सोमवार, 28 अप्रैल 2014

देख तेरे टीवी की हालत क्या हो गई इंसान.....


टीवी के अंदर बैठने वालों को टीवी के सामने बैठने का मौका कम ही मिल पाता है। खबरों में रहने की वजह से न्यूज चैनल कभी-कभी बोर करने लगते हैं। फिर नवांगतुक या अंडर ट्रैनिंग एंकर्स की अलोचना करते रहने से भी मन ऊब गया है। सच पूछिए तो खुद को भी कोई बहुत अच्छे एंकरों में नहीं गिनता और अपनी एंकरिंग से ही बोर हो गया हूं तो कहीं और क्या पत्थर उछालूं। हां अब जब बड़े-बड़े संपादकों को एंकर बनने की चेष्टा करते देखता हूं तो इन बच्चों की एंकरिंग से भी प्यार होने लगता है। दरअसल असरदार संपादकों को एंकर बनने का कीड़ा काट गया है इनमें से ज्यादातर तो वे हैं जो एंकरिंग के काम को ही हेय दृष्टि से देखा करते थे। एंकरों को जमकर गालियां निकालने वाल ऐसे कई मूर्धन्य बड़े-बड़े पत्रकार अब अपनी उम्दा एंकरिंग के लिए दर्शकों और अपने से बहुत छोटे एंकरों की आलोचनाओं का शिकार हो रहे हैं। जीवन में अनुभव का ही महत्व है, कैमरे के सामने कांपते, भूलते और बहुत लंबे-लंबे सवाल पूछते इन प्रभावशाली पत्रकारों को अब शायद अच्छे एंकरों के प्रति सम्मान की सहज प्राप्ति हो गई होगी। पिछले दो सालों में एक और जमात पैदा हो गई है और ये है बहुत समय से खाली बैठे पत्रकारों के विशेषज्ञ बनने की। आजकल ये विशेषज्ञ इतनी डिमांड पर हैं कि इनकी कई-कई दिनों पहले से बुकिंग हो रही है और चैनल भी इन्हें अच्छे-तगड़े दाम देकर साल-छह महीने के लिए अपने साथ जोड़ रहे हैं। सुबह से शाम तक ये विशेषज्ञ अपने घर बैठे-बैठे ही विभिन्न चैनलों के माध्यम से घर-घर टप्पे खा लेते हैं और शाम तक ठीक-ठाक कमाई भी हो जाती है। अब तो बड़ी मनुहार के बाद भी वो पकड़ में नहीं आते जो कभी फोन करके कहा करते थे कि कोई पैनल डिस्कशन वगैरह हो तो बताना, अपना भी चेहरा चमक जाएगा। किसी को ओबी चाहिए तो किसी को बेहतर चैक मिल रहा है, तो भई बैनर और चैनल की टीआरपी तो अहम है ही ना? इससे पहले शायद पत्रकारों का इससे अच्छा दौर नहीं रहा होगा और मेरा तो कार्यक्षेत्र यही है जाहिर तौर पर मेरा खुश होना तो बनता है। अरे हम भी तो कभी इस लायक होंगे.. हैं.. नहीं क्या? खैर मुद्दा ये है कि इनमें से ज्यादातर के साथ स्क्रीन शेयर कर लेने के बाद इन्हें किसी और स्क्रीन पर देखने की बहुत ज्यादा दिलचस्पी हममें तो नहीं रहती हैं। अब धंधे की मजबूरी कहिए या न्यूज चैनलों को मेरे नहीं देख पाने की पर्याप्त वजह कहिए इनकी स्थिति को देखते समझते हमने रुख किया फिल्मी चैनलों का। बड़ी मजेदार साउथ की हिंदी में डब्ड फिल्मों का जमाना चल रहा हैं, अपने को पसंद भी है... पर जनाब इतना समय कहां कि 3 घंटें बैठ जाएं। सिनेमा घर का मुंह देखे जमाना बीत गया है, सुना है सिनेमा देखने का तौर तरीका बहुत बदल गया है। समयाभाव के चलते आजकल की फिल्मों और संगीत का हालचाल जानने के लिए हमने म्यूजिक चैनलों का रुख कर लिया। पर कुछ पर तो म्यूजिक नहीं कुछ और ही था। कॉलेज के (वैसे हरकतों से पढ़ने-लिखने वाले नहीं लग रहे थे)छात्रों के कुछ अनाप-शनाप एडवेंचर, खतरनाक प्यार मुहब्बत और मैं तुझसे ज्याद अभद्र और अश्लील की प्रतियोगिता के बीज कुछ म्यूजिक चैनल सचमुच फिल्मी गाने और प्रोमो दिखा रहे थे। किसी भी चैनल को देखिए ऐसा लगता है लूप बनाकर डाल दिया है और थोड़ी-थोड़ी देर में हर चैनल पर एक जैसी चीजें सामने होती हैं। इनसे आगे बढ़े तो आध्यात्मिक चर्चाओं और प्रवचनों को सुनने की पुरानी खुजली ने डिवोशनल चैनल्स की तरफ आकर्षित किया। पहले बाबा से कुछ हैल्थ टिप्स मिल जाते थे लेकिन उन्होंने जबसे लाइन चैंज की डिवोशनल चैनल्स की भी लाइन चैंज हो गई है। शायद आप जानते हो की 50 से ज्याद डिवोशनल चैनल्स चल रहे हैं और धड़ल्ले से कई और आ रहे हैं। भाग्य बताने वालों की बड़ी जमात अब इन चैनलों का सदुपयोग करने में जुटी हुई है। चैनल वाले भी इनसे पैसा लेते हैं और इसके बाद वो तेल चढ़वाकर जनता का कैसे तेल निकालते हैं इससे उनका कोई लेना देना नहीं होता। इनमें से कितनों की ट्रैनिंग अपने अंडर ही हुई है। गंदा है पर धंधा है ये। टीआरपी के लालची हम जैसे लोगों ने ही तो इन नौनिहालों को सेलीब्रिटी एस्ट्रौलॉजर, वास्तुशास्त्री और जाने क्या क्या बनाया है। बिना लैपटॉप ऑन किए, उसमें झांक-झांककर या बस सवाल सुनकर किसी के जीवन की गंभीर समस्याओं का समाधान खट से बता देने की इनकी कला से मैं बखूबी वाकिफ हूं सो इन्हें बर्दाश्त करना असंभव था। भविष्य संवारने वालों के साथ-साथ केश संवारने और बॉडी बिल्डर बनाने वाले, या खाते-खाते टीवी के सामने बैठे रहने वाली महिलाओं को दुबला-पतला बना देने की तकनीक और दवाइयां भी धड़ल्ले से इन चैनलों पर बिक रही हैं। फिर अपनी-अपनी दुकानों (संस्थाओं) का प्रचार करने वाले कथित ज्ञानियों के ज्ञान भी अब अपच्य से लगने लगे हैं। इन सबसे बचकर कुछ आगे बढ़ा तो ठहर गया। आपको ऐसा लगता है कि किसी अंग्रेजी फिल्म का कोई 'धांसू' सीन सामने आ गया या फैशन टीवी का नंबर दब गया तो माफ कीजिएगा आप गलत हैं। दरअसल बचपन की यादें ताजा हो आई जब कार्टून नेटवर्क पर टॉम एंड जैरी देखा। यादों के साथ-साथ हंसी भी ताजा हो आई। कार्टून तो हर चैनल पर आ रहे हैं लेकिन हंसी नहीं है और वो खुद को कार्टून मानने को भी तैयार नहीं हैं क्योंकि इंसान की शक्ल में जो हैं। ये इंसान होना हमेशा गलत-फहमी पैदा कर देता है। हमें ही लो जैसे टीवी को सर्टिफिकेट देना का ठेका जाती हुई सरकार ने हमें ही दे दिया हो। कुछ देर कार्टून चैनल के विशेषज्ञों टॉम एंड जैरी को देखा फिर घड़ी पर नजर दौड़ाई तो दफ्तर जाने की याद आई। मैं उठा, सजा-धजा, बैग और गाड़ी की चाबी ली और निकल पड़ा कार्टून बनने के लिए। लेकिन कुछ बदलाव के साथ, अब जब टीवी के अंदर से बाहर झांकूंगा तो इस अहसास के साथ की बाहर से अंदर झांकने वाले के साथ नाइंसाफी न करूं और मैं टॉम एंड जैरी का काम उन्हीं को करने दूंगा। आपका, डॉ. प्रवीण श्रीराम

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

मंदिरों में लोगों की मन्नतों का बोझ ढोने वाली मूरत


A scientific theory is a well-substantiated explanation of some aspect of the natural world that is acquired through the scientific method, and repeatedly confirmed through observation and experimentation. विज्ञान की ये सुलभ परिभाषा है जो कहती है कि दुनियावी चीजों की कार्यप्रणाली और अस्तित्व को समझने के लिए वैज्ञानिक तरीकों से बार-बार प्रयोगों और उनकी प्राप्तियों के आधार पर किसी वैज्ञानिक सिद्धांत को बनाया जाता है। आने वाले दिनों में शोधार्थी इसके अन्य पहलुओं पर काम करते हैं और हम विज्ञान के उच्चतम स्तर तक पहुंचते जाते हैं। क्या ही सुंदर परिभाषा है और क्या ही सुंदर हमारा विज्ञान भी है। मैं विज्ञान का ही छात्र रहा हूं और इसमें मेरी बहुत आस्था है। हांलाकि जब कोई छद्म वैज्ञानिक मित्र ईश्वर में आस्था रखने वालों पर प्रश्न खड़े करते है या उनका परिहास करता है तो बुरा लगता है। एक टीवी चर्चा के दौरान ऐसे ही एक मित्र ने ईश्वर आस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए और इसे अंधविश्वास करार दिया। मैं खुद अंधविश्वास के बहुत खिलाफ रहा हूं और मुझे ठीक नहीं लगने वाले कई रिवाजों का मैंने विरोध भी किया है लेकिन ईश्वर में अविश्वास का बीज मुझ में नहीं पड़ पाया। मैं एंकर की भूमिका में था तो मैंने उनसे एक प्रश्न पूछा कि विज्ञान हमेशा निरंतर अनुभवों और प्रयोगों की बात कहता है, आप किस प्रयोग के आधार पर इस सृष्टि के आधार को नकारते हैं। उनका जोर इस बात पर रहा कि किस आधार पर ईश्वर है कि बात कही जाती है, इसका प्रमाण क्या है? मैंने उनसे कहा कि आज वैज्ञानिक जानते है कि तुलसी के पत्ते में क्या-क्या रसायन होते हैं और उनके क्या गुणधर्म हैं, लेकिन जब नहीं जानते थे तब क्या उसके गुण कम थे। ऐसा भी नहीं है कि हमने जानने के बाद उसके गुणों को बढ़ा दिया है। अपने अपनी भाषा में बस उसे समझ लिया है। ऐसे ही जल, आकाश, पाताल, अंतरिक्ष और जाने क्या क्या खोजें हम करते जा रहे हैं और जानते जा रहे हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि हम अपने ही जीवन को शायद सुगम बनाते जा रहे हैं। शायद इसीलिए की सैटेलाइट टीवी, फोन, कार, ऊंची ईमारते और जाने क्या-क्या आज हमें वैभव का दर्शन तो कराती है लेकिन क्या ये जीवन की सुगमता है या प्रकृति से दूर जाना है, इसका फैसला आप खुद कीजिए? घूमने के लिए आज भी बगीचा ढूंढते हैं आप लेकिन वो दिन दूर नहीं जब ट्रेड मिल ही हमारा बगीचा रह जाएगा और एसी की हवा ही ताजी हवा रह जाएगी। मैं ये नहीं कहता कि फिर से जंगली हो जाओ और ये भी नहीं कहता कि विज्ञान के प्रयोगों को नजरअंदाज कर दो हां जहां तक हो सकता है उसके दुरपयोग को रोक दो। अब फिर विषय पर लौटिए, ईश्वर का अनुभव तो कइयों ने किया है और उन्हीं की तस्वीरों और मूर्तियों से आपने अपना घर भी सजा रखा है लेकिन ईश्वर के अस्तित्व पर वो भरोसा नहीं होता जो किसी अनुभवी को हुआ होगा। स्वामी शरणानंद कहते हैं हर मानव मात्र को वही अनुभव हो सकता है जो कभी भी किसी भी महामानव को हुआ है बशर्ते उसके प्रति सतत आस्था बनी रहे, और सिर्फ उसी में आस्था रहे किसी और में नहीं। हम डिग्रियां पाने, नौकरियां पाने, प्यार पाने, सम्मान पाने के लिए तो पागलों की तरह भागे जा रहे हैं लेकिन न तो ईश्वर को पाने से हम लगातार दूर होते जा रहे हैं और अब वो सिर्फ मंदिरों में लोगों की मन्नतों का बोझ ढोने वाली मूरत भर बनकर रह गया है। विज्ञान हर बात पर प्रयोगों, अनुभवों और प्राप्तियों पर फिर प्रयोगों की बात तो कहता है लेकिन सहज और सुलभ ही मिल जाने वाले ईश्वर की उसे कोई आवश्यक्ता महसूस नहीं होती। दुनिया में जितने वैज्ञानिक ईश्वर को समझ पाए वे ही कुछ मौलिक आधार आने वाली पीढियों को दे पाए हैं। मुझे भी ईश्वर का अनुभव नहीं हुआ है लेकिन मेरा विश्वास है कि वो मुझमें ही कही हैं बस लगातार घनी होती दुनिया की मोटी परत को साफ करके उसे खोजने की कोशिश करनी होगी। ईश्वर न होता तो सबकुछ हमारी सीमा से बाहर निकल जाने के बाद वही ईश्वर हमें याद नहीं आता। अगर उसे परेशानियों में याद करते हो तो सतत याद करने से उसकी प्राप्ति भी कर सकते हो। मैं ज्यादा नहीं जानता लेकिन जितना पढ़ा और सुना है उसके मुताबिक ईसा, साँई, शंकराचार्य, पैंगबर जिसने भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया और उसकी खोज की उसका रूप भी वही हो गया जो ईश्वर का होता है। आप भी ईश्वर का वही रूप हो सकते हैं लेकिन पहले खुद मन्नतों को पैदा करने के बोझ से बचिए और इस मूरत मैं वही प्रेम देखिए जो बावली मीरा ने देखा था। मुझे विश्वास है कि विज्ञान भी अगर गंभीरता से आध्यात्म की आवश्यक्ता को समझते हुए इससे संबंधित प्रयोग करेगा तो उसके हाथ कुछ ना कुछ जरूर लग जाएगा हांलाकि प्रमाणों से ज्यादा आवश्यक है अनुभव और जब सब पाने के लिए भागते दौड़ते हो तो क्या ये बिना मेहनत के चाहिए? डॉ. प्रवीण श्रीराम

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

हंसते चेहरे के पीछे पनपता अवसाद... खुदकुशी

खुदकुशी.... जो मानसिक रूप से स्वस्थ हैं वो ये शब्द सुनते ही सिहर जाते हैं। जो किसी अवसाद से ग्रस्त है वो किसी को बताते तक नहीं और मन ही मन इस खतरनाक फैसले के लिए खुद को मजबूत कर लेते हैं। गौर कीजिएगा मैंने कहा मजबूत। जीने की इच्छा का त्यागना एक ऐसा रोग है जो दिमाग में एक बार घुस जाए तो धीरे-धीरे अपनी जड़े मजबूत करता है और फिर वो होता है जिसे हम-आप सुनकर भी दहल जाएं। इस विषय पर लिखने का संदर्भ है एक 27-28 साल के युवा का ऐसा ही एक खतरनाक और रुला देने वाला फैसला। कपड़ों, अलग-अलग हेअर स्टाइल, दाढ़ी के अलग-अलग अंदाज रखने का ऐसा ही शौकीन लड़का था.... राहुल। परसों ही वो फांसी के फंदे पर झूल गया और उसके साथ काम करने वाला हर शख्स स्तब्ध रह गया। मैं भी उनमें से एक हूं। एक सीनियर के तौर पर राहुल मेरी बहुत इज्जत करता था और मैंने हमेशा उसे एक हंसमुख और दिलखुश मिजाज इंसान के तौर पर ही देखा था। सिर्फ मेरी ही नहीं मेरे साथ काम करने वाले हर साथी की यही प्रतिक्रिया थी की.. अरे ये कैसे हो सकता है.. कल ही तो मिला था.. मुझसे बड़े अच्छे से बात की थी। कोई नहीं जानता था कि उसके हंसते हुए चेहरे के पीछे एक अवसाद उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। उसके करियर में सबकुछ ठीक था लेकिन परिवार में शायद नहीं। वो अपने आप को इस खतरनाक फैसले के लिए तो तैयार कर रहा था लेकिन अपनी परेशानियों के आगे उसने हथियार डाल दिए थे। जो जानकारी मुझे उसके कुछ साथियों से मिली उसके मुताबिक आखिरी दिनों में नशाखोरी ने उसकी रही सही हिम्मत को भी तोड़ दिया था। मैं इस विषय को लेकर इसीलिए भी संवेदनशील हूं क्योंकि बीते साल ही मेरे ताउजी के बेटे यानि मेरे बड़े भाई ने भी ऐसा ही खौफनाक कदम उठाया था। आज तक परिवार इस बात को नहीं समझ पाया कि सब तो ठीक था फिर क्या हुआ? दरअसल ऐसी घटनाएं हम सब के लिए एक सबक हैं कि अच्छा और बुरा बाहर नहीं भीतर चलता है। यही वजह है कि जहां शारिरीक रूप से विकलांग तमाम लोग अपनी जिंदगी, सम्मान के साथ, खुशी-खुशी जीते हैं वहीं बाहर से स्वस्थ दिखने वाले ऐसे कई लोग भीतर से पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। आज की भाग-दौड़ की जिंदगी में हम व्यवसाय परिवार, सम्मान, धन, शोहरत सबकुछ पाना चाहते हैं और इन अपेक्षाओं के साथ-साथ कमियों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाते जा रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि ये सब हासिल मत कीजिए लेकिन पहले अपने अनमोल मानव जीवन की कीमत को समझिए। स्वामी शरणानंद कहते थे कि आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह खुश हो और क्या आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह दुखी हो। कोई किसी अंश में सुखी होता है तो वो किसी अंश में दुखी भी होता है। और ऐसा ही दुखियों के लिए भी है। जब तक हम सुख-दुख से अतीत का जीवन नहीं पा लेते ये चक्र यूं ही चलता रहेगा। ऐसा ही मामला टाटा समूह के एक बड़े अधिकारी का भी देखने को मिली था जो हाल में विदेश यात्रा के दौरान ऊंची इमारत से कूद गए थे। वैभव और सम्मान की उनके जीवन में कोई कमी नहीं थी। और ऐसा ये अकेला मामला नहीं है बाहर से समृद्ध और सुखी दिखने वाले कई लोगों ने ये काम किया है। ये तो साफ है कि इन परिस्थितियों में शांति नहीं है नहीं तो इन्हें प्राप्त करने वाले लोग सबसे शांत लोग होते। शांत इनके अभाव में भी नहीं है क्योंकि दुनिया में ज्यादतर लोग इसी अभाव को जीवन में रस नहीं होने की बड़ी वजह मानते हैं। इन दोनों ही परिस्थितियों से अतीत कोई जीवन तो है, जहां सचमुच रस है। उस रस को समझाते हुए कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि जल में रस मैं ही हूं। रस बाहर होता तो शायद सबको अच्छी लगने वाली कोई तो चीज होती। इन्द्रीय भोगों के जरिए भोग के आनंद को रस मानने के गलती करने वाले हमेशा इसमें फंसते जाते हैं और इस रस से अतीत किसी रस की अपेक्षा करते हैं जो सदैव उनमें है, उनका है और उनके लिए है।
राहुल को श्रद्धांजली और ईश्वर से सबको विवेक की प्रार्थना के साथ। आपका डॉ प्रवीण श्रीराम

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

तमसो मा 'गहनतमं प्रति' गमयः (अंधकार से गहन अंधकार की ओर!)


तमसो मा ज्योतिर्गमय... यानि अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें.... हम सभी बचपन से इस प्रार्थना को सुनते या गाते आ रहे हैं। ये भी सुनते हैं कि ज्ञान का प्रकाश हो अज्ञानता हटे। इसकी आवश्यक्ता में भी कोई संदेह नहीं क्योंकि ये आज से नहीं सनातन समय से चली आ रही आवश्यक्ता है। इसके बावजूद कुछ तो है जो इस महान ज्ञान के हमारे साथ बने रहने के बावजूद हम लगातार अंधकार में जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता इस पर कोई ज्यादा चर्चा करने की जरूरत है कि बीतते वक्त के साथ हम बेशक सुविधा और वैभव के नए संसाधन के लिहाज से हम खुद को लगातार आगे बढ़ाते जा रहे हैं, लेकिन साथ ही साथ मानवीय गुणों और मूल्यों को लगातार गिराते भी जा रहे हैं। कैसे? का जवाब बहुत मुश्किल नहीं क्योंकि ये तो आप सभी जानते हैं कि शारीरिक हो या मानसिक दोनों स्तरों पर आज के मानव की स्थिति बहुत अच्छी दिखाई नहीं देती। दुनिया बढ़ेगी यानि, यही भौतिक जगत, तो बहुत जाहिर सी बात है कि भोग बढ़ेगा और भोग बढ़ेगा तो हम चाहे प्रकृति हो या चाहे खुद का शरीर सबके साथ खिलवाड़ करेंगे। परिवार की संकल्पना का धीरे-धीरे पतन होना, नए-नए रोगों का पैर पसार लेना (जिन्हें हम प्यार से लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं), दूसरों के प्रति क्रोध-ईर्ष्या जागना.. आदि इत्यादि जैसी तमाम बातें हैं जो आज हमारे सतत गहन अंधकार की ओर पतन का संकेत है। ये तो सत्य है कि धरती का नाश होगा, आज नहीं तो कल। संभाल कर चलेंगे तो थोड़ा देरी से और जल्दीबाजी करेंगे तो थोड़ा और तेजी से, लेकिन यहां प्रश्न उससे भी बड़ा है कि क्या हम और आप फिर से कभी मानव बन पाएंगे। इससे तो किसी का इंकार नहीं की पंच तत्वों से बने हम इन्ही पंच तत्वों में विलीन हो जाएंगे। इससे भी कोई इंकार नहीं की ऊर्जा का बस रूप बदलता है और ऊर्जा के तौर पर तो हम हमेशा कहीं ना कहीं रहेंगे। अब आत्मा मरती नहीं, पुनर्जन्म होता है कि नहीं इसपर बहुत तर्क-वितर्क है और अभी तक की प्राप्त जानकारियां यही कहती हैं। चलिए इस पर बहस भी नहीं करते हैं नहीं तो अभी तक शास्त्रों के वो ज्ञानी जो इस ज्ञान को पढ़कर भी ज्ञान की ज्योति पाने के बजाए और धर्मांध हो गए वो कहेंगे कि शास्त्र में लिखा है। और भई शास्त्र किसने लिखा है, और किसके लिए लिखा है? शास्त्र हम जैसे ही ईश्वर पुत्रों ने लिखा या ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले ज्ञानियों के उन शिष्यों ने लिखा होगा जो इस ज्ञान को सहेजना चाहते थे। इंद्रियों को भोग के बजाय योग में लगाकर, निर्विचार और अप्रयत्न होकर, सत चित आनंद में स्थितप्रज्ञ होने के बाद जो दृष्टि मिलती है वो ज्ञानी की दृष्टि होती और उसके मुखारविंद से सदा ही ज्ञान स्वतः निकलता है। इस स्थिति में सुनने वाला या दुनियावी मानव नहीं होता और यही वजह है कि इन्हें कथाओं के जरिए मनुष्य की जगत में रहते हुए बनने वाली परिस्थितियों की रचना के आधार पर लिखा गया होगा। इनसे कुछ फायदा तो हुआ लेकिन अंधानुकरण और इन कथाओं को अपने तरीकें से समझाने वालों के व्यवसायिक रूप धारण करने के बाद हम और अज्ञानता की तरफ धकेले गए। अंधविश्वास, ढकोसलों और दान-पुण्य की झूठी औपचारिकताएं निभाकर हम ज्ञान की ओर नहीं जा रहे हैं। हमें ये शरीर और ये विवेक शायद एक ही बार मिला है और इसका उपयोग सही नहीं किया तो अज्ञानी ही रह जाएंगे। ज्ञान असत का होना चाहिए, क्या असत्य है तो सत्य खुद ब खुद सामने आ जाएगे। अच्छे और बुरे के असत को एक ज्ञानी से हुई चर्चा में समझने को मिला। उन्होंने कहा आप भूखे है और आपको किसी ने स्वादिष्ट खीर दी। आप गपागप खा गए। एक और कटोरी आपके सामने प्रस्तुत की गई आप वो भी चट कर गए। तीसरी कटोरी आने पर जैसे तैसे उसे खत्म किया लेकिन चौथी आते ही आप झल्ला जाएंगे और खाने से साफ इंकार कर देंगे। वही खीर जो कुछ देर पहले आपको रूचि पूर्ति का साधन लग रही थी वो कष्टकारी हो गई। वैसे ये बात हर भोग के लिए लागू होती है और भोग का अंत क्या ऐसा ही कष्टकारी नहीं होता और ये भी सच है कि इस ज्ञान को जानने के लिए किसी और ज्ञानी की जरूरत भी नहीं बस जरूरत है तो अपने विवेक को जागृत कर असत के ज्ञान की ताकि हम असतो मा सद्गमय... के भी मतलब को समझ पाएंगे। मानव जीवन एक बार मिला है इसे बर्बाद कर देना ही मृत्यू है और इंद्रियों के संयम और भोग से दूरी कर योग की प्राप्ति ही अमृतत्व है जो हर उस महान संत को मिला जिनकी तस्वीरें आप अपने घरों में टांगे रखते हैं। ये जीवन आपको भी मिल सकता है और इसके लिए जंगल जाने की अपने कर्तव्यों को छोड़ने की जरा भी आवश्यक्ता नहीं है। हां कर्तव्यों को समझने की आवश्यक्त जरूर है। निर्विचारता इसमें कैसे सहायक है? भ्रम क्या है और कैसे ये हमें अंधकार में रखता है? आने वाली पोस्ट में इस पर विचार होगा। डॉ प्रवीण श्रीराम

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

25 में मरे, 75 में दफने, क्या खाक जिए।

कई लोग 25 की उम्र में ही मर जाते है लेकिन दफनाया उन्हें 75 की उम्र में जाया जाता है। बेंजामिन फ्रेंकलिन की कही ये बात बहुत मशहूर है लेकिन इसके मायने समझने के लिए कभी हम रुकते ही नहीं हैं। हम पराधीन पैदा होते हैं और ये प्रकृति का नियम है। हमें भोजन, शिक्षा आदि मूलभूत जरूरतों के साथ-साथ खुशियों और दुख के लिए भी पराधीन ही रहना पड़ता है। यही प्रकृति और इसका सुंदर विधान हमें स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए स्वाधीन छोड़ देता है लेकिन पराधीनता इतनी बुरी तरह से जकड़ बना लेती है कि इससे निकल पाना असंभव सा लगने लगता है। उदाहरण के लिए हम सब अपने धर्म, मान्यताओं, संस्कारों और रिवाजों को आंख बंद करके आगे बढ़ाते रहते हैं। एक समय आता है जब हम मौलिक विचार त्याग कर बस जो दिमाग में ठूंसा गया है उसके आगे समर्पण कर देते हैं। रवींद्र नाथ टैगोर की गोरा ने क्या सुंदर चित्रण किया है कि रिवाजों और धर्म के अंधानुकरण की सच्चाई एक झटके में सामने आ जाती है। जब नायक को पता चलता है कि वो दरअसल एक दूसरे धर्म के माता-पिता की संतान है तो उसकी विचार धारा दूसरे धर्मों के प्रति नजरिया सबकुछ एक झटके में बदल जाता है। बदलाव क्या है बस यही कि हम अपनी मान्यताओं को बदल देते हैं? अगर सिर्फ इतना ही है तो अच्छे बुरे का विवेक तो हर मानव मात्र के पास है, हम इस पर अज्ञानता की मोटी चादर डालकर पराधीनता वश मिली गलत बातों को क्यों जिंदगी भर ढोते हैं। ध्यान दीजिएगा, गलत बातों को.. ऐसा नहीं है कि सब कुछ बुरा ही हम सीखते है, बहुत कुछ ऐसा भी सिखाया जाता है जो प्रज्ञा जागरण की ओर या यूं कहे स्वाधीनता की ओर ले जाता है। फ्रेंकलिन ने ठीक ही कहा है जो 25 के पहले या अपने युवाकाल में इस स्वाधीनता की ललक अपने अंदर पैदा नहीं कर पाते वो बस खुद को और खुद पर लादे हुए बोझ को जीवन पर्यंत ढोते रहते हैं। कामयाबी और नाकामी के चाहे जो पैमाने आप बनाएं, चाहे व्यवसायिक हो, आध्यात्मिक हो या सामाजिक और पारिवारिक हो.. हर आदर्श में आप सही समय पर उस विषय के प्रति लगाव और जुट जाने की बात आपको कॉमन मिलेगी। सही समय से तात्पर्य है युवावस्था में और कई विरले मौकों पर किशोरावस्था में ही अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ जाने की पहल दिखती है। वैसे हाल में एक मोटिवेटर को मनोवैज्ञानिकों के शोध के बारे में कहते सुना था। इस शोध की प्राप्ति ये है कि आप चाहे जो काम करें वो आपको हर क्षैत्र में कुछ न कुछ योग्यता दिलाता है। उदाहरण के लिए शतरंज खेलने वाले या संगीत सीखने वाले अगर किसी और काम को करना शुरू करते है चाहे वो किसी तरह का शोध ही क्यूं न हो, वहां भी उनके लॉजिक्स और दिमागी योग्यता का उन्हें फायदा मिलता है बेशक इनका सीधे कोई लेना देना इस विषय से हो या नहीं। फिर ये तो मानना ही होगा कि अगर उसी दिशा में पहले से ही लग जाया जाए तो क्या ही बेहतर नतीजे हमारे सामने होंगे। स्वामी विवेकानंद ऐसे ही युवा-युवा कहते नहीं रह गए वो जानते थे और अपने निजी जीवन से भी उन्होंने सीखा था की युवावस्था ऊर्जा से भरपूर है और इस अवस्था का सदुपयोग नहीं हुआ तो फिर उम्र के अवशेषों से कोई बहुत बेहतर परिणाम नहीं निकल आएंगे। कुछ लोग उदाहरण देते हैं कि फलां ने 80 साल की उम्र में ये किया, 60 साल की उम्र में ये पाया आदि। खबरों के लिहाज से तो ये रोचक है लेकिन बेशकीमती मानव जीवन की संभावनाओं के दृष्टिगोचर तो ये कुछ नहीं। कोई सज्जन 70 साल की उम्र में 10 वीं की परीक्षा पास करते हैं तो खबरों के लिहाज से तो ये बढ़िया दिखाई पड़ता है लेकिन अगर मानव जीवन की प्राप्ति के लिहाज से देखें तो ये शौक पूरा करना मात्र है। युवा अपने इर्द-गिर्द जो देख रहे हैं उसका अनुसरण कर रहे हैं। हम उनके सामने जैसी दुनिया रख रहे हैं उसी की सवारी करने की तैयारी वो करते हैं। मेरी ये बात उन युवाओं से है जिन्हें वाकई लगता है कि जीवन का एक मकसद होता है और ये जीवन बहुत कीमती है। वो आज अपनी ऊर्जा को सही दिशा में लगा लें और मेहनत करें तो वो भी विवेकानंद, सचिन, आनंद या कोई भी आदर्श सामने रख लीजिए जिसने अपनी ऊर्जा को किसी एक मकसद में लगाया और समाज को कुछ देकर गया, की तरह बन सकते हैं। ये बात बहुत सामान्य सी लगती है लेकिन जिस पराधीनता का अभ्यास हमने बचपन से किया है उसकी वजह से इस दिशा में इच्छा शक्ति कमजोर पड़ती है। पर्वतारोही चढ़ाई के वक्त अपने साथ कम से कम सामान रखते हैं, सिर्फ उतना ही जितना उनकी जिंदगी बचाने के लिए जरूरी है। जिंदगी की चढ़ाई में हम बड़ी भूल कर जाते है जब गैर जरूरी सामानों को भी लादे रखते हैं और दिन ब दिन नई बातें, चीजें और लादते जा रहे हैं। याद रखिए उतना ही लादिए जितना आपका लक्ष्य हासिल करने के जरूरी है। 25 की उम्र का तो पता नहीं लेकिन ऊर्जा और मानसिक शक्ति की क्षरण की शुरुआत से पहले ही आपने बेवजह के वजन को उतारना और सही दिशा में ऊर्जा को लगाना नहीं सीखा तो फिर यही मानिये की ये दुनिया भी आपको ढो ही रही है और बेशक दफनाया आपको 75 में जाए लेकिन मर आप 25 में ही चुके हैं। डॉ प्रवीण श्रीराम

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

भविष्य कोई और क्यों बताए जब मैं इसे बना सकता हूं?

"जो व्यक्ति ज्योतिषियों से भविष्य पूछता है, वह अनजाने में ही भावी घटनाओं के आंतरिक आभास को खो देता है, जो ज्योतिषियों की भविष्यवाणी कथन से हजार गुना सटीक होता है।" वॉल्टर बेंजामिन। मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि ज्योतिष शास्त्र कितना सही है कितना गलत या सचमुच कोई भविष्य बता सकता है या नहीं। मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि भविष्य को जानने की अपेक्षा के उद्गम के मूल में क्या है? आपने आमतौर पर सुना होगा बड़े-बड़े कामयाब और नामचीन लोग भी ज्योतिषियों की शरण लेते हैं। साफ है सिर्फ करियर या शोहरत या आने वाले कल में जीवन कुछ और वैभवशाली हो या कुछ और फायदा हो जैसी बातों तक भविष्य का ये रोमांच सीमित नहीं होता है। जीवन में क्या और रोमांच होंगे, क्या चिंताएं होंगी, किस तरह की परेशानियां या प्राप्तियां हो सकती है के साथ ही वर्तमान की वो बातें जिन पर वश नहीं चल रहा है का क्या निराकरण होगा जैसी जिज्ञासाएं इस विषय के पल्लवित और पुष्पित होने में सहायक रही हैं। आगे बढ़ने से पहले मैं एक बार फिर ये साफ कर देना चाहता हूं कि ज्योतिष की सत्यता और असत्यता से इस पोस्ट का कोई लेना देना नहीं है। उसकी आवश्यक्ता के मूल पर हम विचार कर रहे हैं। हाल के दिनों में एक बढ़िया किताब पढ़ने को मिली, द लक फैक्टर। लक या किस्मत एक ऐसी विषय वस्तू है जिसके बारे में हम सब जानते तो हैं लेकिन उसे कभी समझ नहीं पाते। उपरोक्त किताब में इस विषय पर जोर दिया गया है कि दरअसल भाग्य हमारे वश के बाहर नहीं होता, उसे काबू किया जा सकता है और उसे मनचाहे ढंग से संवारा भी जा सकता है। एक संत भी हाल के दिनों में संपर्क में आए उनसे इस विषय पर चर्चा हुई तो उन्होंने भाग्य की आवश्यक्ता और अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया। बात में दम भी था, आखिर भाग्य की आवश्यक्ता क्या है पहले इस पर विचार करिए, आप भाग्यशाली हैं या नहीं इसे बताने और आपको भाग्यशाली बनाने का धंधा तो बाद में सामने आता है। भाग्य के मूल में शामिल है अप्राप्त परिस्थिती का चिंतन। काश मैं ऐसा होता, इसके यहां पैदा होता, दादाजी या पिताजी ऐसा कर देते, मेरी किस्मत उस जैसी क्यूं नहीं? अलग-अलग व्यक्तित्वों में इन्हीं प्रश्नों का पैमाना और किरदार बदलते रहते हैं पर मूल में वही होता है काश में ऐसा होता। अब काश में ऐसा होता को सचमुच कर देने का कोई दावा मात्र भी कर दे तो सारे भाग्यवादी उस महानुभाव की प्रोफेशनल फीस देने से कतराते नहीं है। बाकी का काम हमारे सम्मानित टीवी चैनल्स करते हैं, जहां इन्हीं भविष्यवक्ताओं के वैतनिक कर्मचारी, दी गई सलाहों से अपने जीवन में आए बदलाव का ढिंढोरा पीटते हैं और कुछ और ग्राहक पकड़ में आ जाते हैं। आज ये धंधा जमकर फल फूल रहा है। टेलीविजन इंडस्ट्री से जुड़े हुए मुझे भी लंबा समय हो गया है। टीआरपी देने वाले शो होने की वजह से मैंने टीवी पर जमकर इन शोज को चलते देखा है और कई ज्योतिषियों की हकीकत को समझा भी है। पिछले दस सालों में तो जैसे इन भविष्यवक्ताओं की बाढ़ सी आ गई है। टीवी पर चमकने में वाले कई ज्योतिषियों को मैने खुद पनपते हुए देखा है और कुछ को मैं बहुत निजी तौर पर जानता हूं। कुंडली दिखवाने और भविष्य जानने की मेरी अनिच्छा को देखते हुए उन्होंने मुझे अपने धंधे से जुड़े कुछ पहलू भी बताए। निजी संबंधों का मान रखते हुए इन्हें तो मैं सार्वजनिक नहीं कर पाउंगा लेकिन हां इतना कह सकता हूं कि कई अच्छे ज्योतिषि मनोवैज्ञानिक होते हैं। किसी व्यक्ति के हाव-भाव, वर्तमान स्थिति, सामान्य ज्ञान, बात-चीत आदि से उस व्यक्ति के बारे में कई जानकारियां मिलती हैं। वॉल्टर बेंजामिन की जो बात मैंने पहले लिखी उसके मुताबिक इन लोगों के चक्कर में रहने वाले लोग भावी घटनाओं के आंतरिक आभास के साथ-साथ अपना मनोबल भी खओ देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है अब उनके हाथ में कुछ है ही नहीं। खैर इस बात की पुष्टि के लिए बहुत लंबा ब्लॉग लिखा जा सकता है लेकिन अपने द्वारा तय की गई शब्द सीमा तक पहुंचने के बाद मैं भविष्यवक्तओं के चक्कर लगाकर चक्कर में आने वालों से कुछ कहना चाहता हूूं। अपनी किताब 48 LAWS OF POWER में लेखक ROBERT GREENE ने इस बात पर जोर दिया है कि दूरंदेशी बहुत जरूरी होती है। हम आज में रहने और जीने की फिलॉसफी तो बहुत पढ़ते सुनते रहे हैं लेकिन हमें परेशानी अपने कल को लेकर ही होती है। दूसरी अहम बात हम सब कुछ अभी पाना चाहते हैं। जो चीज किसी को सालों में मिली है जो हुनर किसी को सालों के रियाज के बाद मिला है वो हमें आज चाहिए यानि सांई बाबा की तस्वीर पर लटका लेने से कुछ नहीं होगा उस पर लिखे उनके महान संदेश सबुरी या सब्र को भी समझना होगा। अगर आज शांति से बैठकर हम कल की योजना बनाने तक सीमित न रहकर उस दिशा में कुछ करना शुरू कर दें तो अभी से आपकी किस्मत के पन्ने पर किसी अलौकिक शक्ति की कलम चलनी शुरू हो जाएगी। आप अपने भविष्य वक्ता खुद बन सकते हैं बशर्ते अपने सपनों को अपने सामने स्पष्ट रखें और उन पर क्या काम आप रोज करते हैं उसे रोज़ किसी डायरी में नोट करते जाएं। ये इसीलिए भी महत्वपूर्ण है कि ऐसा करने से आपने अपना दिन, महिना या साल कैसे बर्बाद किया का स्वलिखित दस्तावेज आपके पास होगा। आप अपने दुर्भाग्य पर किसी अदृश्य शक्ति को दोष नहीं दे पाएंगे और अगर आप थोड़ा भी काम रोज करते हैं तो आपको आगे की सीढ़ियां स्वतः मिलती जाएंगी, साथ है आपके भाग्य निर्माण का श्रेय भी कोई और भविष्यवक्त नहीं ले जाएगा। तमाम टोटके और मेहनत तो वो भी करते हैं जो ज्योतिषाचार्यों के पास जाते हैं। जरा कभी अपने टोटके और काम खुद तय करके देखिए कितना मजा आएगा और सेल्फ मोटिवेशन के लिए किसी गुरू को पढ़ने की जरूरत भी न होगी क्योंकि आप अपने गुरू स्वयं ही होंगे। तो बनाइए अपना भाग्य और लिखिए अपनी कहानी खुद।