शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014
25 में मरे, 75 में दफने, क्या खाक जिए।
कई लोग 25 की उम्र में ही मर जाते है लेकिन दफनाया उन्हें 75 की उम्र में जाया जाता है। बेंजामिन फ्रेंकलिन की कही ये बात बहुत मशहूर है लेकिन इसके मायने समझने के लिए कभी हम रुकते ही नहीं हैं। हम पराधीन पैदा होते हैं और ये प्रकृति का नियम है। हमें भोजन, शिक्षा आदि मूलभूत जरूरतों के साथ-साथ खुशियों और दुख के लिए भी पराधीन ही रहना पड़ता है। यही प्रकृति और इसका सुंदर विधान हमें स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए स्वाधीन छोड़ देता है लेकिन पराधीनता इतनी बुरी तरह से जकड़ बना लेती है कि इससे निकल पाना असंभव सा लगने लगता है। उदाहरण के लिए हम सब अपने धर्म, मान्यताओं, संस्कारों और रिवाजों को आंख बंद करके आगे बढ़ाते रहते हैं। एक समय आता है जब हम मौलिक विचार त्याग कर बस जो दिमाग में ठूंसा गया है उसके आगे समर्पण कर देते हैं। रवींद्र नाथ टैगोर की गोरा ने क्या सुंदर चित्रण किया है कि रिवाजों और धर्म के अंधानुकरण की सच्चाई एक झटके में सामने आ जाती है। जब नायक को पता चलता है कि वो दरअसल एक दूसरे धर्म के माता-पिता की संतान है तो उसकी विचार धारा दूसरे धर्मों के प्रति नजरिया सबकुछ एक झटके में बदल जाता है। बदलाव क्या है बस यही कि हम अपनी मान्यताओं को बदल देते हैं? अगर सिर्फ इतना ही है तो अच्छे बुरे का विवेक तो हर मानव मात्र के पास है, हम इस पर अज्ञानता की मोटी चादर डालकर पराधीनता वश मिली गलत बातों को क्यों जिंदगी भर ढोते हैं। ध्यान दीजिएगा, गलत बातों को.. ऐसा नहीं है कि सब कुछ बुरा ही हम सीखते है, बहुत कुछ ऐसा भी सिखाया जाता है जो प्रज्ञा जागरण की ओर या यूं कहे स्वाधीनता की ओर ले जाता है। फ्रेंकलिन ने ठीक ही कहा है जो 25 के पहले या अपने युवाकाल में इस स्वाधीनता की ललक अपने अंदर पैदा नहीं कर पाते वो बस खुद को और खुद पर लादे हुए बोझ को जीवन पर्यंत ढोते रहते हैं। कामयाबी और नाकामी के चाहे जो पैमाने आप बनाएं, चाहे व्यवसायिक हो, आध्यात्मिक हो या सामाजिक और पारिवारिक हो.. हर आदर्श में आप सही समय पर उस विषय के प्रति लगाव और जुट जाने की बात आपको कॉमन मिलेगी। सही समय से तात्पर्य है युवावस्था में और कई विरले मौकों पर किशोरावस्था में ही अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ जाने की पहल दिखती है। वैसे हाल में एक मोटिवेटर को मनोवैज्ञानिकों के शोध के बारे में कहते सुना था। इस शोध की प्राप्ति ये है कि आप चाहे जो काम करें वो आपको हर क्षैत्र में कुछ न कुछ योग्यता दिलाता है। उदाहरण के लिए शतरंज खेलने वाले या संगीत सीखने वाले अगर किसी और काम को करना शुरू करते है चाहे वो किसी तरह का शोध ही क्यूं न हो, वहां भी उनके लॉजिक्स और दिमागी योग्यता का उन्हें फायदा मिलता है बेशक इनका सीधे कोई लेना देना इस विषय से हो या नहीं। फिर ये तो मानना ही होगा कि अगर उसी दिशा में पहले से ही लग जाया जाए तो क्या ही बेहतर नतीजे हमारे सामने होंगे। स्वामी विवेकानंद ऐसे ही युवा-युवा कहते नहीं रह गए वो जानते थे और अपने निजी जीवन से भी उन्होंने सीखा था की युवावस्था ऊर्जा से भरपूर है और इस अवस्था का सदुपयोग नहीं हुआ तो फिर उम्र के अवशेषों से कोई बहुत बेहतर परिणाम नहीं निकल आएंगे। कुछ लोग उदाहरण देते हैं कि फलां ने 80 साल की उम्र में ये किया, 60 साल की उम्र में ये पाया आदि। खबरों के लिहाज से तो ये रोचक है लेकिन बेशकीमती मानव जीवन की संभावनाओं के दृष्टिगोचर तो ये कुछ नहीं। कोई सज्जन 70 साल की उम्र में 10 वीं की परीक्षा पास करते हैं तो खबरों के लिहाज से तो ये बढ़िया दिखाई पड़ता है लेकिन अगर मानव जीवन की प्राप्ति के लिहाज से देखें तो ये शौक पूरा करना मात्र है। युवा अपने इर्द-गिर्द जो देख रहे हैं उसका अनुसरण कर रहे हैं। हम उनके सामने जैसी दुनिया रख रहे हैं उसी की सवारी करने की तैयारी वो करते हैं। मेरी ये बात उन युवाओं से है जिन्हें वाकई लगता है कि जीवन का एक मकसद होता है और ये जीवन बहुत कीमती है। वो आज अपनी ऊर्जा को सही दिशा में लगा लें और मेहनत करें तो वो भी विवेकानंद, सचिन, आनंद या कोई भी आदर्श सामने रख लीजिए जिसने अपनी ऊर्जा को किसी एक मकसद में लगाया और समाज को कुछ देकर गया, की तरह बन सकते हैं। ये बात बहुत सामान्य सी लगती है लेकिन जिस पराधीनता का अभ्यास हमने बचपन से किया है उसकी वजह से इस दिशा में इच्छा शक्ति कमजोर पड़ती है। पर्वतारोही चढ़ाई के वक्त अपने साथ कम से कम सामान रखते हैं, सिर्फ उतना ही जितना उनकी जिंदगी बचाने के लिए जरूरी है। जिंदगी की चढ़ाई में हम बड़ी भूल कर जाते है जब गैर जरूरी सामानों को भी लादे रखते हैं और दिन ब दिन नई बातें, चीजें और लादते जा रहे हैं। याद रखिए उतना ही लादिए जितना आपका लक्ष्य हासिल करने के जरूरी है। 25 की उम्र का तो पता नहीं लेकिन ऊर्जा और मानसिक शक्ति की क्षरण की शुरुआत से पहले ही आपने बेवजह के वजन को उतारना और सही दिशा में ऊर्जा को लगाना नहीं सीखा तो फिर यही मानिये की ये दुनिया भी आपको ढो ही रही है और बेशक दफनाया आपको 75 में जाए लेकिन मर आप 25 में ही चुके हैं। डॉ प्रवीण श्रीराम
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