रविवार, 11 जनवरी 2015

स्वामी विवेकानंद और युवाशक्ति

स्वामी विवेकानन्द (जन्म- 12 जनवरी, 1863, कलकत्ता (वतर्मान कोलकाता), भारत; मृत्यु- 4 जुलाई, 1902, रामकृष्ण मठ, बेलूर) एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन व क्रम, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। स्वामी विवेकानंद के जन्म के 150 साल हो गए हैं। आज भी वो युवाओं के लिए वो एक आदर्श हैं। आज की भाषा में उनकी जबरदस्त ह्यफैन फॉलोईंगह्ण है। उनकी कई किताबें हैं जो आज भी बेस्ट सेलर की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। पूरे देश में उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ही नहीं बल्कि ढेर सारे संस्थान उनके विचारों और सपने को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस सबके बावजूद ये सवाल भी बहस में उठाया जा रहा है कि स्वामी विवेकानंद के विचारों का क्या आज का युवा सचमुच सम्मान कर रहा है? इसमें कोई संदेह नहीं की चाहे आध्यात्म हो, विज्ञान हो, वैश्विक शांति हो या युवाओं को उत्साहित करने का जादू हो हर मोर्चे पर स्वामी विवेकानंद के आसपास भी कोई दिखाई नहीं पड़ता लेकिन क्या उन्हें पढ़ लेने मात्र से, उनकी तस्वीरों को दीवारों पर टांग देने मात्र से या फिर उनके नाम पर नित नए संस्थानों का निर्माण कर देने मात्र से ही हम उनके सपने को पूरा कर पाएंगे? वसुधैव कुटुंबकम का संदेश पूरी दुनिया को देने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति और संस्कार पर जिस गर्व के साथ पूरी दुनिया में खुद को खड़ा किया क्या आज हम उसी गर्व के साथ खुद को दुनिया के सामने खड़ा करने के काबिल हैं? दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल ने इस वर्ष स्वामी विवेकानंद पर एक विशेष कार्यक्रम अवेकनिंग इंडिया का प्रसारण किया और सौभाग्य से इस कार्यक्रम में अपने विचार रखने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया। स्वामी विवेकानंद को पढ़ना और उनके विचारों से प्रभावित होना किसी भी भारतीय के लिए शायद कोई बड़ी बात न हो और कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी है। मैंने फौरन इस प्रस्ताव पर हामी भर दी। साल भर चले इस कार्यक्रम में देश की कई जानी हस्तियों के साथ स्वामी जी के जीवन, विचारों और आज के दौर में उनकी उपयोगिता पर काफी बातचीत हुई। स्वामी जी के प्रति सम्मान और बढ़ गया और एक इच्छा जागृत हुई कि काश हम उनके समझ लें, उनकी सुल लें तो वाकई विश्व गुरू बन सकते हैं क्योंकि जिस युवाशक्ति पर वो पूरी जिंदगी जोर देते रहे उसकी सबसे बड़ी तादाद आज हमारे ही पास है। (फोटो के साथ कैप्शन) ह्यह्यभारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारित्र्य है। चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें। सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।ह्णह्ण यूं तो हिंदुस्तान की बढ़ती हुई आबादी हमारे लिए चिंता का सबब है लेकिन इस चिंता मे भी सुकून देने वाली बात ये है कि इस आबादी का ज्यादातर हिस्सा युवा है, यानि हमारे देश दुनिया के सबसे ज्यादा युवा हैं। युवाओं में असीम ऊर्जा और शक्ति होती है और यही युवा भविष्य के निर्माता भी हैं। युवा शक्ति की दिशा ही किसी राष्ट्र की दशा को तय करती है। देश का युवा भटक गया तो राष्ट्र भटक सकता है और राष्ट्र का युवा सही रास्ते पर चल दे तो राष्ट्र की प्रगति निश्चित है। स्वामी जी ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि धर्म और संस्कृति किसी भी राष्ट्र की जड़ होती है और जब तक जड़ पर प्रहार नहीं होता राष्ट्र अखंड बना रहता है। आज स्वामी जी के विचारों के क्रियान्वयन की जितनी जरूरत महसूस होती है उतनी तो शायद इनके उद्गार के वक्त भी नहीं थी। जिस समय स्वामी विवेकानंद ने भारत भ्रमण शुरू किया तब उनके सामने अशिक्षा और रूढियों से जूझता भारत था लेकिन आज इन चुनौतियों के अलावा संस्कृति के लगातार हो रहे ह्रास को बड़ी चिंता माना जा सकता है। भारत की तरफ पूरी दुनिया की नजर सिर्फ इसीलिए नहीं है कि यहां के बाजार पर पकड़ बनाने का मोह उन्हें है बल्कि भारत को संस्कारों के उत्थान के लिहाज से भी उम्मीद की नजर से देखा जाता है। ये कोई नई बात नहीं है कि दुनिया के कई दिग्गज भारत में शांति और आध्यात्मिकता की तलाश में भारत आते रहे हैं और अब भी आते हैं। भारत की गरीबी और अशिक्षा को हमेशा ही पाश्चात्य देशों ने बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है लेकिन ये भी सच है कि दुनिया के कई दूसरे देशों के मुकाबले हमारी स्थिति बहुत दयनीय है भी। क्या सिर्फ ढोंग और पाखंड को आगे बढ़ाते हुए हम विश्व गुरू बन सकते हैं और दुनिया भर की उम्मीदों को पूरा कर सकते हैं? जाहिर है जवाब ना में ही होगा और जब विवेकानंद ने इस सवाल को भारत के सामने रखा तब भी जवाब यही मिला। ये बात और है कि उनके रहते उनका जो जादू और उनमें जो विश्वास तमाम भारतवासियों में दिखाई पड़ता था वो अब नहीं दिखाई पड़ता। आज भी एक तरफ स्वामी जी के विचार और उनकी बातों को सामने रखने वाले कई विद्वान मिल जाएंगे लेकिन पाखंडी बाबाओं की तादाद और उनके मानने वाले ऐसा लगता है ज्यादा तादाद में हैं। जिस वक्त स्वामी विवेकानंद पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे उस समय भी देश पाखंडियों की जकड़ में था। अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने हमेशा ध्यान में डूबे रहने से ज्यादा तवज्जो देशवासियों के उत्थान में दी। ये उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय विचारों में से एक है कि बजाय गीतापाठ के अगर युवा फुटबॉल खेले तो अपने स्नायू मजबूत करके समाज और देश के ज्यादा काम आ सकता है। ये भी सत्य है कि गीता की मीमांसा करते हुए और श्रीकृष्ण के बारे में अपने विचार रखते हुए उन्होंने इस प्रचंड युवा शक्ति को सकारात्मक दिशा में मोड़ने का ज्ञान गीता में ही होने की बाद को भी पुरजोर तरीके से रखा। यहां वो ये समझाने चाहते थे कि गीता ज्ञान से पहले खुद को स्वस्थ्य,पुरजोर तरीके से दुनिया के सामने रखा। ये जरूर है कि वो गीता ज्ञान से पहले स्वस्थ्य शरीर और ऊर्जावान बनने पर ज्यादा जोर देते थे। ये हम सब जानते है कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मन निवास करता है और इसी से असीम युवा ऊर्जा का इस्तेमाल सकारात्मक रूप से हो सकता है। आज का युवा भटका हुआ दिखता है, हांलाकि इसे पूरे देश के युवाओं की स्थिति कहना गलत होगा। लेकिन जिस तेजी से बाजारवाद ने युवाओं को बड़े शहरों में आकर्षित किया है वो चिंता का विषय है। ऐसा नहीं है कि युवाओं ने हमें शमर्सार ही किया हो बल्कि इन्ही युवाओं में वो भी शामिल है जो देश को गौरवान्वित भी करते हैं। खेल हो, राजनीति हो, साहित्य और कला जगत हो हर मोर्चे पर युवा अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। बदले माहौल में सामाजिक मुद्दों को सड़कों पर लाने का काम भी देश का यही युवा कर रहा है। प्रश्न ये है कि क्या उसकी ऊर्जा का सही इस्तेमाल किया जा रहा है? जिस तरह से वो अपनी जड़ों से कटता जा रहा है और शराब और दूसरे नशों की जद में आता जा रहा है उससे चिंता बढ़नी लाजिमी है। स्वामी विवेकानंद भी चाहते तो पूरे देश के युवाओं का बीड़ा उठाने के बजाय खुद के ध्यान में मस्त रह सकते थे लेकिन उन्हे पता था कि उनके जीवन का मकसद खुद का सुखभोग नहीं बल्कि भारत के विश्वपटल पर गुरू के रूप में स्थापित करने का प्रयास करना है। वो ये भी कह चुके हैं कि उनका काम ऐसा नहीं जो एक जीवन काल में पूरा हो जाए पर उन्हे पूरा विश्वास था कि उनकी तरह देश में 50-60 युवा भी उभरकर सामने आ गए तो इस सपने को पूरा होने से कोई नहीं रोक पाएगा। आज हमारे देश का युवा पूरी दुनिया में छाया हुआ है दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं जहा भारतीय युवकों ने अपनी जगह न बनाई हो। इसे भारत के लिहाज से कई बार नुकसान दायक भी कहा जाता है और ब्रेन ड्रैन की संज्ञा दी जाती है, लेकिन स्वामी जी इस बात से आज बहुत खुश होते कि वसुधैव कुंटुंबकम आज जितना साकार दिखता शायद उतना कभी नहीं था। ये बात सच है कि हमारे युवाओं का सम्मान घर में रहते हुए होने के बजाय बाहर जाकर ज्यादा होता है। यहां तक की खुद स्वामी विवेकानंद जब शिकागो में भाषण देने के बाद भारत वापस आए तो उनका स्वागत एक विजेता कि तरह हुआ। हांलाकि वो विदेश जाने से पहले भी अपनी इन्हीं बातों को रखते रहे थे। उन्होंने विदेश यात्रा के दौरान दूसरी संस्कृतियों को जाना समझा और उनका सम्मान भी किया। इन देशों को लेकर बहुत सी नकारात्मक बातें उन्होंने भी सुन रखी थी लेकिन बचपन कि बिना आजमाए किसी बात को न मानने वाली आदत कि वजह से वो कभी किसी सुने सुनाय पूर्वाग्रह से पीडि़त नहीं रहे। आज के युवा के साथ बड़ी समस्या अंधानुकरण और बिना जांचे परखे बातों को मान लेना ही दिखाई पड़ती है। हम सड़कों पर भीड़ तो देखते हैं लेकिन क्या देश का ये भविष्य वाकई जानता है कि वो क्या कर रहा है? राजनीति में युवा चेहरों को लाने कि युवा शक्ति को तवज्जो देने की बात तो कही जाती है लेकिन क्या वाकई में सही मायनों में वो स्वामी जी के भारत जागरण के सपने को समझने की कोशिश कर रहे हैं और क्या बहस से इतर उन्हें हकीकत में वो तवज्जो दी जा रही है जिसके वो हकदार हैं? अंधी प्रतियोगिता के युग में सबको साथ लेकर चलने से ज्यादा जोर सबसे आगे निकलने पर है। बिना जांचे परखे हमारा युवा इस दौड़ में शामिल होता जा रहा है। अच्छी बात ये है कि हालात अभी बहुत नहीं बिगड़े हैं या ये कह सकते हैं कि ये हमारी संस्कृति की मजबूती है कि हम आज भी अपने नाम को बचाए रखने में कुछ हद तक कामयाब दिखाई पड़ते हैं लेकिन कब तक ? ये अहम सवाल है। स्वामी विवेकानंद का हमेशा मानना रहा कि हमारी परंपरा और संस्कृति का सम्मान सिर्फ हमारे लिए ही नहीं अपितु पूरे विश्व के कल्याण के लिए आवश्यक है। ये बात और है कि अब हम खुद इस चिंता में कि क्या हमारी ये धरोहर और स्वामी जी के ये विचार हमारे ही काम आ पा रहे हैं या नहीं? देश के गरीबों और जरूरतमंदों में ही शिव का निवास है। इनकी सेवा करने का मतलब ही भगवान की सेवा करना है। महामारी से जूझ रहे लोगों की सेवा के लिए अपने आश्रम तक को बेच देने की बात कहने वाली स्वामीजी का ये मानना था कि इस देश के जरूरतमंदों की मदद को जब तक अपने जीवन का लक्ष्य नहीं माना जाएगा देश का कल्याण नहीं होगा। यही वजह थी कि युवाओं को वो हमेशा ऊर्जावान बने रहने और तमाम परेशानियों और कष्टों के बावजूद आगे बढ़ते रहने की सलाह देते थे। आज का युवा दूसरों में बुराइयां देखने, सिस्टम को गरियाते रहने के बजाय खुद को स्वामी जी के सपने को पूरा करने के लिए जिम्मेदार माने तो ही बात बन सकती है। उनका कहा और लिखा बहुत कुछ हमारे बीच है लेकिन कितने युवा इस सपने को आगे बढ़ाना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं? आज का युवा एक दूसरे से होड़ में लगा है। उसका मकसद अपनी तरक्की और बेशुमार दौलत और शोहरत ही दिखाई पड़ता है। वैसे पूरी दुनिया की यही हालत है तो भारत इससे अछूता कैसे रह सकता है लेकिन हमारी संस्कृति में आज भी युवा विवेकानंद को पढ़ता है और उनमें से कुछ उनको समझते भी हैं। आज के दौर में युवा शक्ति के क्षरण की वजह नशाखोरी बनती जा रही है। इस पर लगाम लगाने के लिए कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है। हाल के दिनों में जो घिनौनी घटनाएं सामने आई हैं वो भी बताती है की नशा कैसे इंसान को जानवर बना देता है। साथ ही घरों में शुरूआत से बच्चों को किस किस्म की शिक्षा दी जा रही है ये भी बहुत अहम है। आज डॉक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी, गायक, पत्रकार और जाने क्या क्या बनाने का प्रयास तो किया जा रहा है लेकिन सभ्य नागरिक और समाज के लिए उपयोगी मनुष्य बनाने पर किसी का विचार नहीं। आज ये विचार 'आउटेडेट' कहे जाने लगे है। लेकिन जरा गौर से सोचें तो क्या अब जीवन सहज होने के बजाय ज्यादा दूभर और परेशानियों से भरा दिखाई नहीं देता? क्या आज का युवा जल्दी हताश नहीं हो जा रहा है? क्या इनमें छोटी-छोटी बात पर थोड़ी-थोड़ी देर में खतरनाक गुस्सा नहीं देखने को मिल रहा है? आज विवेकानंद की जरूरत पहले से ज्यादा है सच तो ये है कि वो होते तो युवाओं की देश में बढ़ती तादाद पर खुश होते लेकिन उनकी ऊर्जा के सकारात्मक इस्तेमाल को नहीं देखकर व्यथित भी होते।

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

स्वामी गंगाराम और ब्रह्म नाद की शिक्षा


स्वामी गंगाराम का जन्म 1949 में महू के नजदीक एक गांव में हुआ था। पारिवारिक माहौल अध्यात्मिक था और स्वयं उनकी भी आध्यात्म में सामान्य बच्चों जितनी ही रूचि थी। हम सब के जीवन में आध्यात्मिक जागृति के पहले भी इसके जागरण की एक सतत प्रक्रिया चलती रहती है और हम सवालों के जरिए अपने जीवन का ही अनुसंधान करते रहते हैं। स्वामी गंगाराम भी जीवन की घटनाओं और संबंधों का अध्ययन करते रहे। कबीर, रहीम, दादू के दोहों और गीतों की मालवा में एक पुरानी परंपरा रही है। इन संतों की रचनाओं से स्वामी गंगाराम का संबंध तो रहा पर उन्होंने इनके अर्थों को ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही समझा। वे अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं कि वे बचपन से ही इंद्रयातीत ध्वनि को सुनते थे लेकिन उसका अर्थ नहीं समझते थे। सतत ब्रह्मांड में चलती रहने वाली इस ध्वनि को ही हम नाद ब्रह्म कहते हैं। गंगाराम जी ने एलएलबी की पढ़ाई करने के बाद वकालत को अपना पेशा बना लिया। इस पेशे के दौरान उन्होंने घोर असंयमित जीवन जिया। वे आगे चलकर न्यायाधीश के प्रतिष्ठित पद पर भी विराजमान हुए। इस पूरे सफर के दौरान उनके मन में एक प्रश्न बना रहा कि आखिर सत्य क्या है और सतत परिवर्तनशील जीवन में ऐसी कौनसी अवस्था है जो हमें ठहराव दे और अपने अस्तित्व को जानने का अवसर भी। दुर्व्यसनों और असंयमित जीवनचर्या ने उन्हें बुरी तरह कमजोर किया और वे सत्य के लिए विचलित हो उठे। साल 1997 में उन्हें जानलेवा लकवे का दौरा पड़ा। इस दौरे के साथ ही वे ईश्वर से मृत्यू की मांग करने लगे। 2 महीने तक बिस्तर पर पड़े पड़े उनमें आध्यात्मिक चेतना जागृत हुई। उनके अनुयायी इसे उनके आध्यात्मिक रूपांतरण के रूप में भी देखते हैं। उन्हें सत्य का अनुभव होने लगा और जिस आवाज को वे महज कौतुहल वश सुना करते थे उसे उन्होंने और गंभीरता और रस के साथ सुनना शुरू कर दिया। विचारों का पूर्णतः निरोध होने के बाद उन्हें सत्य के दर्शन हुए और वे ज्ञान को प्राप्त हुए। वर्तमान समय के क्रांतिकारी और सच्चे संतों में उनका नाम शुमार है। वे ढोंग ढकोसलों के खिलाफ जागरूकता फैला रहे हैं। उन्होंने नाद ब्रह्म योग धाम संस्थान की स्थापना की, जिसके जरिए अब वे जन जन को उस ब्रह्मनाद से परिचित करवा रहे हैं जिसे कबीर, नानक, दादू आदि ने शब्द और नाम के रूप में संबोधित किया है। दो चीजों के टकराने से पैदा होने वाली आवाजों से तो हम वाकिफ होते हैं। स्वामी गंगाराम समझाते हैं कि ताली बजाना, बर्तनों का गिरना या हमारे कानों से सुनाई देने वाली सारी आवाजें दो चीजों के घर्षण या टकराने से पैदा होती हैं। इसे हम आहत नाद कहते हैं, क्यूंकि ये आहत होने से उत्पन्न हुई हैं। इसे स्थूल नाद कहा जाता हैं क्यूंकि इसे हम अपने कानों से सुन सकते है। स्वामी गंगाराम अपनी दीक्षा में उस नाद को अनुयायियों को सुनवाते हैं जो अतीन्द्रिय है और इसे सुनने के लिए कानों की आवश्यक्ता नहीं है। सबसे चौंकाने वाली बात आपको ये लग सकती है कि आप इसे 24 घंटे सतत सुनते रहते हैं लेकिन आप दुनिया के आहत नादों और अपने विचारों में इतने खोए रहते हैं कि आपका ध्यान कभी अनहद नाद पर जाता ही नहीं है। ये नाद अखंड ब्रह्मांड में घूम रहा है। हमेशा ये ध्वनी गूंजती रहती है। ध्यान कि किसी भी विधी में जब साधक पूरी तरह से निर्विचार होता है तब भी यही नाद शेष रह जाता है। स्वामी गंगाराम कहते हैं जिस अवस्था में ध्यान की तमाम विधियां पहुंचा रही हैं वहीं से शुरूआत करने से सत्य की प्राप्ति सहज हो जाती है। इस ब्रह्मनाद का अनुभव करने के लिए कई प्रयोग किए गए हैं। ज्यादातर एकांत जगहों पर इसको सुनना सहज होता है। ध्यान की किसी भी विधि में शांति पर विशेष जोर दिया जाता है। अनहद नाद के लिए शांति को और आवश्यक इसीलिए बताया गया हैं क्यूंकि शुरूआती चरण में साधक आहत नादों की वजह से एकाग्रचित्त नहीं हो पाता है और उसे अनहद नाद को सतत सुनते रहने में परेशानी का अनुभव होता है। अनहद नाद को प्रसन्नचित्तता के साथ सुनना आवश्यक है। वेदों की उत्पत्ति प्रणव से यानि ओंकार से बताई जाती है। ओंकार के प्रादुर्भाव के मूल में भी ब्रह्मनाद ही है। स्वामी गंगाराम बताते हैं कि इससे नाद की आवाज कुछ-कुछ अ ऊ और म अक्षरों से मिलकर बनी है इसीलिए ज्ञानियों ने ऊँ के रूप में इसे शब्दों ढाला है। ये भी पाया गया है कि शुरूआती अभ्यास में जब सतत ऊँ का उच्चारण किया जाता है तो साधक धीरे धीरे अपने भीतर स्वतः ही ब्रह्मांड में घूम रहे नाद से जुड़ जाता है। कुछ समय के अभ्यास के बाद शब्दों का लोप हो जाता है और अनहद नाद ही शेष रह जाता है। इसका अनुभव बहुत कठिन नहीं है लेकिन स्वामी गंगाराम इसे विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में ही अपनाने की सलाह देते हैं। वे मानते हैं कि हम विचारों के कोलाहल में दिन रात दौड़ रहे हैं। हमारी कई मान्यताएं हैं और कई चाहतें हैं। पहले ध्यान और सत्य की प्राप्ति के अर्थ को समझना आवश्यक है। चित्त की शुद्धि के लिए आप ध्यान करते हैं, इस विधि से ध्यान की प्राप्ति अवश्य होगी लेकिन साधक को पहले चित्त की शुद्धि की इच्छाशक्ति और आवश्यक्ता अपने भीतर अनुभव करनी होगी। जब तक आहत नाद, यानि संसार की आवाजों का जोर चलता रहता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह हमें घेरे रहते हैं। जिस तरह हम पूजा के पहले पूजास्थान को स्वच्छ करते हैं अपने बाह्य शरीर का भी शुद्धिकरण करते हैं ठीक वैसे ही अंतर्मन की यात्रा में भीतर भी सफाई की आवश्यक्ता होती है। नाद ब्रह्म के कुछ आवश्यक ज्ञानवर्धन के बाद ही स्वामी गंगाराम दीक्षा देना उचित मानते हैं। एक बार इस नाद को सुनना प्रारंभ हो जाता है तो सतत अभ्यास से माया के सारे जाल टूटते चले जाते हैं। जब अनहद नाद को सुनना प्रयासहीन हो जाता है तब वर्तमान की स्वतः सिद्धि हो जाती है। वर्तमान की सिद्धि ही सत्य है, सुंदर है और जीवन है। अभ्यास से धीरे धीरे ये नाद मधुर धुन की तरह लगने लगता है, जैसे कोई वाद्य यंत्र, शंख ध्वनि या कृष्ण की मुरली। विभिन्न ज्ञानियों ने इसका अनुभव किया और इसे अपने-अपने तरीके से समझाया। नानक, कबीर, दादू, ओशो आदि ज्ञानियों ने इस पर खूब लिखा है और इसे सबद, शब्द, नाम, नाद आदि नामों से अपने लेखन में उल्लेखित किया है। इनके साहित्य में आप इससे जुड़ी और चर्चाओं को देख सकते हैं।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

परमहंस योगानंद जी का जीवन और ध्यान विधि

परमहंस योगानंद (जन्म 5 जनवरी 1893 मृत्यू 7 मार्च 1952)
वर्तमान उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में एक बंगाली परिवार में मुकुंद लाल घोष के रूप में योगानंद का जन्म हुआ था। बहुत छोटी उम्र से परिवार के आध्यात्मिक संस्कारों के प्रति उनमें गहरी रूचि जाग गई थी। वे एक बार बीमार पड़े तो उनकी माताजी ने अपने गुरू लाहिरी महाशय की तस्वीर उनके पास रख दी। ठीक होने के बाद उनकी श्रद्धा उनमें काफी बढ़ गई। जितनी छोटी उम्र से आध्यात्मिक चिंतन शुरू हो जाता है उतने ही सुंदर परिणाम सामने लेकर आता है। योगानंद ने अपने जीवन को आध्यात्म के लिए समर्पित करने का मन बहुत छोटी उम्र से बना लिया था। अपनी समस्त जीवन ऊर्जा को वे इन्ही विचारों में लगाते रहे। कलकत्ता युनिवर्सिटी से संबद्ध सीरमपूर कॉलेज से उन्होंने ने कला संकाय में स्नातक की उपाधी ली। पढ़ने से ज्यादा उनकी रूचि आध्यात्म में थी। महज 17 वर्ष की उम्र में वे स्वामी युक्तेश्वर गिरी के शरणागत हो गए। युक्तेश्वर गिरी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे और सत्य को प्राप्त कर चुके थे। उनके साथ ध्यान की साधना करते हुए योगानंद को कई अलौकिक अनुभूतियां भी हुई जिनका जिक्र उन्होंने अपनी मशहूर पुस्तक एक योगी की आत्मकथा में किया है। योगाभ्यास पर इससे पहले किसी ने अपने जीवन के संस्मरणों को इतने प्रभावी ढंग से संजोया नहीं था। इस पुस्तक में उन्होंने अपने जीवन की घटना के साथ साथ सत्य के अनुभवों को भी साझा किया। 1920 में ही एक आध्यात्मिक सभा का हिस्सा बनने के लिए उन्हें अमेरिका जाने का अवसर मिला। वे पाश्चात्य देशों की आध्यात्म के लिए भारत पर निर्भरता को उस वक्त ही समझ गए थे। उन्होंने ‘सेल्फ रिअलाइजेशन फैलोशिप’ की स्थापना की। 1930 में वे भारत वापस आए और युक्तेश्वर गिरी जी के साथ योगदा सत्संग के कार्य में जुट गए। आज भी उनके द्वारा स्थापित योगदा संस्थान देश विदेश में है और क्रिया योग की शिक्षा दे रहा है। अपनी पुस्तक डिवाइन रोमांस में योगानंद लिखते हैं कि, आप स्वपनावस्थआ में ही इस धरती पर विचरण कर रहे हैं। हमें जो संसार दिख रहा है वो एक सपने में सपने के चलने जैसा है, इसमें सत्य कुछ भी नहीं। हर मानव मात्र को सत्य की और ईश्वर की आवश्यक्ता अनुभव होनी चाहिए क्यूंकि वहीं इस जीवन का अंतिम लक्ष्य है। उसके लिए इस संसार में सिर्फ आप है और आप को उसे ढूंढना ही होगा। योगानंद सत्य की आवश्यक्ता को अपने कई आख्यानों और पुस्तकों में जताते रहे हैं। सत्य के बहुत नामकरण हुए हैं। शरणानंद इसे ईश्वर कहते थे, जे. कृष्णमूर्ती इसे प्रेम कहते थे तो योगानंद इसे योग की प्राप्ति कहते थे। योग का चिंतन वही है जो पतंजलि ने कहा है। योगानंद परमहंस ने अपने समय और आवश्यक्ता का आकलन करते हुए योग की शिक्षा दी। इन सभी की शिक्षाओं या सत्य के स्वरूप में कोई भेद नहीं है, बस प्रक्रियाओं का अंतर दिखाई पड़ता है। योगानंद परमहंस ने ध्यान की जिस प्रक्रिया को अपने अनुयायिओं के सामने रखा उसे नाम दिया गया क्रिया योग। हांलाकि ये क्रिया योग उनके गुरू युक्तेश्वर गुरू, उनसे पहले लाहिड़ी महाशय और उनसे पहले योगगुरू बाबाजी के काल से प्रचलित रहा था। इसे पाश्चात्य देशों के साथ भारत में भी लोकप्रिय बनाने का कार्य योगानंद जी ने किया। ध्यान की किसी भी प्रक्रिया में हम जाएं, निर्विचारता को प्राप्त करना ही उसके मूल में होगा। योगानंद परमहंस योगनिद्रा को भी अपने अनुयायियों के सामने रखते थे। आप जब सोने के लिए जाते हैं तो विचारों की कौंध आपको सोने नहीं देती है। कई बार तो बहुत थकान होने के बावजूद आप विचारों की उथल पुथल से सो नहीं पाते हैं। विचारों को शिथिल करने के लिए लोग नशीली दवाओँ तक का सेवन करते हैं और फिर इसके इतने आदि हो जाते हैं कि कभी अपनी प्राकृतिक क्षमताओं को समझ ही नहीं पाते। योगानंद परमहंस निर्विचारता को किस हद तक साध चुके थे इस बात का अंदाज आप उनके के वीडियो से लगा सकते हैं जिसमें वे एक सैकेंड में ही सुष्पुतता में चले जाते हैं। ये विधा मैंने कई और योगियों में भी देखी है वे निर्विचारता के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें स्वप्न भी नहीं आते। अनुशासन को योगानंद ने योग की प्राप्ति के लिए प्राथमिक आवश्यक्त माना। वे खुद गुरू शिष्य परंपरा से योग को प्राप्त हुए थे इसीलिए उन्होंने योग की प्राप्ति के लिए विशेषज्ञों के मार्गदर्शन को जरूरी बताया। जब आप सत्य की ओर अग्रसर नहीं हुए हैं तो असत संसार से बाहर निकलना बहुत कष्टकारी होता है। बार-बार दुनिया का लालच आपको आकर्षित करता है। योगानंद कहते थे कि वर्तमान की शांति और सुंदरता में जीने वालों का भविष्य अपना ध्यान खुद रखता है। आप वर्तमान में आनंद और शांति में है और अपने वर्तमान की सुंदरता का आनंद ले रहे हैं तो भविष्य का आनंददायी होना आवश्यक है। हम वर्तमान में भविष्य के व्यर्थ चिंतन में लगे हैं तो निश्चित ही वर्तमान की अनदेखी होगी और जिसका वर्तमान नहीं होता उसका कोई भविष्य भी नहीं होता। वे इसके लिए ध्यान और ईश्वर स्मरण को ही उत्तम कर्म बताते हुए कहते हैं कि आप हाथी को काबू कर सकते हैं, शेर का मुंह बंद कर सकते हैं, आग-पानी पर चल सकते हैं, लेकिन सबसे उत्तम और मुश्किल काम है अपने मन पर काबू करना। मन पर काबू ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है और जितने भी ज्ञानी आज तक हुए हैं उन्होंने भिन्न- भिन्न विधियों से निर्विचार होने पर ही जोर दिया है। आप जितना ज्यादा निर्विचार रहने का अभ्यास करेंगे आत्मबल उतना ही ज्यादा बढ़ेगा और जितना आत्मबल बढ़ने से सदैव निर्विचारता और वर्तमान में बने रहने की सिद्धि मिल जाती है। जो वर्तमान को सिद्ध कर लेता है उसे ही सत्य की प्राप्ति होती है। ईश्वर की रचनात्मक शक्ति आपके भीतर भी मौजूद है। योगानंद कहते हैं कि इस शक्ति को पहचान कर जीवन में कुछ ऐसा काम कीजिए जिससे दुनिया चमत्कृत हो जाए। आप अलौकिक है और आपमें कृष्ण, बुद्ध और ईसा की सारी शक्तियां मौजूद है। वर्तमान की सुंदरता का आनंद लेते हुए अपनी शक्ति को पहचानिए और वो जीवन पाइये जिसके लिए आपका जन्म हुआ है।