सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

आस्था और अंधविश्वास


ईश्वर है और सिर्फ वहीं है। मैं अनंत चैतन्य ईश्वर का ही अंश हूं। समस्त सृष्टि का जन्मदाता वही है। ये आस्था है। ईश्वर है और वो मेरी क्षूद्र भौतिक मनोकामनाओं की पूर्ती के लिए देवस्थानों या मूर्तियों, पेड़ों, नदी-नालों आदि इत्यादि में वास करता है ये अंधविश्वास है। ईश्वर के इस असत स्वरूप को सत्य मानने वाले ईश्वर प्राप्ति से बहुत दूर हो जाते हैं। सांसरिक लोगों कि सामान्य मनोवृत्तियों और अपेक्षाओं को जानते हुए कई लोगों ने अंधविश्वास की बड़ी-बड़ी दुकानों को रच दिया। हालत तो ये हो गई कि ईश्वर उपासना के महत्व से ही हम बहुत दूर निकल आए। हर पल प्रकृति सुंदर रचनाएं करती रहती है और मनुष्य भी अपनी सुविधा के लिए नित नए अविष्कार करता चला जा रहा है। इन दोनों के बीच एक झूठ भी पलता रहता है और वो ये कि मनुष्य की समझ से परे कई परलौकिक बातें भी हैं। इन्हीं के किस्से कहानियां बनाकर लोगों की समस्याओं को दूर करने उनकी मनोकामनाओं को पूरा करने की ठगविद्या शुरू हो जाती है। आज हम मंगल पर यान भेज रहे हैं लेकिन मांगलिक दोष से हमारा पीछा नहीं छूट रहा। हम मंगल पर जा सकते हैं ये आस्था और विश्वास है और बिना जाने मंगल हम पर कोई असर करता है ये अंधविश्वास है। ऐसे ही जाने कितने मन्नतों के धागे, नारियल आप बांधते और तोड़ते रहे हैं। भजन कीर्तन पूजा पाठ ईश्वर के गुणगान करने के तरीके हैं और उस परमशक्ति का जितना गुणगान किया जाए उतना कम है। लेकिन अगर इस सबके मूल में घर, गाड़ी, पदोन्नती आदि की चाह है तो ये न पूजा है न ही भजन। स्वार्थ सिद्धि को उपासना मानना बड़ी मूर्खता है। अपने से बड़ों को हमने जो कुछ करते देखा है आंख मूंद कर वही सब करते रहना कोई समझदारी नहीं है। हर मानव मात्र को विवेक का प्रकाश मिला है जो बातें हमारे ज्ञान से सिद्ध हैं उन्हें हमें स्वीकार करना चाहिए लेकिन जिन बातों का कोई तुक नहीं दिखाई देता उनका पल्ला पकड़ के रखना घोर अंधविश्वास है। अंधविश्वास इतने गहरे घर कर गया है कि आज कई लोग धर्मांध होकर अपनी विचारशीलता और विवेक को ही खो बैठे हैं। कोई इन बातों पर लोगों को सत्य का प्रकाश देने की कोशिश करे तो उसका ही विरोध शुरू हो जाता है। वेदों पुराणों के नाम पर बहुत से लोगों ने बहुत ही भ्रामक स्थितियां पैदा कर दी हैं। ये वे लोग है जिन्होंने वेद पुराण का अध्ययन भी नहीं किया है हां जब भी कोई प्रश्न पैदा हो तो उस पर वेदों में ऐसा लिखा है कहकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। कई बच्चों को मैंने मंदिरों में धागे बांधते देखा है। पूछा ऐसा क्यूं करते हो? तो कहते हैं परीक्षा में पास होने के लिए। हास्यापद नहीं लगता ये? अगर नहीं लगता तो आप भी अज्ञान की पट्टी हटाएं और अपने ज्ञान के प्रकाश में सत्य को जानने का प्रयास करे। आप मनुष्य हैं जिसके पास तर्कशक्ति है। आज बड़े-बड़े पुल, इमारतें, सड़के, हवाई जहाज, सैटेलाइट आदि जैसी मानव की जिन रचनाओं को आप देखते हैं उसके पीछे यही तर्क शक्ति है। ऐसा है तो क्यूं है? ऐसा कैसे हो सकता है? जैसे कई सामान्य सवाल हमारी शंकाओं का निदान करते हैं लेकिन हम ईश्वर के मामले में पूरी तरह रूढ़िवादी बने रहते हैं। इसकी वजह है ईश्वर को स्वयं खोजने के बजाए दूसरे के बताए गलत रास्तों पर भटक जाना। देखिए रास्ता बताने वाले सही लोग भी हैं गलत भी पर आपकी विवेकशीलता आपको गलत और सही का फर्क बताती है। अपने विवेक को जागृत रखने के लिए उस पर चढ़ी अज्ञान की मोटी चादर को उतार फेंकने की जरूरत है। अज्ञान है बिना जांचे परखे किसी भी मान्यता के साथ चल पड़ना। स्वामी विवेकानंद युवाओं से हमेशा ये आह्वान करते रहे कि जब तक स्वयं जांच परख न लो दुनिया की किसी मान्यता पर विश्वास न करो। हम किसी को अगरबत्ती लगाते देखते हैं तो वैसा ही करने लगते हैं। ईश्वर के जिस रूप को पूजते देखते हैं उसी में आस्था करने लगते हैं। किस्से कहानियां सुन-सुनकर अपनी आस्थाएं बना लेते हैं। एक समय ऐसा आता है जब हम इन देख-देखकर सीखी हुई बातों को इतना गहरे बैठा लेते हैं कि इन्हें अपने विवेक से सिद्ध मानने लगते हैं। खुद विरोध करना तो छोड़िए किसी और के विरोध को भी नास्तिकता मानने लगते हैं। नास्तिक वो नहीं जो सदग्रंथों को पढ़कर सामान्य पुस्तकों के साथ रख देते है नास्तिक वे हैं जो सद्ग्रंथों को कपड़ों में लपेट कर मंदिर में रख देते हैं रोज उन्हें प्रणाम करते हैं लेकिन कभी उनके संदेशों को समझने का प्रयास नहीं करते। ईश्वर को सीमित स्थानों पर देखने वाले नास्तिक हैं और हर मानवमात्र और प्राणीमात्र के साथ समस्त सृष्टि में ईश्वर ही हैं ऐसा मानने वाले सच्चे आस्तिक है बाकि अंधविश्वासी।

डॉ प्रवीण श्रीराम

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