शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

महत्वपूर्ण ये नहीं कि आप कब मरेंगे, महत्वपूर्ण ये है कि आप कब जीना शुरू करेंगे।

पहले तो मैं मानव हूं इस बात के लिए ईश्वर का बहुत-बहुत धन्यवाद। मानव होने में क्या विशेषता है? आनंद करना, भोजन करना, बच्चे पैदा करना, सुख-दुख का अनुभव करना आदि इत्यादि अगर यही जीवन है तो हमारे और एक पशु के जीवन में क्या अंतर है? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यक्ता है। ये सभी कार्य पशुओं के द्वारा भी संपन्न किए जाते हैं। महंगे और बड़े घरों में रहने का सुख कई पालतू जानवरों को मिलता है और ऐसा ही कई महंगी गाड़ियों के लिए भी है। ये बात तो साफ है कि वैभव पूर्ण जीवन और भोग के लिए मानव जीवन होना महत्वपूर्ण नहीं वो तो पशुओं को भी मिल सकता है। फिर ये भी सत्य है कि ये सारे भोग भी नश्वर आनंद ही देते हैं स्थायी आनंद नहीं।
प्रश्न उठेगा ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई आनंद स्थायी हो जाए? देखिए कितना समझदार होता है मानव। उसमें तर्क और विचार की वो सकती होती है जो अन्य पशुओं में या तो नहीं होती या बहुत क्षूद्र होती है। मानव की विचारशक्ति ही उसे पशुओं से अलग बनाती है। हांलाकि पशुवत ही जीवन जीते हुए हम कभी इस विशेषता को समझ ही नहीं पाते। जीवनपर्यंत इसी प्रश्न और उत्तर के बीच के कथन, ऐसा कैसे हो सकता है! ... के साथ ही जीवन जीये चले जाते हैं। एक बड़ा सुंदर कथन एक ज्ञानी के द्वारा कहा गया है। डर इस बात का नहीं कि हम कब मरेंगे बल्कि डर इस बात का है कि हम कभी जीना शुरू भी कर पाएंगे या नहीं। ये तो सच है कि जब तक भोग-विलासिता का पशुवत जीवन हम जीते रहेंगे तब तक हम जीवन शुरू ही नहीं कर पाएंगे। मानव के दिव्य जीवन को पाने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना है बल्कि विश्राम ही इसके मूल में है। विश्राम का मतलब आलसी होकर बिस्तर पर अकर्मण्य की तरह पड़े रहना नहीं बल्कि सांसरिक कार्यों में निर्लिप्त भाव से उन्हें करते हुए उनका आनंद लेना है।
ज्ञानयुक्त दिव्य मानव जीवन किसी महात्मा के प्रवचन, किसी लेख को पढ़ने या किसी व्रत को करने से नहीं मिलता। ये सब आप में पहले से मौजूद ज्ञान को जागृत करने में उत्प्रेरक की भूमिका भर निभा सकते हैं। जिस तरह अंधकार का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं वैसे ही अज्ञान का भी कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। प्रकाश की अनुपस्थिती को हम अंधकार कहते हैं और इसी तरह ज्ञान की अनुपस्थिती अज्ञान है। ज्ञान की अनुपस्थिती का कारण विचारों का भ्रमित होना मात्र है। हमारे विचार ही हमारा व्यक्तित्व बनाते हैं।
हम ज्यादातर समय व्यर्थचिंतन की वजह से प्रकाश को ढंक कर रखते है और ज्ञान से दूर रहते हैं। जिस पल आप व्यर्थचिंतन की मोटी चादर को गिरा देते हैं उसी पहले से मौजूद ज्ञान का प्रकाश आपको परमशांति का अनुभव करवाता है। अप्राप्त परिस्थिती का चिंतन ही अज्ञान की इस मोटी चादर के मूल में है। जिस समय जिस वक्त जिस जगह पर हम हैं उसके अलावा हम बाकी सब कुछ सोच रहे हैं और यही हमें वर्तमान की सुंदरता और सदुपयोग से दूर कर रहा है। इसी वक्त जरा अपने इर्द-गिर्द की चीजों पर निगाह दौड़ाईये। इन पर कोई निर्णय मत दीजिए, कोई अन्य विचार मत लाइये, कोई विवेचना मत कीजिए, बस देखिए। अपनी सांसों को दिल की धड़कन को जरा महसूस कीजिए। अपने इर्द-गिर्द की हर चीज की खूबसूरती और चमक को महसूस कीजिए। आप पाएंगे की आपकी कल्पनाएं और व्यर्थ विचार आपको कहां ले जाते है। एक झूठे संसार में, जिसका कोई अस्तित्व है ही नहीं।
कुछ छात्रों और दोस्तों को जब ये बात कहता हूं तो वो कहते हैं ये सब तो होता ही है। इससे कहां बचा जा सकता है। बचा जा सकता है? ये प्रश्न ही बताता है कि वे जानते है कि ये कोई ऐसी गलत चीज है जिससे बचने की जरूरत है लेकिन उसमें खुद को असमर्थ पाते हैं। ये असमर्थता धीरे—धीरे आदत बन जाती है और इच्छा शक्ति के अभाव में हम अपने सामर्थ्य को पूरी तरह से नकार देते हैं। आज असमर्थता को ही सत्य मानकर चलने की वजह से नशाखोरी भी बढ़ती जा रही है। कहते हैं ग़म मिटाने के लिए, तनाव खत्म करने के लिए नशा करते हैं। हा हा हा। इससे ज्यादा हास्यास्पद और क्या होगा कि अपनी बनाई परेशानियों और छद्म दुखों से क्षणिक छुटकारे के लिए हम बड़ी मुसीबतों को निमंत्रण देते हैं और अंततः इस सुंदर मानव जीवन को पशुओं जैसा ही बनाकर छोड़ देते हैं।
क्रोध, ईर्ष्या, भय ये मानव के स्वभाविक गुण नहीं है अज्ञान और जीवन को नहीं समझ पाने की वजह से उपजे अवसाद की वजह से इनका जन्म होता है। इसी बात से ये सिद्ध हो जाता है कि सत्य जीवन को समझना और हमेशा आनंद में रहना (जो हमें फिलहाल असंभव लगता है) यही हर मानव मात्र के जीवन का सही उद्देश्य है। इस सुंदर प्रकृति में समदृष्टि और समभाव रखना जहां आप हैं कि उपयोगिता सिद्ध करता है। मैं मानव हूं, अलौकिक सृष्टि का हिस्सा हूं और सत्य का अनुसंधान स्व-रूप (अपने जीवन का सही सही ज्ञान) यही मेरे होने की वजह है। सभी बातों को समाहित एक लेख में समाहित कर पाना जरा मुश्किल होता है। हम तर्क और विचार शीलता की वजह से ही मानव है। आप अपने सुझाव, प्रश्न, अनुभव मुझे drpraveentiwari@gmail.com पर जरूर भेजें। धन्यवाद, आपको स्व-रूप का ज्ञान हो।

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