सोमवार, 28 अप्रैल 2014
देख तेरे टीवी की हालत क्या हो गई इंसान.....
शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014
मंदिरों में लोगों की मन्नतों का बोझ ढोने वाली मूरत
शनिवार, 12 अप्रैल 2014
हंसते चेहरे के पीछे पनपता अवसाद... खुदकुशी
खुदकुशी.... जो मानसिक रूप से स्वस्थ हैं वो ये शब्द सुनते ही सिहर जाते हैं। जो किसी अवसाद से ग्रस्त है वो किसी को बताते तक नहीं और मन ही मन इस खतरनाक फैसले के लिए खुद को मजबूत कर लेते हैं। गौर कीजिएगा मैंने कहा मजबूत। जीने की इच्छा का त्यागना एक ऐसा रोग है जो दिमाग में एक बार घुस जाए तो धीरे-धीरे अपनी जड़े मजबूत करता है और फिर वो होता है जिसे हम-आप सुनकर भी दहल जाएं। इस विषय पर लिखने का संदर्भ है एक 27-28 साल के युवा का ऐसा ही एक खतरनाक और रुला देने वाला फैसला। कपड़ों, अलग-अलग हेअर स्टाइल, दाढ़ी के अलग-अलग अंदाज रखने का ऐसा ही शौकीन लड़का था.... राहुल। परसों ही वो फांसी के फंदे पर झूल गया और उसके साथ काम करने वाला हर शख्स स्तब्ध रह गया। मैं भी उनमें से एक हूं। एक सीनियर के तौर पर राहुल मेरी बहुत इज्जत करता था और मैंने हमेशा उसे एक हंसमुख और दिलखुश मिजाज इंसान के तौर पर ही देखा था। सिर्फ मेरी ही नहीं मेरे साथ काम करने वाले हर साथी की यही प्रतिक्रिया थी की.. अरे ये कैसे हो सकता है.. कल ही तो मिला था.. मुझसे बड़े अच्छे से बात की थी। कोई नहीं जानता था कि उसके हंसते हुए चेहरे के पीछे एक अवसाद उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। उसके करियर में सबकुछ ठीक था लेकिन परिवार में शायद नहीं। वो अपने आप को इस खतरनाक फैसले के लिए तो तैयार कर रहा था लेकिन अपनी परेशानियों के आगे उसने हथियार डाल दिए थे। जो जानकारी मुझे उसके कुछ साथियों से मिली उसके मुताबिक आखिरी दिनों में नशाखोरी ने उसकी रही सही हिम्मत को भी तोड़ दिया था। मैं इस विषय को लेकर इसीलिए भी संवेदनशील हूं क्योंकि बीते साल ही मेरे ताउजी के बेटे यानि मेरे बड़े भाई ने भी ऐसा ही खौफनाक कदम उठाया था। आज तक परिवार इस बात को नहीं समझ पाया कि सब तो ठीक था फिर क्या हुआ? दरअसल ऐसी घटनाएं हम सब के लिए एक सबक हैं कि अच्छा और बुरा बाहर नहीं भीतर चलता है। यही वजह है कि जहां शारिरीक रूप से विकलांग तमाम लोग अपनी जिंदगी, सम्मान के साथ, खुशी-खुशी जीते हैं वहीं बाहर से स्वस्थ दिखने वाले ऐसे कई लोग भीतर से पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। आज की भाग-दौड़ की जिंदगी में हम व्यवसाय परिवार, सम्मान, धन, शोहरत सबकुछ पाना चाहते हैं और इन अपेक्षाओं के साथ-साथ कमियों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाते जा रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि ये सब हासिल मत कीजिए लेकिन पहले अपने अनमोल मानव जीवन की कीमत को समझिए। स्वामी शरणानंद कहते थे कि आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह खुश हो और क्या आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह दुखी हो। कोई किसी अंश में सुखी होता है तो वो किसी अंश में दुखी भी होता है। और ऐसा ही दुखियों के लिए भी है। जब तक हम सुख-दुख से अतीत का जीवन नहीं पा लेते ये चक्र यूं ही चलता रहेगा। ऐसा ही मामला टाटा समूह के एक बड़े अधिकारी का भी देखने को मिली था जो हाल में विदेश यात्रा के दौरान ऊंची इमारत से कूद गए थे। वैभव और सम्मान की उनके जीवन में कोई कमी नहीं थी। और ऐसा ये अकेला मामला नहीं है बाहर से समृद्ध और सुखी दिखने वाले कई लोगों ने ये काम किया है। ये तो साफ है कि इन परिस्थितियों में शांति नहीं है नहीं तो इन्हें प्राप्त करने वाले लोग सबसे शांत लोग होते। शांत इनके अभाव में भी नहीं है क्योंकि दुनिया में ज्यादतर लोग इसी अभाव को जीवन में रस नहीं होने की बड़ी वजह मानते हैं। इन दोनों ही परिस्थितियों से अतीत कोई जीवन तो है, जहां सचमुच रस है। उस रस को समझाते हुए कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि जल में रस मैं ही हूं। रस बाहर होता तो शायद सबको अच्छी लगने वाली कोई तो चीज होती। इन्द्रीय भोगों के जरिए भोग के आनंद को रस मानने के गलती करने वाले हमेशा इसमें फंसते जाते हैं और इस रस से अतीत किसी रस की अपेक्षा करते हैं जो सदैव उनमें है, उनका है और उनके लिए है। राहुल को श्रद्धांजली और ईश्वर से सबको विवेक की प्रार्थना के साथ। आपका डॉ प्रवीण श्रीराम
सोमवार, 7 अप्रैल 2014
तमसो मा 'गहनतमं प्रति' गमयः (अंधकार से गहन अंधकार की ओर!)
शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014
25 में मरे, 75 में दफने, क्या खाक जिए।
कई लोग 25 की उम्र में ही मर जाते है लेकिन दफनाया उन्हें 75 की उम्र में जाया जाता है। बेंजामिन फ्रेंकलिन की कही ये बात बहुत मशहूर है लेकिन इसके मायने समझने के लिए कभी हम रुकते ही नहीं हैं। हम पराधीन पैदा होते हैं और ये प्रकृति का नियम है। हमें भोजन, शिक्षा आदि मूलभूत जरूरतों के साथ-साथ खुशियों और दुख के लिए भी पराधीन ही रहना पड़ता है। यही प्रकृति और इसका सुंदर विधान हमें स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए स्वाधीन छोड़ देता है लेकिन पराधीनता इतनी बुरी तरह से जकड़ बना लेती है कि इससे निकल पाना असंभव सा लगने लगता है। उदाहरण के लिए हम सब अपने धर्म, मान्यताओं, संस्कारों और रिवाजों को आंख बंद करके आगे बढ़ाते रहते हैं। एक समय आता है जब हम मौलिक विचार त्याग कर बस जो दिमाग में ठूंसा गया है उसके आगे समर्पण कर देते हैं। रवींद्र नाथ टैगोर की गोरा ने क्या सुंदर चित्रण किया है कि रिवाजों और धर्म के अंधानुकरण की सच्चाई एक झटके में सामने आ जाती है। जब नायक को पता चलता है कि वो दरअसल एक दूसरे धर्म के माता-पिता की संतान है तो उसकी विचार धारा दूसरे धर्मों के प्रति नजरिया सबकुछ एक झटके में बदल जाता है। बदलाव क्या है बस यही कि हम अपनी मान्यताओं को बदल देते हैं? अगर सिर्फ इतना ही है तो अच्छे बुरे का विवेक तो हर मानव मात्र के पास है, हम इस पर अज्ञानता की मोटी चादर डालकर पराधीनता वश मिली गलत बातों को क्यों जिंदगी भर ढोते हैं। ध्यान दीजिएगा, गलत बातों को.. ऐसा नहीं है कि सब कुछ बुरा ही हम सीखते है, बहुत कुछ ऐसा भी सिखाया जाता है जो प्रज्ञा जागरण की ओर या यूं कहे स्वाधीनता की ओर ले जाता है। फ्रेंकलिन ने ठीक ही कहा है जो 25 के पहले या अपने युवाकाल में इस स्वाधीनता की ललक अपने अंदर पैदा नहीं कर पाते वो बस खुद को और खुद पर लादे हुए बोझ को जीवन पर्यंत ढोते रहते हैं। कामयाबी और नाकामी के चाहे जो पैमाने आप बनाएं, चाहे व्यवसायिक हो, आध्यात्मिक हो या सामाजिक और पारिवारिक हो.. हर आदर्श में आप सही समय पर उस विषय के प्रति लगाव और जुट जाने की बात आपको कॉमन मिलेगी। सही समय से तात्पर्य है युवावस्था में और कई विरले मौकों पर किशोरावस्था में ही अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ जाने की पहल दिखती है। वैसे हाल में एक मोटिवेटर को मनोवैज्ञानिकों के शोध के बारे में कहते सुना था। इस शोध की प्राप्ति ये है कि आप चाहे जो काम करें वो आपको हर क्षैत्र में कुछ न कुछ योग्यता दिलाता है। उदाहरण के लिए शतरंज खेलने वाले या संगीत सीखने वाले अगर किसी और काम को करना शुरू करते है चाहे वो किसी तरह का शोध ही क्यूं न हो, वहां भी उनके लॉजिक्स और दिमागी योग्यता का उन्हें फायदा मिलता है बेशक इनका सीधे कोई लेना देना इस विषय से हो या नहीं। फिर ये तो मानना ही होगा कि अगर उसी दिशा में पहले से ही लग जाया जाए तो क्या ही बेहतर नतीजे हमारे सामने होंगे। स्वामी विवेकानंद ऐसे ही युवा-युवा कहते नहीं रह गए वो जानते थे और अपने निजी जीवन से भी उन्होंने सीखा था की युवावस्था ऊर्जा से भरपूर है और इस अवस्था का सदुपयोग नहीं हुआ तो फिर उम्र के अवशेषों से कोई बहुत बेहतर परिणाम नहीं निकल आएंगे। कुछ लोग उदाहरण देते हैं कि फलां ने 80 साल की उम्र में ये किया, 60 साल की उम्र में ये पाया आदि। खबरों के लिहाज से तो ये रोचक है लेकिन बेशकीमती मानव जीवन की संभावनाओं के दृष्टिगोचर तो ये कुछ नहीं। कोई सज्जन 70 साल की उम्र में 10 वीं की परीक्षा पास करते हैं तो खबरों के लिहाज से तो ये बढ़िया दिखाई पड़ता है लेकिन अगर मानव जीवन की प्राप्ति के लिहाज से देखें तो ये शौक पूरा करना मात्र है। युवा अपने इर्द-गिर्द जो देख रहे हैं उसका अनुसरण कर रहे हैं। हम उनके सामने जैसी दुनिया रख रहे हैं उसी की सवारी करने की तैयारी वो करते हैं। मेरी ये बात उन युवाओं से है जिन्हें वाकई लगता है कि जीवन का एक मकसद होता है और ये जीवन बहुत कीमती है। वो आज अपनी ऊर्जा को सही दिशा में लगा लें और मेहनत करें तो वो भी विवेकानंद, सचिन, आनंद या कोई भी आदर्श सामने रख लीजिए जिसने अपनी ऊर्जा को किसी एक मकसद में लगाया और समाज को कुछ देकर गया, की तरह बन सकते हैं। ये बात बहुत सामान्य सी लगती है लेकिन जिस पराधीनता का अभ्यास हमने बचपन से किया है उसकी वजह से इस दिशा में इच्छा शक्ति कमजोर पड़ती है। पर्वतारोही चढ़ाई के वक्त अपने साथ कम से कम सामान रखते हैं, सिर्फ उतना ही जितना उनकी जिंदगी बचाने के लिए जरूरी है। जिंदगी की चढ़ाई में हम बड़ी भूल कर जाते है जब गैर जरूरी सामानों को भी लादे रखते हैं और दिन ब दिन नई बातें, चीजें और लादते जा रहे हैं। याद रखिए उतना ही लादिए जितना आपका लक्ष्य हासिल करने के जरूरी है। 25 की उम्र का तो पता नहीं लेकिन ऊर्जा और मानसिक शक्ति की क्षरण की शुरुआत से पहले ही आपने बेवजह के वजन को उतारना और सही दिशा में ऊर्जा को लगाना नहीं सीखा तो फिर यही मानिये की ये दुनिया भी आपको ढो ही रही है और बेशक दफनाया आपको 75 में जाए लेकिन मर आप 25 में ही चुके हैं। डॉ प्रवीण श्रीराम
गुरुवार, 3 अप्रैल 2014
भविष्य कोई और क्यों बताए जब मैं इसे बना सकता हूं?
"जो व्यक्ति ज्योतिषियों से भविष्य पूछता है, वह अनजाने में ही भावी घटनाओं के आंतरिक आभास को खो देता है, जो ज्योतिषियों की भविष्यवाणी कथन से हजार गुना सटीक होता है।" वॉल्टर बेंजामिन।
मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि ज्योतिष शास्त्र कितना सही है कितना गलत या सचमुच कोई भविष्य बता सकता है या नहीं। मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि भविष्य को जानने की अपेक्षा के उद्गम के मूल में क्या है? आपने आमतौर पर सुना होगा बड़े-बड़े कामयाब और नामचीन लोग भी ज्योतिषियों की शरण लेते हैं। साफ है सिर्फ करियर या शोहरत या आने वाले कल में जीवन कुछ और वैभवशाली हो या कुछ और फायदा हो जैसी बातों तक भविष्य का ये रोमांच सीमित नहीं होता है। जीवन में क्या और रोमांच होंगे, क्या चिंताएं होंगी, किस तरह की परेशानियां या प्राप्तियां हो सकती है के साथ ही वर्तमान की वो बातें जिन पर वश नहीं चल रहा है का क्या निराकरण होगा जैसी जिज्ञासाएं इस विषय के पल्लवित और पुष्पित होने में सहायक रही हैं। आगे बढ़ने से पहले मैं एक बार फिर ये साफ कर देना चाहता हूं कि ज्योतिष की सत्यता और असत्यता से इस पोस्ट का कोई लेना देना नहीं है। उसकी आवश्यक्ता के मूल पर हम विचार कर रहे हैं। हाल के दिनों में एक बढ़िया किताब पढ़ने को मिली, द लक फैक्टर। लक या किस्मत एक ऐसी विषय वस्तू है जिसके बारे में हम सब जानते तो हैं लेकिन उसे कभी समझ नहीं पाते। उपरोक्त किताब में इस विषय पर जोर दिया गया है कि दरअसल भाग्य हमारे वश के बाहर नहीं होता, उसे काबू किया जा सकता है और उसे मनचाहे ढंग से संवारा भी जा सकता है। एक संत भी हाल के दिनों में संपर्क में आए उनसे इस विषय पर चर्चा हुई तो उन्होंने भाग्य की आवश्यक्ता और अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया। बात में दम भी था, आखिर भाग्य की आवश्यक्ता क्या है पहले इस पर विचार करिए, आप भाग्यशाली हैं या नहीं इसे बताने और आपको भाग्यशाली बनाने का धंधा तो बाद में सामने आता है। भाग्य के मूल में शामिल है अप्राप्त परिस्थिती का चिंतन। काश मैं ऐसा होता, इसके यहां पैदा होता, दादाजी या पिताजी ऐसा कर देते, मेरी किस्मत उस जैसी क्यूं नहीं? अलग-अलग व्यक्तित्वों में इन्हीं प्रश्नों का पैमाना और किरदार बदलते रहते हैं पर मूल में वही होता है काश में ऐसा होता। अब काश में ऐसा होता को सचमुच कर देने का कोई दावा मात्र भी कर दे तो सारे भाग्यवादी उस महानुभाव की प्रोफेशनल फीस देने से कतराते नहीं है। बाकी का काम हमारे सम्मानित टीवी चैनल्स करते हैं, जहां इन्हीं भविष्यवक्ताओं के वैतनिक कर्मचारी, दी गई सलाहों से अपने जीवन में आए बदलाव का ढिंढोरा पीटते हैं और कुछ और ग्राहक पकड़ में आ जाते हैं। आज ये धंधा जमकर फल फूल रहा है। टेलीविजन इंडस्ट्री से जुड़े हुए मुझे भी लंबा समय हो गया है। टीआरपी देने वाले शो होने की वजह से मैंने टीवी पर जमकर इन शोज को चलते देखा है और कई ज्योतिषियों की हकीकत को समझा भी है। पिछले दस सालों में तो जैसे इन भविष्यवक्ताओं की बाढ़ सी आ गई है। टीवी पर चमकने में वाले कई ज्योतिषियों को मैने खुद पनपते हुए देखा है और कुछ को मैं बहुत निजी तौर पर जानता हूं। कुंडली दिखवाने और भविष्य जानने की मेरी अनिच्छा को देखते हुए उन्होंने मुझे अपने धंधे से जुड़े कुछ पहलू भी बताए। निजी संबंधों का मान रखते हुए इन्हें तो मैं सार्वजनिक नहीं कर पाउंगा लेकिन हां इतना कह सकता हूं कि कई अच्छे ज्योतिषि मनोवैज्ञानिक होते हैं। किसी व्यक्ति के हाव-भाव, वर्तमान स्थिति, सामान्य ज्ञान, बात-चीत आदि से उस व्यक्ति के बारे में कई जानकारियां मिलती हैं। वॉल्टर बेंजामिन की जो बात मैंने पहले लिखी उसके मुताबिक इन लोगों के चक्कर में रहने वाले लोग भावी घटनाओं के आंतरिक आभास के साथ-साथ अपना मनोबल भी खओ देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है अब उनके हाथ में कुछ है ही नहीं। खैर इस बात की पुष्टि के लिए बहुत लंबा ब्लॉग लिखा जा सकता है लेकिन अपने द्वारा तय की गई शब्द सीमा तक पहुंचने के बाद मैं भविष्यवक्तओं के चक्कर लगाकर चक्कर में आने वालों से कुछ कहना चाहता हूूं। अपनी किताब 48 LAWS OF POWER में लेखक ROBERT GREENE ने इस बात पर जोर दिया है कि दूरंदेशी बहुत जरूरी होती है। हम आज में रहने और जीने की फिलॉसफी तो बहुत पढ़ते सुनते रहे हैं लेकिन हमें परेशानी अपने कल को लेकर ही होती है। दूसरी अहम बात हम सब कुछ अभी पाना चाहते हैं। जो चीज किसी को सालों में मिली है जो हुनर किसी को सालों के रियाज के बाद मिला है वो हमें आज चाहिए यानि सांई बाबा की तस्वीर पर लटका लेने से कुछ नहीं होगा उस पर लिखे उनके महान संदेश सबुरी या सब्र को भी समझना होगा। अगर आज शांति से बैठकर हम कल की योजना बनाने तक सीमित न रहकर उस दिशा में कुछ करना शुरू कर दें तो अभी से आपकी किस्मत के पन्ने पर किसी अलौकिक शक्ति की कलम चलनी शुरू हो जाएगी। आप अपने भविष्य वक्ता खुद बन सकते हैं बशर्ते अपने सपनों को अपने सामने स्पष्ट रखें और उन पर क्या काम आप रोज करते हैं उसे रोज़ किसी डायरी में नोट करते जाएं। ये इसीलिए भी महत्वपूर्ण है कि ऐसा करने से आपने अपना दिन, महिना या साल कैसे बर्बाद किया का स्वलिखित दस्तावेज आपके पास होगा। आप अपने दुर्भाग्य पर किसी अदृश्य शक्ति को दोष नहीं दे पाएंगे और अगर आप थोड़ा भी काम रोज करते हैं तो आपको आगे की सीढ़ियां स्वतः मिलती जाएंगी, साथ है आपके भाग्य निर्माण का श्रेय भी कोई और भविष्यवक्त नहीं ले जाएगा। तमाम टोटके और मेहनत तो वो भी करते हैं जो ज्योतिषाचार्यों के पास जाते हैं। जरा कभी अपने टोटके और काम खुद तय करके देखिए कितना मजा आएगा और सेल्फ मोटिवेशन के लिए किसी गुरू को पढ़ने की जरूरत भी न होगी क्योंकि आप अपने गुरू स्वयं ही होंगे। तो बनाइए अपना भाग्य और लिखिए अपनी कहानी खुद।
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