शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

मंदिरों में लोगों की मन्नतों का बोझ ढोने वाली मूरत


A scientific theory is a well-substantiated explanation of some aspect of the natural world that is acquired through the scientific method, and repeatedly confirmed through observation and experimentation. विज्ञान की ये सुलभ परिभाषा है जो कहती है कि दुनियावी चीजों की कार्यप्रणाली और अस्तित्व को समझने के लिए वैज्ञानिक तरीकों से बार-बार प्रयोगों और उनकी प्राप्तियों के आधार पर किसी वैज्ञानिक सिद्धांत को बनाया जाता है। आने वाले दिनों में शोधार्थी इसके अन्य पहलुओं पर काम करते हैं और हम विज्ञान के उच्चतम स्तर तक पहुंचते जाते हैं। क्या ही सुंदर परिभाषा है और क्या ही सुंदर हमारा विज्ञान भी है। मैं विज्ञान का ही छात्र रहा हूं और इसमें मेरी बहुत आस्था है। हांलाकि जब कोई छद्म वैज्ञानिक मित्र ईश्वर में आस्था रखने वालों पर प्रश्न खड़े करते है या उनका परिहास करता है तो बुरा लगता है। एक टीवी चर्चा के दौरान ऐसे ही एक मित्र ने ईश्वर आस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए और इसे अंधविश्वास करार दिया। मैं खुद अंधविश्वास के बहुत खिलाफ रहा हूं और मुझे ठीक नहीं लगने वाले कई रिवाजों का मैंने विरोध भी किया है लेकिन ईश्वर में अविश्वास का बीज मुझ में नहीं पड़ पाया। मैं एंकर की भूमिका में था तो मैंने उनसे एक प्रश्न पूछा कि विज्ञान हमेशा निरंतर अनुभवों और प्रयोगों की बात कहता है, आप किस प्रयोग के आधार पर इस सृष्टि के आधार को नकारते हैं। उनका जोर इस बात पर रहा कि किस आधार पर ईश्वर है कि बात कही जाती है, इसका प्रमाण क्या है? मैंने उनसे कहा कि आज वैज्ञानिक जानते है कि तुलसी के पत्ते में क्या-क्या रसायन होते हैं और उनके क्या गुणधर्म हैं, लेकिन जब नहीं जानते थे तब क्या उसके गुण कम थे। ऐसा भी नहीं है कि हमने जानने के बाद उसके गुणों को बढ़ा दिया है। अपने अपनी भाषा में बस उसे समझ लिया है। ऐसे ही जल, आकाश, पाताल, अंतरिक्ष और जाने क्या क्या खोजें हम करते जा रहे हैं और जानते जा रहे हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि हम अपने ही जीवन को शायद सुगम बनाते जा रहे हैं। शायद इसीलिए की सैटेलाइट टीवी, फोन, कार, ऊंची ईमारते और जाने क्या-क्या आज हमें वैभव का दर्शन तो कराती है लेकिन क्या ये जीवन की सुगमता है या प्रकृति से दूर जाना है, इसका फैसला आप खुद कीजिए? घूमने के लिए आज भी बगीचा ढूंढते हैं आप लेकिन वो दिन दूर नहीं जब ट्रेड मिल ही हमारा बगीचा रह जाएगा और एसी की हवा ही ताजी हवा रह जाएगी। मैं ये नहीं कहता कि फिर से जंगली हो जाओ और ये भी नहीं कहता कि विज्ञान के प्रयोगों को नजरअंदाज कर दो हां जहां तक हो सकता है उसके दुरपयोग को रोक दो। अब फिर विषय पर लौटिए, ईश्वर का अनुभव तो कइयों ने किया है और उन्हीं की तस्वीरों और मूर्तियों से आपने अपना घर भी सजा रखा है लेकिन ईश्वर के अस्तित्व पर वो भरोसा नहीं होता जो किसी अनुभवी को हुआ होगा। स्वामी शरणानंद कहते हैं हर मानव मात्र को वही अनुभव हो सकता है जो कभी भी किसी भी महामानव को हुआ है बशर्ते उसके प्रति सतत आस्था बनी रहे, और सिर्फ उसी में आस्था रहे किसी और में नहीं। हम डिग्रियां पाने, नौकरियां पाने, प्यार पाने, सम्मान पाने के लिए तो पागलों की तरह भागे जा रहे हैं लेकिन न तो ईश्वर को पाने से हम लगातार दूर होते जा रहे हैं और अब वो सिर्फ मंदिरों में लोगों की मन्नतों का बोझ ढोने वाली मूरत भर बनकर रह गया है। विज्ञान हर बात पर प्रयोगों, अनुभवों और प्राप्तियों पर फिर प्रयोगों की बात तो कहता है लेकिन सहज और सुलभ ही मिल जाने वाले ईश्वर की उसे कोई आवश्यक्ता महसूस नहीं होती। दुनिया में जितने वैज्ञानिक ईश्वर को समझ पाए वे ही कुछ मौलिक आधार आने वाली पीढियों को दे पाए हैं। मुझे भी ईश्वर का अनुभव नहीं हुआ है लेकिन मेरा विश्वास है कि वो मुझमें ही कही हैं बस लगातार घनी होती दुनिया की मोटी परत को साफ करके उसे खोजने की कोशिश करनी होगी। ईश्वर न होता तो सबकुछ हमारी सीमा से बाहर निकल जाने के बाद वही ईश्वर हमें याद नहीं आता। अगर उसे परेशानियों में याद करते हो तो सतत याद करने से उसकी प्राप्ति भी कर सकते हो। मैं ज्यादा नहीं जानता लेकिन जितना पढ़ा और सुना है उसके मुताबिक ईसा, साँई, शंकराचार्य, पैंगबर जिसने भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया और उसकी खोज की उसका रूप भी वही हो गया जो ईश्वर का होता है। आप भी ईश्वर का वही रूप हो सकते हैं लेकिन पहले खुद मन्नतों को पैदा करने के बोझ से बचिए और इस मूरत मैं वही प्रेम देखिए जो बावली मीरा ने देखा था। मुझे विश्वास है कि विज्ञान भी अगर गंभीरता से आध्यात्म की आवश्यक्ता को समझते हुए इससे संबंधित प्रयोग करेगा तो उसके हाथ कुछ ना कुछ जरूर लग जाएगा हांलाकि प्रमाणों से ज्यादा आवश्यक है अनुभव और जब सब पाने के लिए भागते दौड़ते हो तो क्या ये बिना मेहनत के चाहिए? डॉ. प्रवीण श्रीराम

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