा हाथ लगेगी जो अभी तक की बातों को पढ़ने के बाद ये सोच रहे हैं कि वर्तमान के प्रयासों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। स्वामी चिन्मयानंद से ऑस्ट्रैलिया में एक इंटरव्यू के दौरान प्रश्न पूछा गया था कि भारत में जाति, धर्म की जो परिभाषाएं हैं उसे वैश्विक कैसे कहा जा सकता है? भारत में धर्म को लेकर तर्कसम्मत बात नहीं की जाती है? इस प्रश्न के जवाब में स्वामी जी ने बहुत ही सुंदर जवाब देते हुए कहा था कि सिर्फ भारत में ही धर्म को लेकर तर्कसम्मत बात की जाती है बाकी देशों में धर्म का मूल तत्व ही अभी किसी को समझ में नहीं आया है। वेदांत की बातों को घुमा फिराकर नए ग्रंथों की रचना तो कर ली गई लेकिन उन्हें समझाने की प्रक्रिया पर ध्यान नहीं दिया गया। जैसे अलग अलग काल परिस्थिती के लोगों के लिए भोजन, परिधान आदि अलग अलग होते हैं वैसे ही ईश्वर प्राप्ति के मार्ग अलग अलग बना लिए जाते हैं लेकिन वे जाते एक ही तरफ हैं और उनके सिद्धांत भी एक ही होते हैं। आप चर्च में हो, मस्जिद में या मंदिर में सिर्फ कर्मकांड और बाहरी आवरण में बदलाव है मूल रूप से रास्ता एक ही है। ये रास्ता वेदांत दर्शन या हमारा योग शास्त्र ही दिखाता है।
स्वामी जी ने इस बात को भी स्वीकार किया था कि सही तरीके से वेदांत को जानने वालों की कमी की वजह से आज बहुत सी भ्रांतियां भारत में फैल गईं हैं। वर्तमान में अंधविश्वास या आस्था के नाम पर खिलवाड़ करने वाले लोगों ने इसी कमी का फायदा उठाया और पूर्ण रूप से निजता के विषय आध्यात्म और ईश्वर प्राप्ति को व्यवसाय का स्वरूप दे दिया। विवेकानंद अपने समय में इस बात को समझ गए थे और वेदांत की अद्भुत शक्ति के बावजूद उसके पूरी दुनिया में होते उपहास से व्यथित भी थे। यही वजह रही कि बिना संसाधनों और बिना किसी सुख सुविधा के वे यायावर की तरह पूरे देश का भ्रमण करते रहे। सचमुच योग को विश्व के सामने रखना का उनका जुनून उन्हे शिकागो धर्म सभा में ले गया। इस भाषण के बाद पूरी दुनिया में उनके द्वारा वेदांत दर्शन के प्रचार और मात्र 39 वर्ष के अपने छोटे से जीवन काल में तमाम ग्रंथों के भाष्य से पूरी दुनिया परिचित ही हैं। आज एक बार फिर उन्हीं विवेकानंद को याद किया जा रहा है, योग की शक्ति को भी याद किया जा रहा है जितने भी संस्थान इन महान योगियों द्वारा स्थापित किए गए थे उनमें कार्यरत कर्मचारी भी अपनी अपनी तरह से इस उत्सव का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
स्वामी शरणानंद
अब महत्वपूर्ण प्रश्न ये है कि चाहे वे विवेकानंद हों, योगानंद हों, स्वामी चिन्मयानंद हों या ऐसे कई महान योगी हुए जिन्होंने योग का सही मायने में प्रचार किया, इनकी तरह योग को जानने वाले और मानव कल्याण के लिए समर्पित लोग हमारे बीच क्या आज भी हैंहमें किसी भी काम को सीखने के लिए विशेषज्ञों की जरूरत पड़ती है। क्या योग को सचमुच जानने वाले विशेषज्ञ हमारे पास हैंइसका उत्तर अतीत के तमाम योगीजन कई मौकों पर दे चुके हैं। उनका कहना था कि हमारा वेदांत दर्शन हमें अद्वैत सिखाता है। दूसरा कोई नहीं है, यानि भेद का मिट जाना ही अद्वैत है। वेदांत दर्शन के सारतत्व को गीता में भगवान की वाणी के तौर पर रखा गया और वहां भी योग को बहुत ही रोचक और सहज अंदाज में समझाया गया। कालांतर में महान ऋषि पतंजलि ने योग को सूत्रों में ढाला और समझाने की कोशिश की। फिर इन ग्रंथों को इस तरह से लिखा गया ताकि किसी भी काल परिस्थिती का व्यक्ति इसके सार तत्व को समझ पाए। संकेतों और कथाओं के आधार पर लिखे जाने वाले इन ग्रंथों के जानकार भी बनते चले गए और उन्हें समाज में विशेष सम्मान भी दिया गया। ये परंपरा बहुत समय तक चलती रही लेकिन फिर विदेशियों की कुदृष्टि और एक के बाद एक हुए हमलों ने एक जबरदस्त हलचल पैदा कर दी। अतीत के योगियों ने पहले भी इस बात को कह दिया था कि इस तरह कि स्थितियां पहले भी बनती रही हैं और आगे भी बनती रहेंगी। हमारी संस्कृति की जड़ वेदांत को नहीं छोड़ेंगे तो हम हजार बार गिरकर फिर खड़े हो जाएंगे। गिरावट का ये दौर आया और स्वाधीनता के बाद से हम लड़खड़ाते लड़खड़ाते खड़े हो रहे हैं। हमारे मूल तत्व वेदांत का किसी धर्म या मजहब से कोई लेना देना नहीं बल्कि इन्हें समझ लेने वालों के नाम पर तो लोगों ने खुद ही धर्म बना डाले।
योगी का कोई धर्म मजहब नहीं होता और न ही योग का। योग धर्म का मूल है। जब आप के भीतर वासनाओं का उठना बंद हो जाता है, आपके विचारों का कोलाहल थम जाता है आप किसी से प्रेम या घृणा नहीं करते हैं वरन हर परिस्थिति में आप सम रहते हैं तो ये योग की स्थिति होती है। हमारे वेदांत दर्शन और गीता को पढ़ेंगे तो आप जान जाएंगे कि इन्ही बातों को समझाने के लिए ये प्रयास किए गए थे। कुछ विद्वानों ने मोहवश अपने बच्चों तक ही इसे सीमित रखने का प्रयास किया। उन्होंने इसे अपनी बपौति बनाने की कोशिश की और अपने ही बच्चों को इसकी शिक्षा दी। ये ज्ञान को अपने पास जकड़कर रखने की राजनीति की शुरूआत थी। जैसे ही ज्ञान में मिलावट होती है वैसे ही उसका ह्रास होने लगता है। हमारे बेशकीमती योग के साथ भी यही हुआ। योग की प्राप्ति जिन्हें नहीं हुई थी उन्होंने भी गलत सलत योग सिखाना शुरू कर दिया। जो खुद भ्रमित है वो कैसे किसी को राह दिखा सकता है। हुआ भी यही धीरे धीरे योग धर्म विशेष का बन गया, फिर कुछ लोगों ने खुद को इससे दूर करना शुरू कर दिया तो कुछ लोगों ने बिना इसे जाने समझे इसे अपने अहं से जोड़ लिया।
आज एक प्रयास हो रहा है लेकिन यहां समत्व को प्राप्त कितने योगी आपको समाज का नेतृत्व करते दिखते हैं? स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में हाथ पांव मोड़कर शारीरिक जिमानास्टिक का नाम योग नहीं है। योग तो मन में उठने वाली विचारों की तरंगों के पूरी तरह रुक जाने और एक ईश्वर में या ओंकार में स्थित होने का नाम है। जो प्रश्न करते हैं ऐसा कैसे हो सकता हैउन्हीं लोगों के लिए वेदांत दर्शन, उपनिषद और फिर महान पुस्तक गीता को लिखा गया, लेकिन हमने इन्हें कपड़े में लपेटकर कर मंदिर में रख दिया और अपने धर्म की बपौति बना लिया। जो इनका विरोध कर रहे हैं वे तो मूर्ख हैं ही जो इन्हें अपना बताकर फूले नहीं समां रहे हैं वे भी मूर्ख ही हैं। योग हर मानव मात्र के उत्थान के लिए है, लेकिन राजनीति और व्यवसाय के हावी होने की वजह से इसका बहुत ही नाटकीय रूप हमारे सामने आ रहा है। जब बुद्ध निकले थे तो किसी यूएन का ठप्पा उन्हें नहीं लगाना पड़ा था और योग को उन्होंने सिर्फ देश ही नहीं विदेशों तक पहुंचा दिया था। जिन्हें योग और बुद्ध के संबंध को समझना है उन्हें भी वेदांत का रुख करना होगा। बुद्ध ने उस समय सही ज्ञान के नाम पर मिलावट करने वाले लोगों से बचने के लिए कहा था। आज भी कमोबेश वैसी ही स्थिती है योग तो आवश्यक है लेकिन उसके नाम पर यदि भोग में ही लगे हुए हैं तब तो बेड़ा पार लगना मुश्किल है।
योगानंद परमहंस
योग के आवश्यक और अनावश्यक होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। असली प्रश्न है क्या योग पढ़ाने वाले खुद योग समझ पाए हैं? यदि नहीं तो क्या खाक योग का प्रचार होगा और क्या खाक योग की महिमा दुनिया गाएगा। राजनीति हमेशा योग के सामने बौनी रही है। राजपाट छोड़ने वाले बुद्ध को राजनेताओं की जरूरत नहीं पड़ी बल्कि अशोक, हर्षवर्धन और ऐसे जाने कितने राजाओँ के बुद्ध के न होने के बावजूद, उनकी शरण में जाना पड़ा। हमें दुनिया जानती भी हमारी इसी खासियत की वजह से है। रोमन, ग्रीक और जाने ऐसी कितनी पुरातन सभ्यताएं अब कहानियों में ही मिलती हैं लेकिन हम आज भी हैं। बेशक टूटा फूटा समझते हैं लेकिन कुछ कुछ बातें तो जानते ही हैं। ऐसा भी नहीं है कि योग को जानने वाले बचे ही नहीं हैं लेकिन पाश्चात्य देशों से हमने जो व्यवसाय की तकनीक सीखी है उसमें चकाचौंध के जरिए लोगों को आसानी से भ्रमित किया जा सकता है।
हम सबकुछ नकल करने लगे हैं। हमारा रहन सहन, सुविधाजनक जीवन, तकनीक तक तो बात ठीक है लेकिन इनके साथ ही जब वेदांत के संस्कारों पर हमला होने लगा तो हालात खराब होने लगे। एक पीढ़ी के खत्म होने में ज्यादा समय नहीं लगता है। छोटे से जीवन में कब हम जवान और फिर बूढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से कुछ बातें सीखती है तो उस दौर में उपलब्ध वस्तुओं, परिस्थितियों और तकनीक के आधार पर अपनी बुद्धि का विकास करती है। सनातन परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी योग को जीवन के अनिवार्य अंग के रूप में हस्तांतरित किया जाता था। आज योग के नाम पर भी भोग की ही दुकानें देखने को मिलती है। योग को कारपोरेट रंग देकर इसे दुकान पर बिकने वाली वस्तु बना दिया गया है। जो लोग आज योग के बहुत ही सतही रूप को अपनाते भी है तो वो भी सुंदर और सुडौल दिखने के लिए। दरअसल योग का मतलब प्रबल इच्छाशक्ति के साथ वासनाओं और चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः शमन बताया गया है। ये उसी व्यक्ति के लिए संभव हो सकता है जिसका शरीर भी स्वस्थ हो। स्वस्थ शरीर योगी के लिए एक साधन मात्र होता है जबकि आज तो योग का मकसद ही जैसे स्वस्थ शरीर बनाना भर रह गया है। योग को समझेंगे तभी योग को समझा पाएंगे। ये विवेकानंद के युग में भी असंभव कार्य लगता था। शंकराचार्य के समय तो ये और भी दुष्कर काम था लेकिन बिना किसी प्रचार प्रसार और तकनीक का इस्तेमाल किए उन्होंने इसकी हानी को खत्म करते हुए इसकी पुनर्स्थापना की। हर युग में इसी तरह योग सिखाने के तरीकों में मिलावट हो जाती है। इसी तरह सिखाने वालों की गुणवत्ता भी गिरती जाती है।
स्वामी चिन्मयानंद
फिर क्या किसी अवतार का इंतजार करना चाहिए? स्वामी विवेकानंद और उनकी तरह कई अन्य योगी ये बात बहुत स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि हम सब में वही असीम संभावनाएं हैं जो बुद्ध में या शंकराचार्य में थी। ठीक इसी तर्ज पर स्वामी शरणानंद का विचार था कि हम सभी को वो महान जीवन मिल सकता है जो कभी भी किसी भी महापुरूष को मिला है। अपना चेहरा चमकाना या भक्तों की भीड़ जमा कर लेना योग नहीं है ये तो भोग की ही पराकाष्ठा है जिसका अंत किसी अन्य भोग की तरह कष्ट में ही होता है। आज के दौर में भ कुछ संतों ने सराहनीय काम किया है और बहुत हद तक वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाया है लेकिन योग का राजनीति से कोई मेल नहीं है। इसे आम जन से जोड़ने के लिए प्रचार प्रसार से ज्यादा उस समर्पण की जरूरत होगी जो बीते समय के तमाम योगियो ने दिखाया है। वाकई भारत में विश्वगुरू बनने की क्षमता है क्यूंकि पाश्चात्य दर्शन में वासनाओं के शमन और विचारों के कोलाहल पर पूर्ण विराम जैसी योग की स्थितियों पर कभी विचार ही नहीं हुआ। पाश्चात्य संस्कृति भोग को बढ़ाने से पल्लवित पुष्पित हुई है। हम उनकी नकल करेंगे तो उन्हें बचाने वाला तो कोई नहीं बचेगा साथ ही हम खुद को भी बर्बाद कर लेंगे। तकनीक और विज्ञान के दौर में मानव सभ्यता के विकास के लिए उपयोगी बातों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योग ही है। हम एटम से एनर्जी बनाते हैं या बम का विवेक योग देता है। ये विवेक और प्रज्ञा का जागरण सिर्फ योग से संभव है। योग भारत की जड़ों में है और इस विरोध या समर्थन की कोई आवश्यकता नहीं। ये सच है कि इसे लेकर यदि पाखंड किया जाएगा तो इसके प्रति लोगों का सम्मान कम होगा और इसे सही तरीके से रखा जाएगा तो किसी जद्दोजहद की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।




बुधवार, 24 जून 2015

मतलब की दुनिया सारी

कैफी आजमी साहब की मशहूर गजल देखी जमाने की यारी…. को मैं बहुत पसंद किया करता था उसकी पहली चार पंक्तियां कुछ इस तरह हैं....
देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी
क्या लेके मिले अब दुनियाँ से, आँसू के सिवा कुछ पास नहीं
या फूल ही फूल थे दामन में, या काँटों की भी आस नहीं
मतलब की दुनिया है सारी, बिछड़े सभी बारी बारी
मैं आपका प्रेम भी चाहूं तो स्वार्थी हूं।

इसे गाने में बहुत मजा आता था और मजेदार बात ये कि इसे मैंने सुना बाद में पढ़ा पहले था। इस गजल से मेरी पहचान हुए तो बरसों बीत गए लेकिन इसके मतलब को समझने की कोशिश अब भी जारी है। मतलबी दुनिया में हर बात का मतलब होता है और हर बात में मतलब होता है। जीवन के उतार चढ़ाव और निजी अनुभवों ने भी की मतलबियों और मतलब की दुनिया से सचमुच रूबरू करवाया है। एक बात जो समझ में आई वो ये कि मतलब की दुनिया सारी। जब दुनिया सारी बोलते हैं, तो क्या अपना-पराया, क्या खास और क्या आम, सब इसकी जद में आ जाते हैं। आज ये बात लिखने की शुरूआत एक रेडियो प्रोग्राम के सुनने के बाद की। एक पोता अपने पिता द्वारा दादा के साथ किए व्यवहार से दुखी था। पिता दादा को चलने में असहाय और भूलने के रोग से ग्रसित होने के बाद परेशान होकर वृद्धाश्रम छोड़ आया था। पोते ने अपने पिता को समझाने के लिए एक रेडियो जॉकी की मदद ली। पिता को बात समझ में आई या नहीं ये तो राम जाने लेकिन मतलब की दुनिया के उदाहरणों के ढेर में ये एक कूड़ा और जुड़ गया। जब तक मां बाप से मतलब होता है तब तक वो सब कुछ लगते हैं। फिर इन बच्चों के जब बच्चे हो जाते हैं तो अपने बच्चों में ये अपनी जान या स्वार्थ को बसा देते हैं। उनसे मतलब है भविष्य में नाम रौशन करवाने का या वंश आगे बढ़ाने का। बुढ़ापे की लाठी तो बहुत ही लोकप्रिय जुमला है भी।
इस उदाहरण को रखना इसीलिए जरूरी है क्यूंकि जब रिश्तों के इतने महत्वपूर्ण किरदारों के बीच ही मतलब या स्वार्थ छिपा है तो फिर बाकी दुनिया की क्या कहें। हाल में मीडिया की एक बड़ी दिग्गज हस्ती से मुलाकात में उन्होंने भी इस बात को स्वीकारा कि जब तक बल्ला चल रहा है ठाठ है। ये बात एक मशहूर क्रिकेटर ने अपने कठिन समय के दौरान एक कमर्शियल में कही थी लेकिन बात बहुत ठीक कही थी। मीडिया के जिस धुरंधर ने क्रिकेटर की ये बात उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल की वो दरअसल अपने रसूख की हकीकत को समझा रहे थे। उन्होंने कहा कि जब तक मैं इस कुर्सी पर हूं तब तक लोग लल्लो चप्पो कर रहे हैं, जिस दिन ये कुर्सी गई चमचों की जमात भी चली जाएगी। स्वार्थ से भरपूर इस दुनिया में हर कोई एक दूसरे से मिलते हुए अपने अपने हितों को साधने में लगा हुआ है। इसमें ज्यादा बुरी बात ये है कि संबंधों की शुरुआत के मूल में ही स्वार्थ है।
व्यवसायिक जगत में स्वार्थ होना या किसी मकसद से मेल मुलाकात करना बहुत सामान्य बात है, बल्कि इसे तो अच्छे व्यवसायी कि निशानी भी माना जाता है कि वह लोगों से कितना ज्यादा मिलता जुलता है, और अपनी संभावनाओं को कितना विस्तारित करता है। मैक्स गुंटेर ने अपनी किताब लक फैक्टर में इसे भाग्य को चमकाने का महत्वपूर्ण तरीका भी बताया है। जहां तक भाग्य का संबंध नई संभावनाओं के व्यवसायिक हितों में परिवर्तित होने तक है ये फार्मूला सौ फीसद काम करता है लेकिन जब ये निजी संबंधों और जीवन में भी घुल जाता है तो ऐसा स्वार्थी इंसान व्यवसायी तो बन जाता है अच्छा इंसान कभी नहीं बन पाता।
मतलब की ये मिलावट दोस्तों या अपने नजदीकी कहे जाने वाले दोस्तों में तो दूर की बात है आपके भीतर बसे परमात्मा की जो छद्म छबि आपने बना रखी है उसमें भी है। आज भगवान के किसी भी मंदिर को ले लीजिए अपने टुच्चे कामों को करवाने के अलावा ज्यादातर लोग ईश्वर की कोई और आवश्यकता ही महसूस नहीं करते। अब प्रश्न ये है कि भाई सब ऐसा ही करते हैं ऐसा ही चला आ रहा है, आपकी परेशानी क्या है? परेशानी सिर्फ इतनी है कि जब हम सब अपने भीतर झांक कर ये सवाल पूछेंगे तो सभी को ये जवाब मिलेगा कि ये स्वार्थ की दुनिया बहुत बदसूरत है और इस दुनिया और इसके उसूलों को बनाने वाला इसे ऐसा तो नहीं बना सकता। निश्यय ही हम लोगों के स्वार्थ ने इसे ऐसा बना दिया है। कबीर ने स्वार्थ पर बहुत कुछ लिखा है उनके अनुसार....

स्वारथ के सबहीं सगे, बिन स्वारथ कोउ नाहि। 
सेवे पंछी सरस तरू, निरस भये उड़ जाहि।। 

जब तक स्वार्थ है, सभी सगे बने रहते हैं। स्वार्थ हटा तो अपने भी पराये बन जाते हैं। वृक्ष जब तक रसदार है पंछी उसका सेवन करते हैं नीरस होते ही पंछी तक उसे छोड़कर दूसरी जगह चले जाते हैं। कबीर ने इसे प्रकृति की भी बाध्यता बताया है, हांलाकि दोहों इत्यादि में उदाहरणों और अलंकरणों के रूप में प्रकृति आदि को लिया जाता है लेकिन ये बात सच है कि मतलब कि दुनिया में जहां नजर दौड़ाइये मतलब ही मतलब है। अब प्रश्न ये है कि मतलब की इस कथित मजबूरी के बावजूद ज्ञानियों ने इसे विष के समान क्यूं बताया है? इस प्रश्न का जवाब ढूंढना कोई मुश्किल काम नहीं है बस अपने जीवन और रिश्तों के प्रति थोड़ा सतर्क होने की जरूरत है। जब आप किसी महत्वपूर्ण पद पर हैं या किसी अन्य के लिए कुछ करने की स्थिती में हैं तब आप पाएंगे लोग मिठाई पर मक्खी की तरह आपके इर्द गिर्द भिनभिनाएंगे। वे मिठाई की तरह आपको दूषित तो करेंगे ही साथ ही आप किसी अन्य के लिए भी हानिकारक होते जाएंगे। दरअसल स्वार्थ की दुनिया में स्वार्थ सिद्धि के लिए किस्म किस्म की तरकीबों का इस्तेमाल किया जाता है, इनमें प्रेम का दिखावा, खास होना, नजदीकी होना, आपके स्वार्थ की सिद्धि करने का लालच होना जैसी अनगिनत तरकीबें हैं। आप यदि खास और आम के चक्कर में पड़े हुए हैं तो आप स्वार्थ सिद्धि के इस जाल में निश्चित ही फंसे हुए हैं। आप यदि लोगों के झूठे प्रेम के जाल में फंसे हैं तो निश्चित ही आपको सच्चा प्रेम कभी नहीं मिलेगा। यदि आप स्वयं स्वार्थी हैं और किसी अन्य से स्वार्थ सिद्धि के लिए छल कर रहे हैं तो निश्चित मानिए ये आपके अपने निजी जीवन और विचारों को भी दूषित कर देगा।
मैं जीवन में जब सत्य की खोज करता हूं तो लोगों के जीवन को पढ़ता हूं। उनके अनुभव को गुरू ज्ञान मानता हूं। ऐसे कई जीवंत उदाहरण मेरे सामने हैं जिन्हें लोग तो सफल और सुखी मानते हैं लेकिन वे स्वयं अवसाद ग्रस्त हैं, अशांत हैं। इनमें से ज्यादातर शराब आदि के नशे में अपने झूठे जीवन को भूलना चाहते हैं। कई मनोचिकित्सकों के चक्कर लगा रहे हैं तो कई इतने बुरे स्तर पर हैं कि अब जैसे है वैसे ही जीवन को सत्य मान कर बैठ गए हैं और अपनी कुंठा को अपने इर्द गिर्द कूड़े की तरह बिखेरते रहते हैं।
सही जीवन क्या है? स्वार्थ से इतर जीवन में क्या करें? जब सब ऐसे ही जीते हैं तो अलग जीने वाले क्या कर लेते हैं? बहुत से प्रश्न अंधकार से भरे मन में उठ सकते हैं। इनके जवाबों पर अलग से काफी कुछ लिखा कहा भी जा सकता है और सच पूछिए तो पहले ही ज्ञानी सब कुछ कह गए हैं, हां हम आजमाते नहीं हैं और इसीलिए इन बातों को फिर से याद करने और याद दिलाने की जरूरत पड़ती है। स्वामी शरणानंद कहते हैं जीवन का मूल उद्देश्य होना चाहिए अपने अधिकारों का त्याग और दूसरे के अधिकारों की रक्षा। चाहे आपका निजी जीवन हो, सामाजिक जीवन हो या व्यवसायिक जीवन जरा इस बात को आजमाने की कोशिश करें। जब आप दूसरों के अधिकारों की रक्षा करते हैं तो सचमुच के प्रेमी और हितैषी अपने आस पास पाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो ज्ञान का ये सूप आपके इर्द गिर्द मित्रों के रूप में मौजूद कचरे को बाहर फेंक देता है। स्वार्थ से निश्चित ही हानि और अशांति है तो निस्वार्थता से निश्चय ही शांति और सत्य की प्राप्ति होती है। धन है और हितैषी नहीं हैं तो आप बस झूठे लोगों की लल्लो चप्पो में अपने जीवन का आनंद तलाशते रहेंगे। धन नहीं भी है और निस्वार्थ होकर काम कर रहे हैं तो कबीर की तरह लोग आपको युगों युगों तक याद रखेंगे। कबीर के ही एक दोहे में जरा निस्वार्थता से जीवन जीने के मतलब को समझिए।
निज स्वारथ के कारने, सेवा करे संसार।
बिन स्वारथ भक्ति करे, सो भावे करतार।।

संसार में स्वार्थ की वजह से सेवा की जाती है। बिना स्वार्थ के की जाने वाली भक्ति, परमात्मा को भी पसंद है|  आपने यदि गौर किया हो तो निस्वार्थता से कार्य करने के मूल में भी ईश्वर को प्रसन्न करने का मतलब आ जाता है। जहां मतलब आ गया समझ लो काम दूषित हो गया। निस्वार्थता की इस स्थिती को पाने के लिए जीवन के हर कार्य में स्वयं के स्वार्थ को देखने की कला आनी जरूरी है। स्वार्थ को देखना कोई मुश्किल काम नहीं। जब स्वार्थ होता है तो वो छिपकर काम करता है। आप किसी भी कार्य को करने के पहले यदि स्पष्ट मन से उसकी कार्य योजना पर विचार करते हैं तो आपको छद्म तरकीबों की कोई जरूरत ही नहीं होती है। जब भी कोई काम करें अपने निज स्वार्थ पर नजर रखें, चाहे वो आपके निजी जीवन में ही क्यूं न हो। जब आप अपने हित से ज्यादा अपने आसपास के लोगों और फिर समाज के हित के बारे में सोचने लगते हैं तो आप सचमुच आनंद के अधिकारी बन जाते हैं। जिन क्षूद्र चीजों को पाने के लिए आप बेवजह के दंद फंद करते हैं वे भी सहजता से आपके चरणों की दासी बन जाती हैं। आप क्यूं नहीं पा लेते? कुतर्की मन के बहुत सवाल होते हैं। हमें ऐसा करने से सचमुच कोई लाभ होगा या नहीं? ये भी स्वार्थ से पैदा हुआ ही सवाल है। निस्वार्थ होकर देखिए सभी सवाल जड़मूल खत्म हो जाएंगे।drpraveentiwari@gmail.com www.satyakikhoj.com 

गुरुवार, 18 जून 2015

ज्यादा पाने की चाह


चाहे आप जो हों, चाहे जितना ज्यादा या कम कमाते हों, चाहे जितने योग्य या अयोग्य, चाहे किसी मजहब या संस्कृति के मानने वाले हों... हम सभी में एक बात सामान्य है कि हम अपनी वर्तमान परिस्थिति से कुछ बेहतर और अधिक पाने की चाह रखते हैं। किसी भी व्यक्ति की सफलता का आंकलन भी उसकी अतीत की परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितियों में आए परिवर्तन के आधार पर किया जाता है। यदि सामाजिक और आर्थिक रूप से कोई अपने बीते समय के मुकाबले बेहतर दिखता है तो उसे सामान्य तौर पर सफल मान लिया जाता है। भौतिक जगत में हम सभी की अपनी वर्तमान परिस्थितियों के मुकाबले भविष्य में बेहतर परिस्थितियां निर्मित करने की आदत के मूल में यही बात होती है। ये भी सत्य है कि आप चाहे जिन हालात में हो और जिस भी हालात में पहुंचने की जद्दोजहद कर रहे हो, वहां पहले से कोई पहुंचा हुआ है और वो इससे इतर अपने लिए कुछ ज्यादा पाने की चाह में  जद्दोजहद कर रहा है।
योगानंद परमहंस
आध्यात्मिक यात्रा ही विवेक की यात्रा है और विवेक पूर्ण विचार निजता का विषय है। जब सही प्रश्न उठें और उनका समाधान अपने भीतर ही मिल जाए तो विवेक का पूर्ण जागरण होता है। दूसरों की गलतियों से सीख लेने वाला, अपनी गलतियों से सीख लेने वालों के मुकाबले अधिक ज्ञानी होता है। हर बात को आजमाकर देखने की आवश्यकता नहीं होती क्यूंकि उनके सामान्य परिणाम उनके अच्छे या बुरे होने को बयां कर देते हैं। उदाहरण के लिए अनियमित दिनचर्या और असंयमित भोजन से होने वाली हानि के लिए इनका अनुभव करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। शत प्रतिशत उदाहरण और नतीजे इनसे होने वाली हानि की ओर इशारा करते हैं। कुछ ज्यादा पाने की चाह आपको सामाजिक रूप से आगे तो दिखाती है लेकिन ये भूख कभी शांत नहीं होती।

स्वामी शरणानंद
लौकिक जगत की प्राप्तियों के संदर्भ में जो सिद्धांत है वो अलौकिक जगत के संदर्भ में नहीं है। लौकिक वो है जो आपकी नजरों के सामने है और अलौकिक वो जो आपकी लौकिक दृष्टि से परे है। अलौकिक यात्रा में कुछ और पाने की चाह आपको कुछ भी नहीं पाकर सब कुछ पा लेने की स्थिति में ले जाती है। आप जो भी कर रहे हैं जिस भी परिस्थिति में हैं और जिस भी योग्य है खुद को बेहतर करते जाएं लेकिन संतुष्टि का भाव तभी आएगा जब आप आध्यात्मिक उन्नति की तरफ उत्तरोत्तर वृद्धि का प्रयास करेंगे। योगानंद परमहंस के शब्दों में आपके वर्तमान में किए गए आध्यात्मिक प्रयास ही भविष्य की हर कामयाबी का आधार होंगे। स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में, कुछ ज्यादा पाने की चाहत करनी ही है तो उस जीवन को पाने की चाहत कीजिए जो कभी भी किसी भी महामानव को मिला है।

रविवार, 11 जनवरी 2015

स्वामी विवेकानंद और युवाशक्ति

स्वामी विवेकानन्द (जन्म- 12 जनवरी, 1863, कलकत्ता (वतर्मान कोलकाता), भारत; मृत्यु- 4 जुलाई, 1902, रामकृष्ण मठ, बेलूर) एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन व क्रम, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। स्वामी विवेकानंद के जन्म के 150 साल हो गए हैं। आज भी वो युवाओं के लिए वो एक आदर्श हैं। आज की भाषा में उनकी जबरदस्त ह्यफैन फॉलोईंगह्ण है। उनकी कई किताबें हैं जो आज भी बेस्ट सेलर की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। पूरे देश में उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ही नहीं बल्कि ढेर सारे संस्थान उनके विचारों और सपने को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस सबके बावजूद ये सवाल भी बहस में उठाया जा रहा है कि स्वामी विवेकानंद के विचारों का क्या आज का युवा सचमुच सम्मान कर रहा है? इसमें कोई संदेह नहीं की चाहे आध्यात्म हो, विज्ञान हो, वैश्विक शांति हो या युवाओं को उत्साहित करने का जादू हो हर मोर्चे पर स्वामी विवेकानंद के आसपास भी कोई दिखाई नहीं पड़ता लेकिन क्या उन्हें पढ़ लेने मात्र से, उनकी तस्वीरों को दीवारों पर टांग देने मात्र से या फिर उनके नाम पर नित नए संस्थानों का निर्माण कर देने मात्र से ही हम उनके सपने को पूरा कर पाएंगे? वसुधैव कुटुंबकम का संदेश पूरी दुनिया को देने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति और संस्कार पर जिस गर्व के साथ पूरी दुनिया में खुद को खड़ा किया क्या आज हम उसी गर्व के साथ खुद को दुनिया के सामने खड़ा करने के काबिल हैं? दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल ने इस वर्ष स्वामी विवेकानंद पर एक विशेष कार्यक्रम अवेकनिंग इंडिया का प्रसारण किया और सौभाग्य से इस कार्यक्रम में अपने विचार रखने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया। स्वामी विवेकानंद को पढ़ना और उनके विचारों से प्रभावित होना किसी भी भारतीय के लिए शायद कोई बड़ी बात न हो और कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी है। मैंने फौरन इस प्रस्ताव पर हामी भर दी। साल भर चले इस कार्यक्रम में देश की कई जानी हस्तियों के साथ स्वामी जी के जीवन, विचारों और आज के दौर में उनकी उपयोगिता पर काफी बातचीत हुई। स्वामी जी के प्रति सम्मान और बढ़ गया और एक इच्छा जागृत हुई कि काश हम उनके समझ लें, उनकी सुल लें तो वाकई विश्व गुरू बन सकते हैं क्योंकि जिस युवाशक्ति पर वो पूरी जिंदगी जोर देते रहे उसकी सबसे बड़ी तादाद आज हमारे ही पास है। (फोटो के साथ कैप्शन) ह्यह्यभारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारित्र्य है। चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें। सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।ह्णह्ण यूं तो हिंदुस्तान की बढ़ती हुई आबादी हमारे लिए चिंता का सबब है लेकिन इस चिंता मे भी सुकून देने वाली बात ये है कि इस आबादी का ज्यादातर हिस्सा युवा है, यानि हमारे देश दुनिया के सबसे ज्यादा युवा हैं। युवाओं में असीम ऊर्जा और शक्ति होती है और यही युवा भविष्य के निर्माता भी हैं। युवा शक्ति की दिशा ही किसी राष्ट्र की दशा को तय करती है। देश का युवा भटक गया तो राष्ट्र भटक सकता है और राष्ट्र का युवा सही रास्ते पर चल दे तो राष्ट्र की प्रगति निश्चित है। स्वामी जी ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि धर्म और संस्कृति किसी भी राष्ट्र की जड़ होती है और जब तक जड़ पर प्रहार नहीं होता राष्ट्र अखंड बना रहता है। आज स्वामी जी के विचारों के क्रियान्वयन की जितनी जरूरत महसूस होती है उतनी तो शायद इनके उद्गार के वक्त भी नहीं थी। जिस समय स्वामी विवेकानंद ने भारत भ्रमण शुरू किया तब उनके सामने अशिक्षा और रूढियों से जूझता भारत था लेकिन आज इन चुनौतियों के अलावा संस्कृति के लगातार हो रहे ह्रास को बड़ी चिंता माना जा सकता है। भारत की तरफ पूरी दुनिया की नजर सिर्फ इसीलिए नहीं है कि यहां के बाजार पर पकड़ बनाने का मोह उन्हें है बल्कि भारत को संस्कारों के उत्थान के लिहाज से भी उम्मीद की नजर से देखा जाता है। ये कोई नई बात नहीं है कि दुनिया के कई दिग्गज भारत में शांति और आध्यात्मिकता की तलाश में भारत आते रहे हैं और अब भी आते हैं। भारत की गरीबी और अशिक्षा को हमेशा ही पाश्चात्य देशों ने बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है लेकिन ये भी सच है कि दुनिया के कई दूसरे देशों के मुकाबले हमारी स्थिति बहुत दयनीय है भी। क्या सिर्फ ढोंग और पाखंड को आगे बढ़ाते हुए हम विश्व गुरू बन सकते हैं और दुनिया भर की उम्मीदों को पूरा कर सकते हैं? जाहिर है जवाब ना में ही होगा और जब विवेकानंद ने इस सवाल को भारत के सामने रखा तब भी जवाब यही मिला। ये बात और है कि उनके रहते उनका जो जादू और उनमें जो विश्वास तमाम भारतवासियों में दिखाई पड़ता था वो अब नहीं दिखाई पड़ता। आज भी एक तरफ स्वामी जी के विचार और उनकी बातों को सामने रखने वाले कई विद्वान मिल जाएंगे लेकिन पाखंडी बाबाओं की तादाद और उनके मानने वाले ऐसा लगता है ज्यादा तादाद में हैं। जिस वक्त स्वामी विवेकानंद पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे उस समय भी देश पाखंडियों की जकड़ में था। अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने हमेशा ध्यान में डूबे रहने से ज्यादा तवज्जो देशवासियों के उत्थान में दी। ये उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय विचारों में से एक है कि बजाय गीतापाठ के अगर युवा फुटबॉल खेले तो अपने स्नायू मजबूत करके समाज और देश के ज्यादा काम आ सकता है। ये भी सत्य है कि गीता की मीमांसा करते हुए और श्रीकृष्ण के बारे में अपने विचार रखते हुए उन्होंने इस प्रचंड युवा शक्ति को सकारात्मक दिशा में मोड़ने का ज्ञान गीता में ही होने की बाद को भी पुरजोर तरीके से रखा। यहां वो ये समझाने चाहते थे कि गीता ज्ञान से पहले खुद को स्वस्थ्य,पुरजोर तरीके से दुनिया के सामने रखा। ये जरूर है कि वो गीता ज्ञान से पहले स्वस्थ्य शरीर और ऊर्जावान बनने पर ज्यादा जोर देते थे। ये हम सब जानते है कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मन निवास करता है और इसी से असीम युवा ऊर्जा का इस्तेमाल सकारात्मक रूप से हो सकता है। आज का युवा भटका हुआ दिखता है, हांलाकि इसे पूरे देश के युवाओं की स्थिति कहना गलत होगा। लेकिन जिस तेजी से बाजारवाद ने युवाओं को बड़े शहरों में आकर्षित किया है वो चिंता का विषय है। ऐसा नहीं है कि युवाओं ने हमें शमर्सार ही किया हो बल्कि इन्ही युवाओं में वो भी शामिल है जो देश को गौरवान्वित भी करते हैं। खेल हो, राजनीति हो, साहित्य और कला जगत हो हर मोर्चे पर युवा अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। बदले माहौल में सामाजिक मुद्दों को सड़कों पर लाने का काम भी देश का यही युवा कर रहा है। प्रश्न ये है कि क्या उसकी ऊर्जा का सही इस्तेमाल किया जा रहा है? जिस तरह से वो अपनी जड़ों से कटता जा रहा है और शराब और दूसरे नशों की जद में आता जा रहा है उससे चिंता बढ़नी लाजिमी है। स्वामी विवेकानंद भी चाहते तो पूरे देश के युवाओं का बीड़ा उठाने के बजाय खुद के ध्यान में मस्त रह सकते थे लेकिन उन्हे पता था कि उनके जीवन का मकसद खुद का सुखभोग नहीं बल्कि भारत के विश्वपटल पर गुरू के रूप में स्थापित करने का प्रयास करना है। वो ये भी कह चुके हैं कि उनका काम ऐसा नहीं जो एक जीवन काल में पूरा हो जाए पर उन्हे पूरा विश्वास था कि उनकी तरह देश में 50-60 युवा भी उभरकर सामने आ गए तो इस सपने को पूरा होने से कोई नहीं रोक पाएगा। आज हमारे देश का युवा पूरी दुनिया में छाया हुआ है दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं जहा भारतीय युवकों ने अपनी जगह न बनाई हो। इसे भारत के लिहाज से कई बार नुकसान दायक भी कहा जाता है और ब्रेन ड्रैन की संज्ञा दी जाती है, लेकिन स्वामी जी इस बात से आज बहुत खुश होते कि वसुधैव कुंटुंबकम आज जितना साकार दिखता शायद उतना कभी नहीं था। ये बात सच है कि हमारे युवाओं का सम्मान घर में रहते हुए होने के बजाय बाहर जाकर ज्यादा होता है। यहां तक की खुद स्वामी विवेकानंद जब शिकागो में भाषण देने के बाद भारत वापस आए तो उनका स्वागत एक विजेता कि तरह हुआ। हांलाकि वो विदेश जाने से पहले भी अपनी इन्हीं बातों को रखते रहे थे। उन्होंने विदेश यात्रा के दौरान दूसरी संस्कृतियों को जाना समझा और उनका सम्मान भी किया। इन देशों को लेकर बहुत सी नकारात्मक बातें उन्होंने भी सुन रखी थी लेकिन बचपन कि बिना आजमाए किसी बात को न मानने वाली आदत कि वजह से वो कभी किसी सुने सुनाय पूर्वाग्रह से पीडि़त नहीं रहे। आज के युवा के साथ बड़ी समस्या अंधानुकरण और बिना जांचे परखे बातों को मान लेना ही दिखाई पड़ती है। हम सड़कों पर भीड़ तो देखते हैं लेकिन क्या देश का ये भविष्य वाकई जानता है कि वो क्या कर रहा है? राजनीति में युवा चेहरों को लाने कि युवा शक्ति को तवज्जो देने की बात तो कही जाती है लेकिन क्या वाकई में सही मायनों में वो स्वामी जी के भारत जागरण के सपने को समझने की कोशिश कर रहे हैं और क्या बहस से इतर उन्हें हकीकत में वो तवज्जो दी जा रही है जिसके वो हकदार हैं? अंधी प्रतियोगिता के युग में सबको साथ लेकर चलने से ज्यादा जोर सबसे आगे निकलने पर है। बिना जांचे परखे हमारा युवा इस दौड़ में शामिल होता जा रहा है। अच्छी बात ये है कि हालात अभी बहुत नहीं बिगड़े हैं या ये कह सकते हैं कि ये हमारी संस्कृति की मजबूती है कि हम आज भी अपने नाम को बचाए रखने में कुछ हद तक कामयाब दिखाई पड़ते हैं लेकिन कब तक ? ये अहम सवाल है। स्वामी विवेकानंद का हमेशा मानना रहा कि हमारी परंपरा और संस्कृति का सम्मान सिर्फ हमारे लिए ही नहीं अपितु पूरे विश्व के कल्याण के लिए आवश्यक है। ये बात और है कि अब हम खुद इस चिंता में कि क्या हमारी ये धरोहर और स्वामी जी के ये विचार हमारे ही काम आ पा रहे हैं या नहीं? देश के गरीबों और जरूरतमंदों में ही शिव का निवास है। इनकी सेवा करने का मतलब ही भगवान की सेवा करना है। महामारी से जूझ रहे लोगों की सेवा के लिए अपने आश्रम तक को बेच देने की बात कहने वाली स्वामीजी का ये मानना था कि इस देश के जरूरतमंदों की मदद को जब तक अपने जीवन का लक्ष्य नहीं माना जाएगा देश का कल्याण नहीं होगा। यही वजह थी कि युवाओं को वो हमेशा ऊर्जावान बने रहने और तमाम परेशानियों और कष्टों के बावजूद आगे बढ़ते रहने की सलाह देते थे। आज का युवा दूसरों में बुराइयां देखने, सिस्टम को गरियाते रहने के बजाय खुद को स्वामी जी के सपने को पूरा करने के लिए जिम्मेदार माने तो ही बात बन सकती है। उनका कहा और लिखा बहुत कुछ हमारे बीच है लेकिन कितने युवा इस सपने को आगे बढ़ाना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं? आज का युवा एक दूसरे से होड़ में लगा है। उसका मकसद अपनी तरक्की और बेशुमार दौलत और शोहरत ही दिखाई पड़ता है। वैसे पूरी दुनिया की यही हालत है तो भारत इससे अछूता कैसे रह सकता है लेकिन हमारी संस्कृति में आज भी युवा विवेकानंद को पढ़ता है और उनमें से कुछ उनको समझते भी हैं। आज के दौर में युवा शक्ति के क्षरण की वजह नशाखोरी बनती जा रही है। इस पर लगाम लगाने के लिए कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है। हाल के दिनों में जो घिनौनी घटनाएं सामने आई हैं वो भी बताती है की नशा कैसे इंसान को जानवर बना देता है। साथ ही घरों में शुरूआत से बच्चों को किस किस्म की शिक्षा दी जा रही है ये भी बहुत अहम है। आज डॉक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी, गायक, पत्रकार और जाने क्या क्या बनाने का प्रयास तो किया जा रहा है लेकिन सभ्य नागरिक और समाज के लिए उपयोगी मनुष्य बनाने पर किसी का विचार नहीं। आज ये विचार 'आउटेडेट' कहे जाने लगे है। लेकिन जरा गौर से सोचें तो क्या अब जीवन सहज होने के बजाय ज्यादा दूभर और परेशानियों से भरा दिखाई नहीं देता? क्या आज का युवा जल्दी हताश नहीं हो जा रहा है? क्या इनमें छोटी-छोटी बात पर थोड़ी-थोड़ी देर में खतरनाक गुस्सा नहीं देखने को मिल रहा है? आज विवेकानंद की जरूरत पहले से ज्यादा है सच तो ये है कि वो होते तो युवाओं की देश में बढ़ती तादाद पर खुश होते लेकिन उनकी ऊर्जा के सकारात्मक इस्तेमाल को नहीं देखकर व्यथित भी होते।

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

स्वामी गंगाराम और ब्रह्म नाद की शिक्षा


स्वामी गंगाराम का जन्म 1949 में महू के नजदीक एक गांव में हुआ था। पारिवारिक माहौल अध्यात्मिक था और स्वयं उनकी भी आध्यात्म में सामान्य बच्चों जितनी ही रूचि थी। हम सब के जीवन में आध्यात्मिक जागृति के पहले भी इसके जागरण की एक सतत प्रक्रिया चलती रहती है और हम सवालों के जरिए अपने जीवन का ही अनुसंधान करते रहते हैं। स्वामी गंगाराम भी जीवन की घटनाओं और संबंधों का अध्ययन करते रहे। कबीर, रहीम, दादू के दोहों और गीतों की मालवा में एक पुरानी परंपरा रही है। इन संतों की रचनाओं से स्वामी गंगाराम का संबंध तो रहा पर उन्होंने इनके अर्थों को ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही समझा। वे अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं कि वे बचपन से ही इंद्रयातीत ध्वनि को सुनते थे लेकिन उसका अर्थ नहीं समझते थे। सतत ब्रह्मांड में चलती रहने वाली इस ध्वनि को ही हम नाद ब्रह्म कहते हैं। गंगाराम जी ने एलएलबी की पढ़ाई करने के बाद वकालत को अपना पेशा बना लिया। इस पेशे के दौरान उन्होंने घोर असंयमित जीवन जिया। वे आगे चलकर न्यायाधीश के प्रतिष्ठित पद पर भी विराजमान हुए। इस पूरे सफर के दौरान उनके मन में एक प्रश्न बना रहा कि आखिर सत्य क्या है और सतत परिवर्तनशील जीवन में ऐसी कौनसी अवस्था है जो हमें ठहराव दे और अपने अस्तित्व को जानने का अवसर भी। दुर्व्यसनों और असंयमित जीवनचर्या ने उन्हें बुरी तरह कमजोर किया और वे सत्य के लिए विचलित हो उठे। साल 1997 में उन्हें जानलेवा लकवे का दौरा पड़ा। इस दौरे के साथ ही वे ईश्वर से मृत्यू की मांग करने लगे। 2 महीने तक बिस्तर पर पड़े पड़े उनमें आध्यात्मिक चेतना जागृत हुई। उनके अनुयायी इसे उनके आध्यात्मिक रूपांतरण के रूप में भी देखते हैं। उन्हें सत्य का अनुभव होने लगा और जिस आवाज को वे महज कौतुहल वश सुना करते थे उसे उन्होंने और गंभीरता और रस के साथ सुनना शुरू कर दिया। विचारों का पूर्णतः निरोध होने के बाद उन्हें सत्य के दर्शन हुए और वे ज्ञान को प्राप्त हुए। वर्तमान समय के क्रांतिकारी और सच्चे संतों में उनका नाम शुमार है। वे ढोंग ढकोसलों के खिलाफ जागरूकता फैला रहे हैं। उन्होंने नाद ब्रह्म योग धाम संस्थान की स्थापना की, जिसके जरिए अब वे जन जन को उस ब्रह्मनाद से परिचित करवा रहे हैं जिसे कबीर, नानक, दादू आदि ने शब्द और नाम के रूप में संबोधित किया है। दो चीजों के टकराने से पैदा होने वाली आवाजों से तो हम वाकिफ होते हैं। स्वामी गंगाराम समझाते हैं कि ताली बजाना, बर्तनों का गिरना या हमारे कानों से सुनाई देने वाली सारी आवाजें दो चीजों के घर्षण या टकराने से पैदा होती हैं। इसे हम आहत नाद कहते हैं, क्यूंकि ये आहत होने से उत्पन्न हुई हैं। इसे स्थूल नाद कहा जाता हैं क्यूंकि इसे हम अपने कानों से सुन सकते है। स्वामी गंगाराम अपनी दीक्षा में उस नाद को अनुयायियों को सुनवाते हैं जो अतीन्द्रिय है और इसे सुनने के लिए कानों की आवश्यक्ता नहीं है। सबसे चौंकाने वाली बात आपको ये लग सकती है कि आप इसे 24 घंटे सतत सुनते रहते हैं लेकिन आप दुनिया के आहत नादों और अपने विचारों में इतने खोए रहते हैं कि आपका ध्यान कभी अनहद नाद पर जाता ही नहीं है। ये नाद अखंड ब्रह्मांड में घूम रहा है। हमेशा ये ध्वनी गूंजती रहती है। ध्यान कि किसी भी विधी में जब साधक पूरी तरह से निर्विचार होता है तब भी यही नाद शेष रह जाता है। स्वामी गंगाराम कहते हैं जिस अवस्था में ध्यान की तमाम विधियां पहुंचा रही हैं वहीं से शुरूआत करने से सत्य की प्राप्ति सहज हो जाती है। इस ब्रह्मनाद का अनुभव करने के लिए कई प्रयोग किए गए हैं। ज्यादातर एकांत जगहों पर इसको सुनना सहज होता है। ध्यान की किसी भी विधि में शांति पर विशेष जोर दिया जाता है। अनहद नाद के लिए शांति को और आवश्यक इसीलिए बताया गया हैं क्यूंकि शुरूआती चरण में साधक आहत नादों की वजह से एकाग्रचित्त नहीं हो पाता है और उसे अनहद नाद को सतत सुनते रहने में परेशानी का अनुभव होता है। अनहद नाद को प्रसन्नचित्तता के साथ सुनना आवश्यक है। वेदों की उत्पत्ति प्रणव से यानि ओंकार से बताई जाती है। ओंकार के प्रादुर्भाव के मूल में भी ब्रह्मनाद ही है। स्वामी गंगाराम बताते हैं कि इससे नाद की आवाज कुछ-कुछ अ ऊ और म अक्षरों से मिलकर बनी है इसीलिए ज्ञानियों ने ऊँ के रूप में इसे शब्दों ढाला है। ये भी पाया गया है कि शुरूआती अभ्यास में जब सतत ऊँ का उच्चारण किया जाता है तो साधक धीरे धीरे अपने भीतर स्वतः ही ब्रह्मांड में घूम रहे नाद से जुड़ जाता है। कुछ समय के अभ्यास के बाद शब्दों का लोप हो जाता है और अनहद नाद ही शेष रह जाता है। इसका अनुभव बहुत कठिन नहीं है लेकिन स्वामी गंगाराम इसे विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में ही अपनाने की सलाह देते हैं। वे मानते हैं कि हम विचारों के कोलाहल में दिन रात दौड़ रहे हैं। हमारी कई मान्यताएं हैं और कई चाहतें हैं। पहले ध्यान और सत्य की प्राप्ति के अर्थ को समझना आवश्यक है। चित्त की शुद्धि के लिए आप ध्यान करते हैं, इस विधि से ध्यान की प्राप्ति अवश्य होगी लेकिन साधक को पहले चित्त की शुद्धि की इच्छाशक्ति और आवश्यक्ता अपने भीतर अनुभव करनी होगी। जब तक आहत नाद, यानि संसार की आवाजों का जोर चलता रहता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह हमें घेरे रहते हैं। जिस तरह हम पूजा के पहले पूजास्थान को स्वच्छ करते हैं अपने बाह्य शरीर का भी शुद्धिकरण करते हैं ठीक वैसे ही अंतर्मन की यात्रा में भीतर भी सफाई की आवश्यक्ता होती है। नाद ब्रह्म के कुछ आवश्यक ज्ञानवर्धन के बाद ही स्वामी गंगाराम दीक्षा देना उचित मानते हैं। एक बार इस नाद को सुनना प्रारंभ हो जाता है तो सतत अभ्यास से माया के सारे जाल टूटते चले जाते हैं। जब अनहद नाद को सुनना प्रयासहीन हो जाता है तब वर्तमान की स्वतः सिद्धि हो जाती है। वर्तमान की सिद्धि ही सत्य है, सुंदर है और जीवन है। अभ्यास से धीरे धीरे ये नाद मधुर धुन की तरह लगने लगता है, जैसे कोई वाद्य यंत्र, शंख ध्वनि या कृष्ण की मुरली। विभिन्न ज्ञानियों ने इसका अनुभव किया और इसे अपने-अपने तरीके से समझाया। नानक, कबीर, दादू, ओशो आदि ज्ञानियों ने इस पर खूब लिखा है और इसे सबद, शब्द, नाम, नाद आदि नामों से अपने लेखन में उल्लेखित किया है। इनके साहित्य में आप इससे जुड़ी और चर्चाओं को देख सकते हैं।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

परमहंस योगानंद जी का जीवन और ध्यान विधि

परमहंस योगानंद (जन्म 5 जनवरी 1893 मृत्यू 7 मार्च 1952)
वर्तमान उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में एक बंगाली परिवार में मुकुंद लाल घोष के रूप में योगानंद का जन्म हुआ था। बहुत छोटी उम्र से परिवार के आध्यात्मिक संस्कारों के प्रति उनमें गहरी रूचि जाग गई थी। वे एक बार बीमार पड़े तो उनकी माताजी ने अपने गुरू लाहिरी महाशय की तस्वीर उनके पास रख दी। ठीक होने के बाद उनकी श्रद्धा उनमें काफी बढ़ गई। जितनी छोटी उम्र से आध्यात्मिक चिंतन शुरू हो जाता है उतने ही सुंदर परिणाम सामने लेकर आता है। योगानंद ने अपने जीवन को आध्यात्म के लिए समर्पित करने का मन बहुत छोटी उम्र से बना लिया था। अपनी समस्त जीवन ऊर्जा को वे इन्ही विचारों में लगाते रहे। कलकत्ता युनिवर्सिटी से संबद्ध सीरमपूर कॉलेज से उन्होंने ने कला संकाय में स्नातक की उपाधी ली। पढ़ने से ज्यादा उनकी रूचि आध्यात्म में थी। महज 17 वर्ष की उम्र में वे स्वामी युक्तेश्वर गिरी के शरणागत हो गए। युक्तेश्वर गिरी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे और सत्य को प्राप्त कर चुके थे। उनके साथ ध्यान की साधना करते हुए योगानंद को कई अलौकिक अनुभूतियां भी हुई जिनका जिक्र उन्होंने अपनी मशहूर पुस्तक एक योगी की आत्मकथा में किया है। योगाभ्यास पर इससे पहले किसी ने अपने जीवन के संस्मरणों को इतने प्रभावी ढंग से संजोया नहीं था। इस पुस्तक में उन्होंने अपने जीवन की घटना के साथ साथ सत्य के अनुभवों को भी साझा किया। 1920 में ही एक आध्यात्मिक सभा का हिस्सा बनने के लिए उन्हें अमेरिका जाने का अवसर मिला। वे पाश्चात्य देशों की आध्यात्म के लिए भारत पर निर्भरता को उस वक्त ही समझ गए थे। उन्होंने ‘सेल्फ रिअलाइजेशन फैलोशिप’ की स्थापना की। 1930 में वे भारत वापस आए और युक्तेश्वर गिरी जी के साथ योगदा सत्संग के कार्य में जुट गए। आज भी उनके द्वारा स्थापित योगदा संस्थान देश विदेश में है और क्रिया योग की शिक्षा दे रहा है। अपनी पुस्तक डिवाइन रोमांस में योगानंद लिखते हैं कि, आप स्वपनावस्थआ में ही इस धरती पर विचरण कर रहे हैं। हमें जो संसार दिख रहा है वो एक सपने में सपने के चलने जैसा है, इसमें सत्य कुछ भी नहीं। हर मानव मात्र को सत्य की और ईश्वर की आवश्यक्ता अनुभव होनी चाहिए क्यूंकि वहीं इस जीवन का अंतिम लक्ष्य है। उसके लिए इस संसार में सिर्फ आप है और आप को उसे ढूंढना ही होगा। योगानंद सत्य की आवश्यक्ता को अपने कई आख्यानों और पुस्तकों में जताते रहे हैं। सत्य के बहुत नामकरण हुए हैं। शरणानंद इसे ईश्वर कहते थे, जे. कृष्णमूर्ती इसे प्रेम कहते थे तो योगानंद इसे योग की प्राप्ति कहते थे। योग का चिंतन वही है जो पतंजलि ने कहा है। योगानंद परमहंस ने अपने समय और आवश्यक्ता का आकलन करते हुए योग की शिक्षा दी। इन सभी की शिक्षाओं या सत्य के स्वरूप में कोई भेद नहीं है, बस प्रक्रियाओं का अंतर दिखाई पड़ता है। योगानंद परमहंस ने ध्यान की जिस प्रक्रिया को अपने अनुयायिओं के सामने रखा उसे नाम दिया गया क्रिया योग। हांलाकि ये क्रिया योग उनके गुरू युक्तेश्वर गुरू, उनसे पहले लाहिड़ी महाशय और उनसे पहले योगगुरू बाबाजी के काल से प्रचलित रहा था। इसे पाश्चात्य देशों के साथ भारत में भी लोकप्रिय बनाने का कार्य योगानंद जी ने किया। ध्यान की किसी भी प्रक्रिया में हम जाएं, निर्विचारता को प्राप्त करना ही उसके मूल में होगा। योगानंद परमहंस योगनिद्रा को भी अपने अनुयायियों के सामने रखते थे। आप जब सोने के लिए जाते हैं तो विचारों की कौंध आपको सोने नहीं देती है। कई बार तो बहुत थकान होने के बावजूद आप विचारों की उथल पुथल से सो नहीं पाते हैं। विचारों को शिथिल करने के लिए लोग नशीली दवाओँ तक का सेवन करते हैं और फिर इसके इतने आदि हो जाते हैं कि कभी अपनी प्राकृतिक क्षमताओं को समझ ही नहीं पाते। योगानंद परमहंस निर्विचारता को किस हद तक साध चुके थे इस बात का अंदाज आप उनके के वीडियो से लगा सकते हैं जिसमें वे एक सैकेंड में ही सुष्पुतता में चले जाते हैं। ये विधा मैंने कई और योगियों में भी देखी है वे निर्विचारता के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें स्वप्न भी नहीं आते। अनुशासन को योगानंद ने योग की प्राप्ति के लिए प्राथमिक आवश्यक्त माना। वे खुद गुरू शिष्य परंपरा से योग को प्राप्त हुए थे इसीलिए उन्होंने योग की प्राप्ति के लिए विशेषज्ञों के मार्गदर्शन को जरूरी बताया। जब आप सत्य की ओर अग्रसर नहीं हुए हैं तो असत संसार से बाहर निकलना बहुत कष्टकारी होता है। बार-बार दुनिया का लालच आपको आकर्षित करता है। योगानंद कहते थे कि वर्तमान की शांति और सुंदरता में जीने वालों का भविष्य अपना ध्यान खुद रखता है। आप वर्तमान में आनंद और शांति में है और अपने वर्तमान की सुंदरता का आनंद ले रहे हैं तो भविष्य का आनंददायी होना आवश्यक है। हम वर्तमान में भविष्य के व्यर्थ चिंतन में लगे हैं तो निश्चित ही वर्तमान की अनदेखी होगी और जिसका वर्तमान नहीं होता उसका कोई भविष्य भी नहीं होता। वे इसके लिए ध्यान और ईश्वर स्मरण को ही उत्तम कर्म बताते हुए कहते हैं कि आप हाथी को काबू कर सकते हैं, शेर का मुंह बंद कर सकते हैं, आग-पानी पर चल सकते हैं, लेकिन सबसे उत्तम और मुश्किल काम है अपने मन पर काबू करना। मन पर काबू ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है और जितने भी ज्ञानी आज तक हुए हैं उन्होंने भिन्न- भिन्न विधियों से निर्विचार होने पर ही जोर दिया है। आप जितना ज्यादा निर्विचार रहने का अभ्यास करेंगे आत्मबल उतना ही ज्यादा बढ़ेगा और जितना आत्मबल बढ़ने से सदैव निर्विचारता और वर्तमान में बने रहने की सिद्धि मिल जाती है। जो वर्तमान को सिद्ध कर लेता है उसे ही सत्य की प्राप्ति होती है। ईश्वर की रचनात्मक शक्ति आपके भीतर भी मौजूद है। योगानंद कहते हैं कि इस शक्ति को पहचान कर जीवन में कुछ ऐसा काम कीजिए जिससे दुनिया चमत्कृत हो जाए। आप अलौकिक है और आपमें कृष्ण, बुद्ध और ईसा की सारी शक्तियां मौजूद है। वर्तमान की सुंदरता का आनंद लेते हुए अपनी शक्ति को पहचानिए और वो जीवन पाइये जिसके लिए आपका जन्म हुआ है।