महात्मा गांधी को किसने मारा? दक्षिणपंथ और उनकी
हत्या का क्या कनेक्शन है? गांधी को लेकर भी क्या कोई बहस हो सकती है? गांधी ये, गांधी
वो, गांधी राजनीति, गांधी पार्टी और जाने क्या क्या रोज सोशल साइट्स पर घूमता रहता
है। गांधी देश की राजनीति के लिए बहुत जरूरी हैं और गांधी आजादी के
पहले भी दुनिया की राजनीति के लिए अहम थे। जो अहमियत रखता है कार्टून्स उसी पर
बनते हैं। आजादी के पहले गांधी पर बहुत कार्टून बनते रहे। अपने कार्टून पर किए शोध
के दौरान मैंने आजादी के पहले के ऐसे कई कार्टून्स को शामिल किया था। गांधी पर
कार्टून सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर देश में बने। वो सिर्फ भारत
में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की राजनीति में एक रुतबा रखते थे। गांधी के आज देखे
एक कार्टून ने मुझे आज कुछ लिखने पर मजबूर कर दिया।
मुझे अपनी पीएचडी के फाइनल प्रेजेंटेशन की एक
घटना याद आ गई। इस मौके पर देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के हॉल में शहर के कई
गणमान्य लोग और पत्रकार मौजूद थे। मेरे गाइड और उस वक्त पत्रकारिता विभाग के
प्रमुख डॉ. मानसिंह परमार भी इस प्रेजेंटेशन को लेकर काफी उत्साहित थे। कुलपति औऱ
शहर भर के वरिष्ठ पत्रकारों की मौजूदगी में इस तरह से औपचारिक प्रेजेंटेशन कम होते
है और यही वजह थी कि हमारा पूरा विभाग इस मौके पर खासा उत्साहित था।
मुझ पर जिम्मेदारी ज्यादा थी क्यूंकि आखिरकार
मैंने क्या शोध किया है और वो पत्रकारिता विभाग के लिए किस काम का है, जैसे कई
मुद्दों को भी मुझे यहां साबित करना था। काफी लोगों ने इसकी सराहना की लेकिन एक
मौका ऐसा भी आया पूरा हॉल सन्न रह गया। यहां शहर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर
ख्यातनाम एक पत्रकार ने खड़े होकर अपनी गरजती आवाज में कहा डॉक्टर बनना तो दूर
तुम्हें जेल हो जाएगी प्रवीण। मैं उनकी इस बात से सकपका गया।
दरअसल इस शोध में मैंने देश और दुनिया के उन
कार्टून्स को भी शामिल किया था जिन पर विवाद हुए थे। ऐसे ही एक कार्टून को शोध के
साथ मैंने शामिल किया था। इस पर काफी चर्चा हुई। मैंने तर्क रखा की सार्वजनिक तौर
पर मैं इस कार्टून को नहीं रखने जा रहा ऐसे में इसे यहां रखने और इसके सार्वजनिक
प्रकाशन में फर्क हैं। वहां से तर्क आया ये थिसिस युनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में
रहेगी कई और शोधार्थियों के लिए रेफरेंस का काम करेगी ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता
कि इसके थिसिस में प्रकाशन और किताब और अखबारों के प्रकाशन में कोई फर्क है।
अंततः वहीं भरे सभागार में शोध से उन दो पन्नों
को मैंने फाड़ कर इस विवाद को शांत किया। सवाल तब भी मन में आया था कि इंटरनेट पर
ये सारी चीजें मौजूद हैं फिर क्या फर्क पड़ता है इन्हें छापने से? खैर शोध के दौरान
ये भी समझ गया था कि इनके प्रकाशकों की क्या हालत होती है। ये घटना मुझे एक ऐसे
कार्टून को फेसबुक पर तैरते हुए देखकर याद आई जिसमें गांधी जी के दस सिर दिखाए गए
हैं। कथित तौर पर इसे नाथूराम गोडसे की मैग्जीन के लिए प्रकाशित किया गया था। मुझे
नहीं लगता कि ये कार्टून बैन हुआ था। इसके बावजूद इस कार्टून के जरिए नाथूराम
गोडसे या किसी अन्य किसी की बदनामी से ज्यादा गांधी का अपमान होता दिखता है। इस
कार्टून का इस्तेमाल वो लोग ज्यादा करेंगे जो गांधी के बारे में कई बातें लिखते
रहते हैं।
हैरानी की बात ये है कि ये कार्टून गांधी जी के
प्रपोत्र तुषार गांधी ने पोस्ट किया था। यदि वो नाथुराम गोडसे को गलत व्यक्ति
मानते हैं तो उनके ऐसे कार्टून्स को संभाल कर रखने का मतलब समझ से परे है। मेरे
जैसे कार्टून के शोधार्थी ने भी जो विवादास्पद कार्टून नहीं देखा था उसे पूरी
दुनिया को दिखाने का काम गांधी के अपने वंशज कर रहे हैं। वो दरअसल नफरत के चक्कर
में गांधी के अपमान के मकसद से बनाई इन बातों को लोगों के बीच ज्याद प्रचारित कर
रहे हैं। इसी बात से आश्चर्य चकित होकर मैं गांधी जी के इन वंशज की टाइम लाइन पर
गया और वहां जाकर तो मेरी हैरानी की सारी हदें टूट गईं।
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गांधी जी के प्रपोत्र तुषार गांधी के नाम पर बने प्रोफाईल में 27 मार्च को ये कवर फोटो अपडेट किया गया था। |
27 मार्च को तुषार अरुण गांधी ने फेसबुक पर अपना कवर फोटो चेंज किया था। उन्होंने पाकिस्तान के झंडे को अपना कवर फोटो बनाया था। ऐसा
उन्होंने क्यूं किया ये तो बापू ही जानते होंगे लेकिन उनकी इस हरकरत ने कुछ दिन
पहले लिखे मेरे एक और ब्लॉग की याद दिला दी। बिहार में एक महिला के द्वारा
पाकिस्तान का झंडा फहराने को लेकर बहुत बवाल हुआ था। अनपढ़ों और गंवारों की क्या
बात करें, हमारे बापू के घर के लोग ही जब इस तरह की हरकत करने में लगें हैं तो हम
किसे मुंह दिखाएं? उनकी नाथूराम गोडसे से नफरत को समझा जा सकता है लेकिन पाकिस्तान के
झंडे से मुहब्बत को क्या समझा जाए? क्या इसे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहेंगे?
यदि ऐसा है भी तो
फिर गोडसे की मैग्जीन में छपे गांधी जी के कार्टून में उन्हें क्या बुराई लगती है? ये बातें साफ करती
हैं कि गांधी किसी के खून या नाम में नहीं बसते।
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