तमसो मा ज्योतिर्गमय... यानि अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें.... हम सभी बचपन से इस प्रार्थना को सुनते या गाते आ रहे हैं। ये भी सुनते हैं कि ज्ञान का प्रकाश हो अज्ञानता हटे। इसकी आवश्यक्ता में भी कोई संदेह नहीं क्योंकि ये आज से नहीं सनातन समय से चली आ रही आवश्यक्ता है। इसके बावजूद कुछ तो है जो इस महान ज्ञान के हमारे साथ बने रहने के बावजूद हम लगातार अंधकार में जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता इस पर कोई ज्यादा चर्चा करने की जरूरत है कि बीतते वक्त के साथ हम बेशक सुविधा और वैभव के नए संसाधन के लिहाज से हम खुद को लगातार आगे बढ़ाते जा रहे हैं, लेकिन साथ ही साथ मानवीय गुणों और मूल्यों को लगातार गिराते भी जा रहे हैं। कैसे? का जवाब बहुत मुश्किल नहीं क्योंकि ये तो आप सभी जानते हैं कि शारीरिक हो या मानसिक दोनों स्तरों पर आज के मानव की स्थिति बहुत अच्छी दिखाई नहीं देती। दुनिया बढ़ेगी यानि, यही भौतिक जगत, तो बहुत जाहिर सी बात है कि भोग बढ़ेगा और भोग बढ़ेगा तो हम चाहे प्रकृति हो या चाहे खुद का शरीर सबके साथ खिलवाड़ करेंगे। परिवार की संकल्पना का धीरे-धीरे पतन होना, नए-नए रोगों का पैर पसार लेना (जिन्हें हम प्यार से लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं), दूसरों के प्रति क्रोध-ईर्ष्या जागना.. आदि इत्यादि जैसी तमाम बातें हैं जो आज हमारे सतत गहन अंधकार की ओर पतन का संकेत है। ये तो सत्य है कि धरती का नाश होगा, आज नहीं तो कल। संभाल कर चलेंगे तो थोड़ा देरी से और जल्दीबाजी करेंगे तो थोड़ा और तेजी से, लेकिन यहां प्रश्न उससे भी बड़ा है कि क्या हम और आप फिर से कभी मानव बन पाएंगे। इससे तो किसी का इंकार नहीं की पंच तत्वों से बने हम इन्ही पंच तत्वों में विलीन हो जाएंगे। इससे भी कोई इंकार नहीं की ऊर्जा का बस रूप बदलता है और ऊर्जा के तौर पर तो हम हमेशा कहीं ना कहीं रहेंगे। अब आत्मा मरती नहीं, पुनर्जन्म होता है कि नहीं इसपर बहुत तर्क-वितर्क है और अभी तक की प्राप्त जानकारियां यही कहती हैं। चलिए इस पर बहस भी नहीं करते हैं नहीं तो अभी तक शास्त्रों के वो ज्ञानी जो इस ज्ञान को पढ़कर भी ज्ञान की ज्योति पाने के बजाए और धर्मांध हो गए वो कहेंगे कि शास्त्र में लिखा है। और भई शास्त्र किसने लिखा है, और किसके लिए लिखा है? शास्त्र हम जैसे ही ईश्वर पुत्रों ने लिखा या ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले ज्ञानियों के उन शिष्यों ने लिखा होगा जो इस ज्ञान को सहेजना चाहते थे। इंद्रियों को भोग के बजाय योग में लगाकर, निर्विचार और अप्रयत्न होकर, सत चित आनंद में स्थितप्रज्ञ होने के बाद जो दृष्टि मिलती है वो ज्ञानी की दृष्टि होती और उसके मुखारविंद से सदा ही ज्ञान स्वतः निकलता है। इस स्थिति में सुनने वाला या दुनियावी मानव नहीं होता और यही वजह है कि इन्हें कथाओं के जरिए मनुष्य की जगत में रहते हुए बनने वाली परिस्थितियों की रचना के आधार पर लिखा गया होगा। इनसे कुछ फायदा तो हुआ लेकिन अंधानुकरण और इन कथाओं को अपने तरीकें से समझाने वालों के व्यवसायिक रूप धारण करने के बाद हम और अज्ञानता की तरफ धकेले गए। अंधविश्वास, ढकोसलों और दान-पुण्य की झूठी औपचारिकताएं निभाकर हम ज्ञान की ओर नहीं जा रहे हैं। हमें ये शरीर और ये विवेक शायद एक ही बार मिला है और इसका उपयोग सही नहीं किया तो अज्ञानी ही रह जाएंगे। ज्ञान असत का होना चाहिए, क्या असत्य है तो सत्य खुद ब खुद सामने आ जाएगे। अच्छे और बुरे के असत को एक ज्ञानी से हुई चर्चा में समझने को मिला। उन्होंने कहा आप भूखे है और आपको किसी ने स्वादिष्ट खीर दी। आप गपागप खा गए। एक और कटोरी आपके सामने प्रस्तुत की गई आप वो भी चट कर गए। तीसरी कटोरी आने पर जैसे तैसे उसे खत्म किया लेकिन चौथी आते ही आप झल्ला जाएंगे और खाने से साफ इंकार कर देंगे। वही खीर जो कुछ देर पहले आपको रूचि पूर्ति का साधन लग रही थी वो कष्टकारी हो गई। वैसे ये बात हर भोग के लिए लागू होती है और भोग का अंत क्या ऐसा ही कष्टकारी नहीं होता और ये भी सच है कि इस ज्ञान को जानने के लिए किसी और ज्ञानी की जरूरत भी नहीं बस जरूरत है तो अपने विवेक को जागृत कर असत के ज्ञान की ताकि हम असतो मा सद्गमय... के भी मतलब को समझ पाएंगे। मानव जीवन एक बार मिला है इसे बर्बाद कर देना ही मृत्यू है और इंद्रियों के संयम और भोग से दूरी कर योग की प्राप्ति ही अमृतत्व है जो हर उस महान संत को मिला जिनकी तस्वीरें आप अपने घरों में टांगे रखते हैं। ये जीवन आपको भी मिल सकता है और इसके लिए जंगल जाने की अपने कर्तव्यों को छोड़ने की जरा भी आवश्यक्ता नहीं है। हां कर्तव्यों को समझने की आवश्यक्त जरूर है। निर्विचारता इसमें कैसे सहायक है? भ्रम क्या है और कैसे ये हमें अंधकार में रखता है? आने वाली पोस्ट में इस पर विचार होगा।
डॉ प्रवीण श्रीराम
मुझे लगता है कि थोड़े सरल शब्दों में अगर मानव जीवन के उद्देश्य पर लिखें तो बेहतर होगा। एक इंसान क्यों पैदा होता है? क्या सिर्फ ये एक जीववैज्ञानिक प्रक्रिया भर है...जैसे कुत्ता, बिल्ली, गाय, भैंस, सांप, चिड़िया, मछली, डायनासौर आदि तमाम जीव पैदा होते हैं और खत्म हो जाते हैं। सबका एक जीवनचक्र होता है (किसी का ज्यादा, किसी का कम), जो खत्म हो जाता है। या इससे अलग मानव जीवन का कुछ ख़ास उद्देश्य है। मैं सोचता हूं कि इस पर भी खोज होनी चाहिए कि दूसरे जीवों के दिमाग में क्या चलता रहता है...क्या उनके दिमाग होता भी है या नहीं इत्यादि। अगर हमारा जीवन चक्र भी दूसरे जानवरों जैसा ही है, तो फिर भगवान ने हमें सोचने-समझने की क्षमता क्यों दी। जैसे दूसरे जीवों-जानवरों में एक पीढ़ी खत्म होती है और उसके बाद नई पीढ़ियां आती हैं वैसे ही इंसानों में भी आ रही हैं। अगर ऐसा है तो फिर तो कोई मतलब ही नहीं सभ्यताएं बसाने का, तमाम खोज-अनुसंधान आदि का। क्योंकि ये जानवरों में नहीं होता। अगर हमारी जिंदगी का मकसद कुछ अलग है और ख़ास है तो ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि स्पष्ट रूप से पैदा होने के बाद सही वक्त में हमें उससे अवगत कराया जाए ताकि हम उस मार्ग पर चल सकें।
जवाब देंहटाएंइंसान के पैदा होने के साथ ही वक्त बीतना शुरू हो जाता है। घड़ी की सुइयां चलती रहती हैं, कैलेंडर की तारीखें भी आगे की तरफ बढ़ती रहती हैं। जिंदगी नदी की धारा जैसे चलती जाती है और एक दिन इंसान खत्म हो जाता है। एक आदमी की जिंदगी बस कैलेंडर की 2 तारीखों के बीच का वक्त है। अगले जन्म में क्या होंगे, पुनर्जन्म होता भी है या नहीं.....ये तो बाद की बात है....ये किसी ने देखा भी नहीं....फिलहाल अगर उन चीजों पर बात करें जो सामने दिखाई देती हैं तो उसमें ये है कि एक आदमी जो पैदा हुआ है, उसे क्या करना चाहिए....कैसा जीवन बिताना चाहिए.....कोई चाहे कितना बड़ा महान इंसान हो या फिर चोर उचक्का....अंत तो सबका होना है। मुझे लगता है कि लोग सिर्फ इसलिए अच्छा काम करते हैं कि वो अपने जीते - जी खुश रहें....मरना नियति है और उसके बाद तो किसी ने देखा नहीं। इसलिए उन्हें जिस चीज में खुशी मिलती है वो करते हैं.....अब वो चाहे अंधकार की तरफ जाएं या प्रकाश की तरफ......कोई इंसान कुछ भी कर ले....लेकिन उसका अंत तो होना ही है। सारी चीजें....रिश्ते-नाते..भौतिक चीजें....सुख सुविधाएं आदि यहीं मिली हैं और हम जानते हैं एक दिन जब हम जाएंगे हमसे छिन जानी हैं। ये सब बहुत ही तात्कालिक हैं, फिर भी पूरी जिंदगी उसे पकड़ने की कोशिश क्यों करते हैं ? रिश्तों के प्रति मोह से इंसान बंधा क्यों है? क्यों ऐसा लगता है कि हमारे करीबी या जिन भी रिश्तों से अपनापन है वो हमेशा हमारे साथ रहें, जबकि हम खुद नहीं जानते कि कौन-सा पल ( शायद अगला ही) हमारा आखिरी हो सकता है। टेंपरैरी चीजों के लिए इतना लालच इंसान के अंदर क्यों है? बहुत से अनसुलझे सवाल हैं....लेकिन आज तक जवाब नहीं मिला। उम्मीद है आप अपने विचार रखेंगे।
किसी चींटी को उंगलियों से रोकने की कोशिश कीजिए और देखिए वो अपने जीवन को बचाने के लिए कितनी परेशान होती है। साफ है उसे अपने जीवन से सुंदर और कुछ नहीं लगता और अपने प्राणों को बचाने के लिए परेशान होती है। इसी तरह हर जीव अपने जीवन को सबसे सुंदर मानता है। आप मानव है इसीलिए आपका बाकी जीवनचक्रों के प्रति दृष्टिकोण कुछ और हो सकता है। हां ये सच है कि अभी तक ज्ञात प्राणीमात्रों में मानव ही ऐसा है जिसके पास विवेक है और इंद्रियों का सदुपयोग करके सत्य की प्राप्ति करने की शक्ति है। सत्य पाना आसान है पर असत से दूरी में भय उत्पन्न हो जाता है। जैसे जैसे इंद्रिय दुरपयोग या भोग और वासना बढ़ती है वैसे वैसे मानव भी प्राणी मात्र (जानवरों) की तरह होता जाता है। अगर मानव विवेक शून्य है तो उसमें और जानवरों में कोई फर्क नही है। बच्चे पैदा करना, खाना पीन और मनोरंजन करना ही जीवन है तो ये तो सारे जानवर करते हैं। मानव भोग में आबद्ध है तो वो मानव कहां... सत्य क्या है पर विस्तार से कुछ लिखने का प्रयास करूंगा.. अगर मेरे विवेक ने साथ दिया तो.. धन्यवाद
हटाएंअगर हर पोस्ट आवाज के साथ हो तो क्या कहने...
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