जिस तरह भोजन की गुणवत्ता से ही उसके आपके शरीर
पर पड़ने वाले असर को हम जानते हैं, जिस तरह एक विचार की गुणवत्ता से उसके हमारे
मन पर पड़ने वाले असर को हम जानते हैं ठीक वैसे ही धनोपार्जन के तरीके से ही हमारे
जीवन पर पड़ने वाले उसके असर को भी हमें देखना समझना और सीखना चाहिए। हममें से कई
लोग भोजन करते वक्त सर्तकता बरतते हैं। खास तौर पर जब बाहर खाना खाते हैं तो खाने
की गुणवत्ता और शरीर के हित-अनहित का विशेष ध्यान रखते हैं। जो पूरी तरह स्वाद के
या इंद्रिय भोग के गुलाम होते हैं उन्हें इस पर भी विचार करने की आवश्यक्ता नहीं
पड़ती है। फिर एक पुरानी कहावत भी है जैसा खाएंगे अन्न, वैसा रहेगा मन। शरीर पर
पड़ने वाले असर के अलावा मन पर भी इसका असर पड़ता है। मन जो आपके विचारों का
पुलिंदा भर है। आप दिन रात जिस तरह की बातें सोच रहे हैं वही आपका स्वभाव बना देता
है। आप चिड़चिड़े हैं तो बहुत साफ है कि आप तनावग्रस्त विचारों से गुजर रहे हैं।
आप जीवन की चाह और आनंद को खो चुके हैं तो आप अवसादग्रस्त विचारों से गुजर रहे
हैं। इस वैचारिक भोजन को हम जानते बूझते इसीलिए लेते चले जाते हैं क्यूंकि हम इसका
भी मजा लेने लगते हैं। इस मूर्खता को ही अपना जीवन समझने लगते हैं। जैसे बीमारी
में भोजन के परहेज बताएं जाते हैं ठीक वैसे ही मनोविकारों की बिमारी में विचारों
के परहेज होना चाहिए। वैसे जीवन में अगर भोजन की गड़बड़ियां ना हो तो ज्यादतर
बीमारियों आती ही नहीं है और हम स्वस्थ बने रहते हैं। ठीक ऐसे ही अगर विचार भ्रमित
न हो तो मनोविकार उत्पन्न ही नही होगा।
भ्रष्ट संस्कारों से मनोविकारों के जन्म और
भ्रष्ट कर्मों के दुष्परिणामों को हम आए दिन देख रहे हैं। हम जानते हैं कि उच्च
पदों पर बैठे लोग, बड़े-बड़े राजनैतिज्ञ, फिल्मी सितारे या उनके बच्चे ऐसी अवस्था
में दिख रहे हैं जिसकी भरसक निंदा की जा रही है। आज एक ऐसा समय है जब जाने माने और
ताकतवर राजनेता ही नहीं बल्कि छोटे मोटे अनजान से सरकारी कर्मचारियों के पास भी
अकूत काल धन मिल रहा है। धन और वैभव को ही युवा अपने आदर्श के तौर पर ही देख रहे
हैं लेकिन वो इनके दुष्परिणामों पर विचार करने को तैयार ही नहीं है। धन की भूख भी
ठीक भोजन और विचारों की भूख की तरह होती है। अगर न खाने योग्य चीजें खाने से बीमार
होते हैं, न सोचने योग्य विचारों से मनोरोगी होते हैं, तो न कमाने वाले तरीकों से
लाए गए धन से घर में बीमारी ही लाते हैं। आंखों पर मूर्खता की पट्टी बांधे कई लोग
महत्वपूर्ण पदों पर होते हुए भी इस भूख के ऐसे शिकार होते हैं कि उन्हें अपने दुखद
अंत का अंदाजा होते हुए भी वो इस बुरी लत को छोड़ने में खुद को असमर्थ पाते हैं।
देश के प्रतिष्ठित संत पं. देवप्रभाकर शास्त्री इस पर अपना मत रखते हुए कहते हैं
कि ‘बहु
जोतना, बहु खाना’ यही आज के समाज की सबसे बड़ी समस्या है। कितना सुंदर वाक्य है ये जो
पुरी बात एक झटके में समझा देता है।
आज का समाज ज्यादा कमाने की भागदौड़ में है।
क्यूं? इसका
जवाब ढूंढना तो छोड़िए प्रश्न की आवश्यक्ता ही महसूस नहीं होती। बड़ा सीधा जवाब
मौजूद सब ऐसा करते हैं इसीलिए हम भी ऐसा कर रहे हैं। वैभवपूर्ण जीवन कौन नहीं
चाहता? जबकि सब
जानते हैं अच्छी नींद महंगे बिस्तर से नहीं, स्वस्थ मन और परिश्रमी शरीर से आती
है। आवश्यक्ता से अधिक के लिए भागने वालों को कुछ हासिल नहीं होता सिवाय अवसाद के।
drpsawakening@gmail.com
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