मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

दिन भर सोचने की बीमारी




मानव मस्तिष्क तीन कार्यों में दक्ष है । कल्पना शील है, किसी दृश्य की विवेचना कर सकता है या शांत रह सकता है । जीवन पर्यंत हमारे जो भी अनुभव होते हैं उनसे हमारी कल्पनाओं का निर्माण होता है । हम जैसा देखते सुनते और महसूस करते हैं तदनुरूप हमारी कल्पनाओं का भी परिमाण है । थियेटर के छात्रों को एक एक्सरसाइज़ करवाइ जाती है । इसमें सामुहिक रूप से छात्रों को बैठाया जाता है और उन्हें एक काल्पनिक परिस्थिति दी जाती है । उनसे कहा जाता है कि उन्हें सड़क पर एक झोला मिला है उसमें क्या हो सकता है? इसमें भाँति भाँति की प्रतिक्रियाएँ और कल्पनाएँ सामने आती हैँ।   कोई कहता है उसमें लाखों रुपय हैं, कोई कहता है इसमें हीरे जवाहरात है, कोई कहेगा हम लावारिस चीज क्यूँ उठाएँगे, कोई कहता है इसमें बम हो सकता है आदि इत्यादि । ऐसे ही एक सवाल के जवाब में मेरा जवाब था उसमें जादुई अँगूठी होगी जिसे पहन कर मैं ग़ायब हो जाऊँगा । सब हँसने लगे लेकिन उस वक़्त थियेटर सीखाने वाले सर बहुत ख़ुश गए उन्होंने कहा सही तरह से इस एक्सरसाइज़ को तुम्ही कर पाए । कल्पनाशीलता का इस्तेमाल तो कोइ कर ही नहीं पा रहा था सब अपने निजी जीवन के अनुभवों से कुछ तस्वीरें खींच दे रहे थे । इस घटना ने मुझे ये सीख तो दी की कल्पनाशीलता का मतलब रोज़मर्रा की इधर उधर की बातों को सोचना नहीं बल्कि कुछ नई बातों का सृजन करना है । सामान्यतः हम ऐसी ही तुच्छ कल्पनाओं में पूरा दिन और पूरा जीवन गुज़ार देते हैं ।  ये कुछ नया नहीं रचती बल्कि कोल्हू के बैल की तरह हमें गोल गोल घुमाती रहती है । हम इन्हीं की अलग अलग तरह से विवेचना करते रहते हैं। हासिल कुछ नहीं होता और भ्रम बना रहता है । हमारी अपेक्षाएँ और कल्पनाएँ सबका एक दायरा बन जाता है और इसे हम नियति और भाग्य का नाम भी दे देते हैं । ये भाव मन में इतने गहरे घर कर जाता है कि सत्य कहने वाला भी मूर्ख मालूम पड़ता है।  शांत रहने का काम मस्तिष्क तभी कर पाएगा जब वो इस दिन भर चलने वाले कल्पनाओं के क्षूद्र जाल को तोड़ देगा । कल्पनाशीलता का उपयोग करें लेकिन उसे समझने के बाद ही  और जब समझ जाएँगे तो इसके चमत्कार भी देख पाएँगे । आपका मस्तिष्क विचारों की फैक्ट्री की तरह काम कर रहा है लेकिन इसके उत्पाद ज्यादातर व्यर्थ ही हैं। व्यर्थ उत्पादों को हम कूड़ा कहते हैं और इनको रखने के लिए भी जगह चाहिए। ये व्यर्थ विचार मानसिक प्रदूषण का भी कारण हैं। कल्पनाओं में जीते हुए हम वर्तमान का जरा भी सम्मान नहीं कर पाते हैं। बीता हुआ कल और आने वाला कल दोनों ही असत्य हैं। इन दोनों का चिंतन वर्तमान की हत्या है और इसी का अभ्यास करते करते हम इसे सामान्य प्रक्रिया मान लेते हैं। चौबीस घंटे बिना वजह कल्पनाएं और विवेचनाएं करते रहना एक गंभीर मनोरोग है। इस रोग से बचने का एक मात्र उपाय है सही अभ्यास करना। ये सही अभ्यास है वर्तमान में जीना। क्या नहाते हुए अपने दफ्तर की बातों को सोचना, अपने बच्चे के साथ खेलते हुए किसी और बात को सोचना या दफ्तर में काम करते हुए अपने घर के बारे में सोचना, ये सब ठीक हैं ? अभी तो फौरन जवाब आएगा नहीं ठीक तो नहीं हैं, लेकिन हम करें क्या? अपने मस्तिष्क को विश्राम दीजिए। जब जो कर रहे हैं उसी में पूरी तरह खुद को लगाईये। सीढ़ियां चढ़ते वक्त उन्हे भी आप महसूस कर सकते हैं अपने दिल की धड़कन को महसूस कर सकते हैं। नहाते वक्त हम साबुन की खुशबू या उसके हमारे शरीर से स्पर्श को महसूस कर सकते हैं। ये तो कुछ उदाहरण हैं लेकिन इसी तरह अगर हम हर कार्य को सूक्ष्मता से महसूस करते हुए करेंगे तो अवश्य ही ये अभ्यास भी हमारी आदत बन जाएगा और हम वर्तमान में जीना सीख लेंगे। drpsawakening@gmail.com

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

कब तक भटकते रहोगे इस भूलभुलैया में?

ध्यानी नाम का लड़का एक भयानक जंगल मे भटक गया था और वो बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहा था। कई दिनों की मेहनत के बाद उसने रास्ता ढूंढ निकाला। वो जहां जहां से गुजरा वहां कुछ निशान बनाता चला गया ताकि इस भूलभुलैया जंगल में दोबारा भटकने पर भी रास्ता याद रहे। रास्ता ढूंढने के दौरान वो एक ऐसी खतरनाक जगह पर भी पहुंचा जहां घनी झाड़ियों के बीच एक गहरा दल दल था। उस लड़के को याद था कि उस दलदल में अगर वो जरा और फंस जाता तो कभी जीवित इस जंगल से बाहर नहीं जा पाता। उसे इस बात की भी चिंता थी कि वो तो किस्मत वाला था सो बच गया लेकिन कई और लोग भी इस तरह भटक सकते हैं या भटके होंगे जो शायद इतने चौकन्ने नहीं रहे होंगे। एक झटके में ही ऐसे कई अनभिज्ञ लोग झाड़ियों में छिपे इस दल दल में समा गए होंगे। उसने चेतावनी के तौर पर यहां कुछ लिख देने की ठानी। लिखने के लिए उसने अपने कपड़े को कागज बनाने की बात सोची और पेड़ पौधों फलों आदि से स्याही बनाने का दिमाग लगाया। अभी वो इस तैयारी में लगा ही था कि तीन लोग और भटकते हुए वहां पहुंच गए। ये शायद अभी अभी भटके थे क्यूंकि उनके कपड़े और हालत उतनी गंदी नहीं थी जितनी रास्ता खोज चुके ध्यानी की थी। वे तीनों उसी तरफ बढ़ने लगे जिस तरफ दलदल था। ध्यानी ने जोर से चिल्ला कर उन्हें चेताया कि कुछ ही कदम पर भयानक दलदल है, एक दो कदम और बढ़े तो निश्चित ही मौत है। ध्यानी ने कहा मैं वो रास्ता जानता हूं जो तुम्हें जंगल से बाहर ले जाएगा। तीनों ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा चेतावनी लिखने के लिए अपने कपड़े तक उतार चुके ध्यानी को उन लोगों ने पागल समझा। हांलाकि इनमें से एक जो थोड़ा डरा हुआ था वो उसकी बात सुनकर ठिठक गया। बाकी दो उसके लाख मना करने पर भी आगे बढ़े और दलदल में समा गए। ध्यानी रोता पीटता रहा पर अब कुछ नहीं हो सकता था। जो एक व्यक्ति ध्यानी की बात मानकर रुक गया था उसने ध्यानी के पैर पकड़ लिए और कहा कि यहां रुककर किसी को लाख समझाओगे तो भी कोई नहीं मानेगा। ध्यानी ने उसकी तरफ देख और एक उम्मीद बंधी। उसने कहा तुमने तो मेरी बात सुनी तुम तो बच गए। उसने अपनी चेतावनी यहां बांधने के कार्य को जारी रखा। उसके मन में ये बात तो आ गई थी कि जो चेतावनी को सच मानेगा वो तो कम से कम बच जाएगा। बाकि सबका अपना विवेक और ईश्वर इच्छा है। ये मेरी ही रची एक काल्पनिक कहानी है। ये सुनते ही उस दलदल का डर आपके मन से निकल गया होगा लेकिन जरा ध्यान दीजिए क्या हम सभी ऐसे ही एक जंगल में नहीं भटक रहे हैं। इस असत माया रूप जंगल से बाहर निकलने का रास्ता कई ध्यानियों ने खोजा है। इसके बारे में वे कई चेतावनियां लिख चुके हैं। कुछ तो आज भी ध्यानी की तरह चिल्ला चिल्ला कर लोगों को दलदल में धंसने से रोकने की कोशिश में चिल्लाते रहते हैं। कुछ हैं जो उस बचे हुए एक शख्स कि तरह किसी संशय या अपने डर से ठिठक जाते हैं। रास्ता हम सब खोज सकते हैं बशर्ते चेतावनियों का ध्यान रखें। कई ज्ञानी अपनी बातों को लिख गए हैं उनके महान शब्दों को कपड़े में लपेटकर पूजा घर में रखने वाले भी उसी दलदल की ओर बढ़ते है। उन्हें पढ़िए और समझिए कि सत्य क्या है। समझ में नहीं आता तो उनके पास जाइए जिन्होंने रास्ता खोज लिया है। drpsawakening@gmail.com

रविवार, 19 अक्टूबर 2014

जरूरत से ज्यादा की अंधी दौड़!


जिस तरह भोजन की गुणवत्ता से ही उसके आपके शरीर पर पड़ने वाले असर को हम जानते हैं, जिस तरह एक विचार की गुणवत्ता से उसके हमारे मन पर पड़ने वाले असर को हम जानते हैं ठीक वैसे ही धनोपार्जन के तरीके से ही हमारे जीवन पर पड़ने वाले उसके असर को भी हमें देखना समझना और सीखना चाहिए। हममें से कई लोग भोजन करते वक्त सर्तकता बरतते हैं। खास तौर पर जब बाहर खाना खाते हैं तो खाने की गुणवत्ता और शरीर के हित-अनहित का विशेष ध्यान रखते हैं। जो पूरी तरह स्वाद के या इंद्रिय भोग के गुलाम होते हैं उन्हें इस पर भी विचार करने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती है। फिर एक पुरानी कहावत भी है जैसा खाएंगे अन्न, वैसा रहेगा मन। शरीर पर पड़ने वाले असर के अलावा मन पर भी इसका असर पड़ता है। मन जो आपके विचारों का पुलिंदा भर है। आप दिन रात जिस तरह की बातें सोच रहे हैं वही आपका स्वभाव बना देता है। आप चिड़चिड़े हैं तो बहुत साफ है कि आप तनावग्रस्त विचारों से गुजर रहे हैं। आप जीवन की चाह और आनंद को खो चुके हैं तो आप अवसादग्रस्त विचारों से गुजर रहे हैं। इस वैचारिक भोजन को हम जानते बूझते इसीलिए लेते चले जाते हैं क्यूंकि हम इसका भी मजा लेने लगते हैं। इस मूर्खता को ही अपना जीवन समझने लगते हैं। जैसे बीमारी में भोजन के परहेज बताएं जाते हैं ठीक वैसे ही मनोविकारों की बिमारी में विचारों के परहेज होना चाहिए। वैसे जीवन में अगर भोजन की गड़बड़ियां ना हो तो ज्यादतर बीमारियों आती ही नहीं है और हम स्वस्थ बने रहते हैं। ठीक ऐसे ही अगर विचार भ्रमित न हो तो मनोविकार उत्पन्न ही नही होगा।
भ्रष्ट संस्कारों से मनोविकारों के जन्म और भ्रष्ट कर्मों के दुष्परिणामों को हम आए दिन देख रहे हैं। हम जानते हैं कि उच्च पदों पर बैठे लोग, बड़े-बड़े राजनैतिज्ञ, फिल्मी सितारे या उनके बच्चे ऐसी अवस्था में दिख रहे हैं जिसकी भरसक निंदा की जा रही है। आज एक ऐसा समय है जब जाने माने और ताकतवर राजनेता ही नहीं बल्कि छोटे मोटे अनजान से सरकारी कर्मचारियों के पास भी अकूत काल धन मिल रहा है। धन और वैभव को ही युवा अपने आदर्श के तौर पर ही देख रहे हैं लेकिन वो इनके दुष्परिणामों पर विचार करने को तैयार ही नहीं है। धन की भूख भी ठीक भोजन और विचारों की भूख की तरह होती है। अगर न खाने योग्य चीजें खाने से बीमार होते हैं, न सोचने योग्य विचारों से मनोरोगी होते हैं, तो न कमाने वाले तरीकों से लाए गए धन से घर में बीमारी ही लाते हैं। आंखों पर मूर्खता की पट्टी बांधे कई लोग महत्वपूर्ण पदों पर होते हुए भी इस भूख के ऐसे शिकार होते हैं कि उन्हें अपने दुखद अंत का अंदाजा होते हुए भी वो इस बुरी लत को छोड़ने में खुद को असमर्थ पाते हैं। देश के प्रतिष्ठित संत पं. देवप्रभाकर शास्त्री इस पर अपना मत रखते हुए कहते हैं कि बहु जोतना, बहु खाना यही आज के समाज की सबसे बड़ी समस्या है। कितना सुंदर वाक्य है ये जो पुरी बात एक झटके में समझा देता है।
आज का समाज ज्यादा कमाने की भागदौड़ में है। क्यूं? इसका जवाब ढूंढना तो छोड़िए प्रश्न की आवश्यक्ता ही महसूस नहीं होती। बड़ा सीधा जवाब मौजूद सब ऐसा करते हैं इसीलिए हम भी ऐसा कर रहे हैं। वैभवपूर्ण जीवन कौन नहीं चाहता? जबकि सब जानते हैं अच्छी नींद महंगे बिस्तर से नहीं, स्वस्थ मन और परिश्रमी शरीर से आती है। आवश्यक्ता से अधिक के लिए भागने वालों को कुछ हासिल नहीं होता सिवाय अवसाद के। drpsawakening@gmail.com



शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

आप कुछ भूल गए हैं।


आप कार से या अपने किसी भी वाहन से कहीं जाते हैं तो गंतव्य पर पहुंच कर इंजन बंद करना नहीं भूलते। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो ईंधन की बर्बादी होगी नुकसान होगा। बिजली के तमाम उपकरण चाहे वो पंखा हो, एसी हो, माइक्रोवेव हो, जब इनका इस्तेमाल हो जाता है तो आप स्विच ऑफ कर देते हैं। अगर भूल जाते हैं तो बिजली की बर्बादी होती है और नुकसान होता है। नल के नीचे लगी बाल्टी भर जाने के बाद नल चलता छोड़ देना पानी की बर्बादी करता है। ऐसा ही आप दुनिया में इस्तेमाल की जाने वाली हर चीज के बारे में देखते हैं कि उस चीज का उपयोग हो जाने के बाद आप उसके क्षय को रोकने के लिए उसे बंद कर देते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आपके पैदा होने के बाद से लेकर आज तक आप कुछ बंद करना भूल गए हैं। इस भूल की वजह से ऊर्जा की बर्बादी हो रही है। आपकी शांति, आनंद, प्रज्ञा, ओज, सामर्थ्य, ज्ञान, प्रेम सबकी बर्बादी हो रही है और जीवन का भारी नुकसान हो रहा है।
हां, ये सच है कि आप जीवन उपभोग की सारी वस्तुओं को इस्तेमाल करने के बाद उन्हें विराम देते हैं। यहां तक की अपने शारीरिक परिश्रम से थककर आप शरीर को भी विश्राम देते हैं लेकिन आपका मस्तिष्क आज तक विराम को प्राप्त नहीं हो पाया है। आप उसे इस्तेमाल करने के बाद बंद करना भूल गए हैं। यही वजह है कि हर बीतते पल के साथ आप उसे कमजोर करते जा रहे हैं। नई चीजों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। बच्चों की तरह चंचलता, सीखने की ललक को खोते चले जा रहे हैं। जाहिर सी बात है इसे विराम नहीं मिलेगा तो ये अपने निर्धारित कामों को ठीक से नहीं कर पाएगा। हम पेट्रोल की कीमत जानते हैं इसीलिए गाड़ी फौरन बंद कर लेते हैं। हम बिजली के बिल से डरते हैं इसीलिए सोच समझकर बिजली का उपयोग करते हैं लेकिन जरा गंभीरता से विचार करिए आप जीवन ऊर्जा और विचार शक्ति का क्या करते हैं?
विश्वास जानिए इस बर्बादी की जितनी कीमत आपको चुकानी पड़ती है वो इन दुनियावी खर्चों और बर्बादियों से कहीं ज्यादा है। आप उस ईश्वरीय देन को क्षीण करते जाते हैं जो आपको सत्य के दर्शन करवाती है। आनंद आपके भीतर है, आप ज्ञानपुंच के तौर पर ही मानव बने हैं। आपके इंद्रिय ज्ञान आपको योगवित बनाने के लिए हैं। जैसे जैसे आपकी विचारशक्ति की बर्बादी होती जाती है आप इन सब बातों को भूलते जाते हैं जो आप के भीतर बीजरूप में मौजूद हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब ये इतनी क्षीण हो जाती है कि आप इस बात को स्वीकार ही नहीं करते हैं और जिस भी परिस्थिती में जैसा भी जीवन जी रहे होते हैं उसे ही भूलवश सत्य मान बैठते हैं। इसी समय से आपकी असीमित ऊर्जा सीमा के बंधनों में बंधकर आपको तुच्छ कर देती है।
प्रश्न ये है कि इंजन बंद करनी की चाबी है, बिजली का स्विच है, नल की टोंटी है, पर दिमाग का कौनसा बटन है? अदृश्य बटन आपके विचार ही हैं और इन विचारों को विराम देने की कुंजी सिवाय ध्यान के और कुछ नहीं। ध्यान का मतलब है निर्विचारता को प्राप्त होना। इसकी कई विधियां कई ज्ञानियों ने कही हैं और ध्यानियों के कई अनुभव भी हैं। कुछ ज्योति पुंज में, कुछ ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों में ध्यान लगाते हैं। उत्तम ध्यान की अवस्था है अनहद नाद को सुनना और हर ध्यानी के ध्यान का चरम यही ब्रह्मनाद ओंकार है। drpsawakening@gmail.com


गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग!


एक सज्जन बाल झड़ने से बहुत परेशान थे। किसी की सलाह पर एक आयुर्वेदाचार्य के पास गए। वेद जी आयुर्वेद तो जानते ही थे तत्व ज्ञानी भी थी। वे मन और शरीर दोनों के इलाज में विश्वास करते थे। पीड़ित ने कहा वेद जी कोई ऐसा उपाय कीजिए कि बाल न झड़े। वेद जी ने पूछा बाल तो एक दिन जाने ही हैं फिर इनकी इतनी चिंता क्यूं करते हो। उस व्यक्ति ने कहा बाल झड़ गए तो लोग क्या सोचेंगे, मैं बड़ा ही बदसूरत दिखने लगूंगा। वेद जी ने कहा और बाल रहे तब क्या कर गुजरोगे। वो कुछ देर चुप रहा फिर बोला आत्मविश्वास बढ़ता है। वेद जी ने कहा मेरे पास दवा तो है और इतनी असरदार कि इस दवा से बाल झड़ना रुकेंगे भी और नए बाल भी आ जाएंगे पर परेशानी ये है कि तुम्हारी नेत्र ज्योति पर इसका बुरा असर पड़ेगा। उस व्यक्ति ने क्षण भर विचार किया और हां कह दिया। उसने कहा मैं भले ही साफ न देख पाउं लेकिन लोग तो मुझे देख पाएंगे। वेद जी समझ गए कि जब इसे बाह्य दृष्टि की ही कीमत नहीं तो ये अंतर्दृष्टि क्या समझ पाएगा। लगता है ना ये शख्स एक मूर्ख के समान। अगर हां तब तो आप बाह्यदृष्टि की कीमत करते हैं और सत्य की खोज में आगे बढ़ने को तैयार है और नहीं तो आप भी दूसरों की दृष्टि में आप कैसे और क्या हैं को ही महत्व दीजिए।
ये कहानी बेशक बहुत हास्यापद लगे लेकिन भूलवश हम जीवन में कई ऐसे ही काम किए चले जा रहे हैं। आपको बालों की नहीं तो गाड़ी, घर, पद आदि जाने कितनी बातों की असत पीड़ा होगी। फिर इस सबके मूल में भी दूसरे आपके बारे में क्या सोचते हैं का ही चिंतन रहता है। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ का स्तर बहुत गिरा हुआ है। प्रतिस्पर्धा उन्नति के लिए हो तो रचनात्मक होता है लेकिन मूर्खतापूर्ण हो तो विनाशकारी है। आप किसी से ज्यादा वैभवपूर्ण दिखे, किसी से ज्यादा सुंदर दिखे, ज्याद बड़ा घर लें जैसी बातों के मूल में क्या है? कभी विचार किया? इस सबके मूल में भेद है। मैं और मेरा को महत्व देना मनुष्य को आत्ममुग्ध और स्वार्थी बना देता है। हम अपनी सीमित दुनिया बनाकर उसी को दिन रात सजाने संवारने में जुटे रहते हैं। उस बाल झड़ने वाले की बात तो हमें मूर्खता लगेगी लेकिन अपने जीवन में दूसरों को दिखाने के लिए दिन रात गधा हम्माली करना हमें समझदार लगती है। इसकी बड़ी वजह ये है कि जब सभी मूर्खता करते हैं तो भीड़ मूर्खता को ही समझदारी मानने लगती है। ये मूर्खता इसीलिए है क्यूंकि हम अगर झूठे वैभव और झूठी सुंदरता में ही लगे रहेंगे तो सच्चे वैभव और सच्ची सुंदरता का क्या होगा?

महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, अलबर्ट आइंस्टाइन ये सब अपने बालों के बारे में या धन दौलत, वैभव के बारे में सोचते तो क्या होता? जवाब साफ है ये सब वो नहीं होते जिनके लिए दुनिया इन्हें सलाम करती है। इनकी तस्वीरें भर घर में टांग देने से बात नहीं बनेगी। एक युवक ने इस पर जवाब दिया सब तो इनकी तरह नहीं बन सकते। हां बात सच है लेकिन थोड़ा सुधार है। सब इनकी तरह बन सकते हैं लेकिन सब इनकी तरह बन सकने को सत्य मानते ही नहीं। फिर कहा ये भी जा सकता नहीं हम तो छोटे लक्ष्यों के साथ अपनी जिंदगी को ज्यादातर लोगों की तरह जीना ही बेहतर मानते हैं। कोई रोक नहीं आप ऐसे भी जी सकते हैं बस जीवन में कभी कोई शिकवा मत करना क्यूंकि ये आपकी अपनी पसंद है।

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

परिश्रम नहीं विश्राम करें!

जीवन में परिश्रम पर बहुत जोर दिया जाता है लेकिन जीवन का रस और अनंत आनंद तो विश्राम में है। विश्राम और आलस्य में फर्क करना आना चाहिए। आलस्य जहां कमजोर और विसादग्रस्त बनाता है वहीं विश्राम शक्तिशाली और आनंदपूर्ण बनाता है। किसी कार्य को करते वक्त श्रम किया जाता है लेकिन उसके बाद उससे होने वाली प्राप्ति उसकी सफलता असफलता का चिंतन आदि में व्यर्थ परिश्रम किया जाता है। कार्य के संपादन के बाद यही विश्राम का समय होता है। जिन्हें विश्राम की कला आती है वे ज्यादा श्रमी होते हैं क्यूंकि उनके श्रम का शत-प्रतिशत इस्तेमाल किसी कार्य के संपादन में होता है। आमतौर पर यही देखने में आता है कि हमारे जीवन में ज्यादातर श्रम बेकार का है क्यूंकि हम उन बातों के विषय में चिंतन करते हैं जिनका सचमुच उस कार्य से कोई लेना देना नहीं होता है। किसी छात्र के लिए परीक्षा में किस तरह के प्रश्न आएंगे, वो पास होगा या फैल, अगर फैल हुआ तो क्या होगा आदि इत्यादि जैसे सवाल व्यर्थ हैं। विवेकपूर्ण तरीकें से ये छात्र विचार करें तो उन्हें भी अनुभव होगा कि परीक्षा की तैयारी में कम श्रम और इस व्यर्थ चिंतन में अधिक परिश्रम लगता है। अगर तैयारी के श्रम के साथ विश्राम को अपनाया जाए तो अधिक संभावनाशील परिणाम आने निश्चित हैं। प्रश्न ये उठता है कि आखिर विश्राम कैसे करें? बढ़ी दिलचस्प बात ये है कि कुछ नहीं करने को तो ही विश्राम कहते हैं। दरअसल शारीरिक श्रम तो कुछ नहीं, आपको थकाने वाला असली श्रम मानसिक है। हम सभी जानते हैं और अनुभव करते है कि शांत मन और मस्तिष्क शरीर को भी ऊर्जा से भरे रखता है। मन का तेज घोड़ा कुछ-कुछ देर में हमें घसीटता हुआ कहां से कहां ले जाता है। घसीटे जाने में जो कुछ होता है वो सब आपके साथ इस प्रक्रिया में होता है। आपकी दिशा, नियंत्रण, सुरक्षा कुछ भी आपके हाथ में नहीं होती। सबसे अहम बात ये कि आप न चाहते हुए भी परिश्रम करते हैं, थकते हैं, चोटिल होते हैं। क्यूंकि ये शारीरिक श्रम नहीं है इसीलिए चोटें भी बाहर महसूस नहीं होंगी। अंदर की चोटें महसूस तो होती हैं लेकिन कभी समझ नहीं पाते ये क्यूं है किस वजह से है। ये बेवजह के परिश्रम से है जो मन का घोड़ा आपसे करवाता है। विचारों से मन बनता है। आपके अनुभव, जीवन की घटनाएं, चाहतें आदि आपके मन को संचालित करते हैं। विचार के संस्कार इन्हीं से आते हैं। मन चंचल है इसीलिए अपनी जगह बीते कल और आने वाले कल तक बनाता है। हम वर्तमान विचारों को इन्हीं के आधार पर कहीं के कहीं ले जाते हैं। पुरानी असफलताएं और भय हमें नए प्रयासों में भी डरा कर रखते हैं। इतना भर जान लेने से कि मन आपके अधीन है आप उसके अधीन नहीं, विचार आपके अधीन है आप उनके अधीन नहीं विश्राम की ओर कदम बढ़ जाते हैं। जब विचार वर्तमान में स्थिर होते हैं तो आप विश्राम में होते हैं। कभी अपनी सांसों, इर्दगिर्द की आवाजों, खुशबुओं, दृश्यों आदि को निर्विचारता के साथ अनुभव कीजिए। उनकी समीक्षा मत कीजिए, कोई निर्णय मत बनाइए बस देखिए, सुनिए और महसूस कीजिए। ये विश्राम की ओर पहला कदम होगा। इसका अभ्यास जैसे जैसे बढ़ता जाएगा विश्राम की स्थिरता आती जाएगी। विश्राम ऊर्जा को सही दिशा देता है और जब श्रम की आवश्यक्ता होती है तो वो पूरी तरह से कार्यसिद्धि में लगता है। हमेशा याद रखिए जो विश्राम में है उनका श्रम अवश्य ही सुंदर सृजन करता है।


सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

आस्था और अंधविश्वास


ईश्वर है और सिर्फ वहीं है। मैं अनंत चैतन्य ईश्वर का ही अंश हूं। समस्त सृष्टि का जन्मदाता वही है। ये आस्था है। ईश्वर है और वो मेरी क्षूद्र भौतिक मनोकामनाओं की पूर्ती के लिए देवस्थानों या मूर्तियों, पेड़ों, नदी-नालों आदि इत्यादि में वास करता है ये अंधविश्वास है। ईश्वर के इस असत स्वरूप को सत्य मानने वाले ईश्वर प्राप्ति से बहुत दूर हो जाते हैं। सांसरिक लोगों कि सामान्य मनोवृत्तियों और अपेक्षाओं को जानते हुए कई लोगों ने अंधविश्वास की बड़ी-बड़ी दुकानों को रच दिया। हालत तो ये हो गई कि ईश्वर उपासना के महत्व से ही हम बहुत दूर निकल आए। हर पल प्रकृति सुंदर रचनाएं करती रहती है और मनुष्य भी अपनी सुविधा के लिए नित नए अविष्कार करता चला जा रहा है। इन दोनों के बीच एक झूठ भी पलता रहता है और वो ये कि मनुष्य की समझ से परे कई परलौकिक बातें भी हैं। इन्हीं के किस्से कहानियां बनाकर लोगों की समस्याओं को दूर करने उनकी मनोकामनाओं को पूरा करने की ठगविद्या शुरू हो जाती है। आज हम मंगल पर यान भेज रहे हैं लेकिन मांगलिक दोष से हमारा पीछा नहीं छूट रहा। हम मंगल पर जा सकते हैं ये आस्था और विश्वास है और बिना जाने मंगल हम पर कोई असर करता है ये अंधविश्वास है। ऐसे ही जाने कितने मन्नतों के धागे, नारियल आप बांधते और तोड़ते रहे हैं। भजन कीर्तन पूजा पाठ ईश्वर के गुणगान करने के तरीके हैं और उस परमशक्ति का जितना गुणगान किया जाए उतना कम है। लेकिन अगर इस सबके मूल में घर, गाड़ी, पदोन्नती आदि की चाह है तो ये न पूजा है न ही भजन। स्वार्थ सिद्धि को उपासना मानना बड़ी मूर्खता है। अपने से बड़ों को हमने जो कुछ करते देखा है आंख मूंद कर वही सब करते रहना कोई समझदारी नहीं है। हर मानव मात्र को विवेक का प्रकाश मिला है जो बातें हमारे ज्ञान से सिद्ध हैं उन्हें हमें स्वीकार करना चाहिए लेकिन जिन बातों का कोई तुक नहीं दिखाई देता उनका पल्ला पकड़ के रखना घोर अंधविश्वास है। अंधविश्वास इतने गहरे घर कर गया है कि आज कई लोग धर्मांध होकर अपनी विचारशीलता और विवेक को ही खो बैठे हैं। कोई इन बातों पर लोगों को सत्य का प्रकाश देने की कोशिश करे तो उसका ही विरोध शुरू हो जाता है। वेदों पुराणों के नाम पर बहुत से लोगों ने बहुत ही भ्रामक स्थितियां पैदा कर दी हैं। ये वे लोग है जिन्होंने वेद पुराण का अध्ययन भी नहीं किया है हां जब भी कोई प्रश्न पैदा हो तो उस पर वेदों में ऐसा लिखा है कहकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। कई बच्चों को मैंने मंदिरों में धागे बांधते देखा है। पूछा ऐसा क्यूं करते हो? तो कहते हैं परीक्षा में पास होने के लिए। हास्यापद नहीं लगता ये? अगर नहीं लगता तो आप भी अज्ञान की पट्टी हटाएं और अपने ज्ञान के प्रकाश में सत्य को जानने का प्रयास करे। आप मनुष्य हैं जिसके पास तर्कशक्ति है। आज बड़े-बड़े पुल, इमारतें, सड़के, हवाई जहाज, सैटेलाइट आदि जैसी मानव की जिन रचनाओं को आप देखते हैं उसके पीछे यही तर्क शक्ति है। ऐसा है तो क्यूं है? ऐसा कैसे हो सकता है? जैसे कई सामान्य सवाल हमारी शंकाओं का निदान करते हैं लेकिन हम ईश्वर के मामले में पूरी तरह रूढ़िवादी बने रहते हैं। इसकी वजह है ईश्वर को स्वयं खोजने के बजाए दूसरे के बताए गलत रास्तों पर भटक जाना। देखिए रास्ता बताने वाले सही लोग भी हैं गलत भी पर आपकी विवेकशीलता आपको गलत और सही का फर्क बताती है। अपने विवेक को जागृत रखने के लिए उस पर चढ़ी अज्ञान की मोटी चादर को उतार फेंकने की जरूरत है। अज्ञान है बिना जांचे परखे किसी भी मान्यता के साथ चल पड़ना। स्वामी विवेकानंद युवाओं से हमेशा ये आह्वान करते रहे कि जब तक स्वयं जांच परख न लो दुनिया की किसी मान्यता पर विश्वास न करो। हम किसी को अगरबत्ती लगाते देखते हैं तो वैसा ही करने लगते हैं। ईश्वर के जिस रूप को पूजते देखते हैं उसी में आस्था करने लगते हैं। किस्से कहानियां सुन-सुनकर अपनी आस्थाएं बना लेते हैं। एक समय ऐसा आता है जब हम इन देख-देखकर सीखी हुई बातों को इतना गहरे बैठा लेते हैं कि इन्हें अपने विवेक से सिद्ध मानने लगते हैं। खुद विरोध करना तो छोड़िए किसी और के विरोध को भी नास्तिकता मानने लगते हैं। नास्तिक वो नहीं जो सदग्रंथों को पढ़कर सामान्य पुस्तकों के साथ रख देते है नास्तिक वे हैं जो सद्ग्रंथों को कपड़ों में लपेट कर मंदिर में रख देते हैं रोज उन्हें प्रणाम करते हैं लेकिन कभी उनके संदेशों को समझने का प्रयास नहीं करते। ईश्वर को सीमित स्थानों पर देखने वाले नास्तिक हैं और हर मानवमात्र और प्राणीमात्र के साथ समस्त सृष्टि में ईश्वर ही हैं ऐसा मानने वाले सच्चे आस्तिक है बाकि अंधविश्वासी।

डॉ प्रवीण श्रीराम

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

महत्वपूर्ण ये नहीं कि आप कब मरेंगे, महत्वपूर्ण ये है कि आप कब जीना शुरू करेंगे।

पहले तो मैं मानव हूं इस बात के लिए ईश्वर का बहुत-बहुत धन्यवाद। मानव होने में क्या विशेषता है? आनंद करना, भोजन करना, बच्चे पैदा करना, सुख-दुख का अनुभव करना आदि इत्यादि अगर यही जीवन है तो हमारे और एक पशु के जीवन में क्या अंतर है? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यक्ता है। ये सभी कार्य पशुओं के द्वारा भी संपन्न किए जाते हैं। महंगे और बड़े घरों में रहने का सुख कई पालतू जानवरों को मिलता है और ऐसा ही कई महंगी गाड़ियों के लिए भी है। ये बात तो साफ है कि वैभव पूर्ण जीवन और भोग के लिए मानव जीवन होना महत्वपूर्ण नहीं वो तो पशुओं को भी मिल सकता है। फिर ये भी सत्य है कि ये सारे भोग भी नश्वर आनंद ही देते हैं स्थायी आनंद नहीं।
प्रश्न उठेगा ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई आनंद स्थायी हो जाए? देखिए कितना समझदार होता है मानव। उसमें तर्क और विचार की वो सकती होती है जो अन्य पशुओं में या तो नहीं होती या बहुत क्षूद्र होती है। मानव की विचारशक्ति ही उसे पशुओं से अलग बनाती है। हांलाकि पशुवत ही जीवन जीते हुए हम कभी इस विशेषता को समझ ही नहीं पाते। जीवनपर्यंत इसी प्रश्न और उत्तर के बीच के कथन, ऐसा कैसे हो सकता है! ... के साथ ही जीवन जीये चले जाते हैं। एक बड़ा सुंदर कथन एक ज्ञानी के द्वारा कहा गया है। डर इस बात का नहीं कि हम कब मरेंगे बल्कि डर इस बात का है कि हम कभी जीना शुरू भी कर पाएंगे या नहीं। ये तो सच है कि जब तक भोग-विलासिता का पशुवत जीवन हम जीते रहेंगे तब तक हम जीवन शुरू ही नहीं कर पाएंगे। मानव के दिव्य जीवन को पाने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना है बल्कि विश्राम ही इसके मूल में है। विश्राम का मतलब आलसी होकर बिस्तर पर अकर्मण्य की तरह पड़े रहना नहीं बल्कि सांसरिक कार्यों में निर्लिप्त भाव से उन्हें करते हुए उनका आनंद लेना है।
ज्ञानयुक्त दिव्य मानव जीवन किसी महात्मा के प्रवचन, किसी लेख को पढ़ने या किसी व्रत को करने से नहीं मिलता। ये सब आप में पहले से मौजूद ज्ञान को जागृत करने में उत्प्रेरक की भूमिका भर निभा सकते हैं। जिस तरह अंधकार का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं वैसे ही अज्ञान का भी कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। प्रकाश की अनुपस्थिती को हम अंधकार कहते हैं और इसी तरह ज्ञान की अनुपस्थिती अज्ञान है। ज्ञान की अनुपस्थिती का कारण विचारों का भ्रमित होना मात्र है। हमारे विचार ही हमारा व्यक्तित्व बनाते हैं।
हम ज्यादातर समय व्यर्थचिंतन की वजह से प्रकाश को ढंक कर रखते है और ज्ञान से दूर रहते हैं। जिस पल आप व्यर्थचिंतन की मोटी चादर को गिरा देते हैं उसी पहले से मौजूद ज्ञान का प्रकाश आपको परमशांति का अनुभव करवाता है। अप्राप्त परिस्थिती का चिंतन ही अज्ञान की इस मोटी चादर के मूल में है। जिस समय जिस वक्त जिस जगह पर हम हैं उसके अलावा हम बाकी सब कुछ सोच रहे हैं और यही हमें वर्तमान की सुंदरता और सदुपयोग से दूर कर रहा है। इसी वक्त जरा अपने इर्द-गिर्द की चीजों पर निगाह दौड़ाईये। इन पर कोई निर्णय मत दीजिए, कोई अन्य विचार मत लाइये, कोई विवेचना मत कीजिए, बस देखिए। अपनी सांसों को दिल की धड़कन को जरा महसूस कीजिए। अपने इर्द-गिर्द की हर चीज की खूबसूरती और चमक को महसूस कीजिए। आप पाएंगे की आपकी कल्पनाएं और व्यर्थ विचार आपको कहां ले जाते है। एक झूठे संसार में, जिसका कोई अस्तित्व है ही नहीं।
कुछ छात्रों और दोस्तों को जब ये बात कहता हूं तो वो कहते हैं ये सब तो होता ही है। इससे कहां बचा जा सकता है। बचा जा सकता है? ये प्रश्न ही बताता है कि वे जानते है कि ये कोई ऐसी गलत चीज है जिससे बचने की जरूरत है लेकिन उसमें खुद को असमर्थ पाते हैं। ये असमर्थता धीरे—धीरे आदत बन जाती है और इच्छा शक्ति के अभाव में हम अपने सामर्थ्य को पूरी तरह से नकार देते हैं। आज असमर्थता को ही सत्य मानकर चलने की वजह से नशाखोरी भी बढ़ती जा रही है। कहते हैं ग़म मिटाने के लिए, तनाव खत्म करने के लिए नशा करते हैं। हा हा हा। इससे ज्यादा हास्यास्पद और क्या होगा कि अपनी बनाई परेशानियों और छद्म दुखों से क्षणिक छुटकारे के लिए हम बड़ी मुसीबतों को निमंत्रण देते हैं और अंततः इस सुंदर मानव जीवन को पशुओं जैसा ही बनाकर छोड़ देते हैं।
क्रोध, ईर्ष्या, भय ये मानव के स्वभाविक गुण नहीं है अज्ञान और जीवन को नहीं समझ पाने की वजह से उपजे अवसाद की वजह से इनका जन्म होता है। इसी बात से ये सिद्ध हो जाता है कि सत्य जीवन को समझना और हमेशा आनंद में रहना (जो हमें फिलहाल असंभव लगता है) यही हर मानव मात्र के जीवन का सही उद्देश्य है। इस सुंदर प्रकृति में समदृष्टि और समभाव रखना जहां आप हैं कि उपयोगिता सिद्ध करता है। मैं मानव हूं, अलौकिक सृष्टि का हिस्सा हूं और सत्य का अनुसंधान स्व-रूप (अपने जीवन का सही सही ज्ञान) यही मेरे होने की वजह है। सभी बातों को समाहित एक लेख में समाहित कर पाना जरा मुश्किल होता है। हम तर्क और विचार शीलता की वजह से ही मानव है। आप अपने सुझाव, प्रश्न, अनुभव मुझे drpraveentiwari@gmail.com पर जरूर भेजें। धन्यवाद, आपको स्व-रूप का ज्ञान हो।