मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

दिन भर सोचने की बीमारी




मानव मस्तिष्क तीन कार्यों में दक्ष है । कल्पना शील है, किसी दृश्य की विवेचना कर सकता है या शांत रह सकता है । जीवन पर्यंत हमारे जो भी अनुभव होते हैं उनसे हमारी कल्पनाओं का निर्माण होता है । हम जैसा देखते सुनते और महसूस करते हैं तदनुरूप हमारी कल्पनाओं का भी परिमाण है । थियेटर के छात्रों को एक एक्सरसाइज़ करवाइ जाती है । इसमें सामुहिक रूप से छात्रों को बैठाया जाता है और उन्हें एक काल्पनिक परिस्थिति दी जाती है । उनसे कहा जाता है कि उन्हें सड़क पर एक झोला मिला है उसमें क्या हो सकता है? इसमें भाँति भाँति की प्रतिक्रियाएँ और कल्पनाएँ सामने आती हैँ।   कोई कहता है उसमें लाखों रुपय हैं, कोई कहता है इसमें हीरे जवाहरात है, कोई कहेगा हम लावारिस चीज क्यूँ उठाएँगे, कोई कहता है इसमें बम हो सकता है आदि इत्यादि । ऐसे ही एक सवाल के जवाब में मेरा जवाब था उसमें जादुई अँगूठी होगी जिसे पहन कर मैं ग़ायब हो जाऊँगा । सब हँसने लगे लेकिन उस वक़्त थियेटर सीखाने वाले सर बहुत ख़ुश गए उन्होंने कहा सही तरह से इस एक्सरसाइज़ को तुम्ही कर पाए । कल्पनाशीलता का इस्तेमाल तो कोइ कर ही नहीं पा रहा था सब अपने निजी जीवन के अनुभवों से कुछ तस्वीरें खींच दे रहे थे । इस घटना ने मुझे ये सीख तो दी की कल्पनाशीलता का मतलब रोज़मर्रा की इधर उधर की बातों को सोचना नहीं बल्कि कुछ नई बातों का सृजन करना है । सामान्यतः हम ऐसी ही तुच्छ कल्पनाओं में पूरा दिन और पूरा जीवन गुज़ार देते हैं ।  ये कुछ नया नहीं रचती बल्कि कोल्हू के बैल की तरह हमें गोल गोल घुमाती रहती है । हम इन्हीं की अलग अलग तरह से विवेचना करते रहते हैं। हासिल कुछ नहीं होता और भ्रम बना रहता है । हमारी अपेक्षाएँ और कल्पनाएँ सबका एक दायरा बन जाता है और इसे हम नियति और भाग्य का नाम भी दे देते हैं । ये भाव मन में इतने गहरे घर कर जाता है कि सत्य कहने वाला भी मूर्ख मालूम पड़ता है।  शांत रहने का काम मस्तिष्क तभी कर पाएगा जब वो इस दिन भर चलने वाले कल्पनाओं के क्षूद्र जाल को तोड़ देगा । कल्पनाशीलता का उपयोग करें लेकिन उसे समझने के बाद ही  और जब समझ जाएँगे तो इसके चमत्कार भी देख पाएँगे । आपका मस्तिष्क विचारों की फैक्ट्री की तरह काम कर रहा है लेकिन इसके उत्पाद ज्यादातर व्यर्थ ही हैं। व्यर्थ उत्पादों को हम कूड़ा कहते हैं और इनको रखने के लिए भी जगह चाहिए। ये व्यर्थ विचार मानसिक प्रदूषण का भी कारण हैं। कल्पनाओं में जीते हुए हम वर्तमान का जरा भी सम्मान नहीं कर पाते हैं। बीता हुआ कल और आने वाला कल दोनों ही असत्य हैं। इन दोनों का चिंतन वर्तमान की हत्या है और इसी का अभ्यास करते करते हम इसे सामान्य प्रक्रिया मान लेते हैं। चौबीस घंटे बिना वजह कल्पनाएं और विवेचनाएं करते रहना एक गंभीर मनोरोग है। इस रोग से बचने का एक मात्र उपाय है सही अभ्यास करना। ये सही अभ्यास है वर्तमान में जीना। क्या नहाते हुए अपने दफ्तर की बातों को सोचना, अपने बच्चे के साथ खेलते हुए किसी और बात को सोचना या दफ्तर में काम करते हुए अपने घर के बारे में सोचना, ये सब ठीक हैं ? अभी तो फौरन जवाब आएगा नहीं ठीक तो नहीं हैं, लेकिन हम करें क्या? अपने मस्तिष्क को विश्राम दीजिए। जब जो कर रहे हैं उसी में पूरी तरह खुद को लगाईये। सीढ़ियां चढ़ते वक्त उन्हे भी आप महसूस कर सकते हैं अपने दिल की धड़कन को महसूस कर सकते हैं। नहाते वक्त हम साबुन की खुशबू या उसके हमारे शरीर से स्पर्श को महसूस कर सकते हैं। ये तो कुछ उदाहरण हैं लेकिन इसी तरह अगर हम हर कार्य को सूक्ष्मता से महसूस करते हुए करेंगे तो अवश्य ही ये अभ्यास भी हमारी आदत बन जाएगा और हम वर्तमान में जीना सीख लेंगे। drpsawakening@gmail.com

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