बुधवार, 5 नवंबर 2014
'मैं' और 'वह'!
मैं
विवेक के प्रकाश और ज्ञान के साथ मानव का जन्म होता है। दुनिया का ज्ञान उसे उसकी परिस्थितियां और उनसे जुड़े लोग कराते हैं। नाम, धर्म, जाति, अमीरी-गरीबी, बड़े-छोटे का भाव ये सब हमें अन्य लोगों द्वारा दिया जाता है। जीवन पर्यंत हम इन्हीं को सत्य मानते हैं और इन्हीं के आधार पर सत्य की खोज करते हैं। जो इन्हीं में बंध कर रह जाते हैं वे सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाते। जो धीरे-धीरे इन आवरणों को तोड़ते हुए अपने अस्तित्व को पा लेते हैं उन्हें सत्य की प्राप्ति होती है। आप को माता-पिता और समाज से जो पहचान मिलती है उसी के आधार पर आप अपनी सोच विकसित करते हैं। इस सोच का असर जीवन के हर फैसले और लक्ष्यों के चुनाव पर पड़ता हैं। एक स्थिती ऐसी आती है जब आप की दुनिया दायरों में बंध जाती है। आपके लोग, समाज में आपकी प्रतिष्ठा, आपके प्रियजन, आपके निंदक, आपका वैभव-संपदा और आपका पांडित्य इन सब बातों को मिला कर ‘मैं’ बन जाता है। दरअसल सीमाओं में बंध कर अपने अस्तित्व को कोई आकार और नाम दे देने का ही मतलब ‘मैं’ है। ये ‘मैं’ किसी का स्वामी बन जाता है तो किसी का गुलाम। इसकी पसंद-नापसंद तक इस पर थोपी हुई होती है। कुछ लोग कुछ मायनों में दायरा तोड़ देते हैं लेकिन फिर भी वे झूठे ‘मैं’ के अस्तित्व से बंधे रहते हैं। उदाहराणर्थ कुछ उच्च कुलीन लोग अपने बताए हुए कुल की परंपराओं आधार पर अपने नाम तो रख लेंगे लेकिन कर्मों में वे उस कुल विशेष के लिए वर्जित किए गए कर्मों को भी करते रहेंगे। कर्म बदल जाएंगे लेकिन उस नाम को और कुल को पकड़े रहेंगे। ये भी ‘मैं’ का ही असत अस्तित्व है कि आप किसी को अपने से बड़ा और किसी को अपने से छोटा समझने लगते हैं। इस ‘मैं’ के भ्रामक अस्तित्व को तोड़ने की आवश्यक्ता महसूस न होना भी एक गंभीर भूल है। ‘मैं’ की सीमाओं में बंधकर मानव अपनी असीमता को खो देता है। ज्ञानी होने के भ्रम में वो इसे तोड़े जाने के हर प्रयास को कमजोर करने के लिए कुतर्कों को जन्म देता है। ये ‘मैं’ इतने गहरे पैठ बना लेता है कि इसने तोड़ने मात्र का विचार डरा देता है। मानव, शरीर के साथ विवेक का भी प्रतीक है। ये मानव विवेक ही है जिसने अपने से बड़ी सत्ता की खोज की और ‘मैं’ के असत को तोड़ने में भी कामयाब हुआ। विवेक के प्रकाश में कई मनुष्यों ने जाना कि वे असीमित क्षमता वाली किसी परम सत्ता का अंश हैं। जब कोई मनुष्य परम सत्ता के गुणों को समझ कर उन्हें खुद में विकसित कर लेता है तो वो भी ‘वह’ हो जाता है। सारे मनुष्य जल की बूंद के समान हैं और ‘वह’ समंदर के समान। जब बूंद समंदर में मिलती है तो ‘मैं’ भी ‘वह’ ही हो जाता है। इस ’वह’ को हमने भगवान, गॉड, अल्लाह जैसे कई नाम दे दिए हैं। कृष्ण, ईसा, बुद्ध, नानक आदि वो बूंदे हैं जो परमसत्ता रूपी समंदर में समाकर खुद भी समंदर ही हो गई। हमने ईश्वर को देखा नहीं इसीलिए उसके गुणों को धारण करने वाले मनुष्यों में ही उसकी छबि बना ली। हर ‘मैं’ का विलय ‘वह’ में हो सकता है लेकिन उसके लिए ‘मैं’ के असत अस्तित्व को खोना होगा। किसी और का लिखा हुआ, सुना हुआ या पढ़ा हुआ ज्ञान इसकी प्राप्ति नहीं करा सकता बल्कि स्वयं का जाना हुआ इसकी प्राप्ति करवा पाएगा। जिन्हें लगता है कि वे ‘मैं’ में ही खुश हैं वे भूलवश सुंदर मानव जीवन को नष्ट कर रहे हैं।
वह
वेद के आरण्यक, तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में कुछ भी नहीं था। अन्तरिक्ष, पृथ्वी और वायुमण्डल किसी का भी अस्तित्व नहीं था। उस असत् ने एक इच्छा कीः मैं होऊं। सृष्टि भी ‘मैं’ ही है। जिसने सृष्टि कि इस इच्छा को स्वीकार किया वो ‘वह’ है। कोई न कोई इस सृष्टि का जनक है इसे आधार बनाकर ज्ञानियों ने ‘वह’ कौन है की खोज शुरू की। उसे शक्ति माना गया, ऊर्जा माना गया, कुछ ने कहा वो निराकार है तो कई ज्ञानियों ने उसे और सुलभता से समझाने के लिए मानव की तरह ही मूर्त रूप भी दिया। ‘वह’ है का संदेह तो बहुत पहले ही मिट गया और ये इसी से सिद्ध हो जाता है कि कईयों को उसकी प्राप्ति हुई है और कई तो उसी के रूप में लीन भी हो गए। ‘वह’ की खोज करते हुए कई ग्रंथों की रचना कर दी गई। कई ज्ञानियों ने सबको उसकी अनुभूति हो पाए के प्रयास में कुछ प्रक्रियाएं भी अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत कर दी और ‘वह’ की खोज चलती रही। इन ग्रंथों आदि से मदद लेकर अपने ज्ञान को विकसित कर ‘वह’ को पाने के बजाए हमने इन्हें भी ‘मैं’ का अस्तित्व बना दिया। मेरा भगवान, मेरा मंदिर, मेरा ये मेरा वो आदि में हम ज्ञानियों के प्रयासों को भूल ही गए। सत्य एक ही है उसे प्राप्त करने की राह अलग-अलग हो सकती हैं। कई ऐसे उदाहरण हैं जो बताते हैं कि ‘वह’ की प्राप्ति उन्ही को हुई है जिन्होंने ‘मैं’ के असत अस्तित्व का त्याग कर दिया। जिन्हें ‘वह’ कि प्राप्ति नहीं हुई उन्होंने इन लोगों का अनुसरण करना शुरू कर दिया। इसकी वजह साफ है कि अपने सत्य अस्तित्व को समझना हर मानवमात्र की मांग है। अनुसरण करने से कुछ दूरी तक तो राह दिखती है लेकिन जब तक स्वविवेक की जागृति नहीं होती ‘वह’ की प्राप्ति असंभव हो जाती है। ऐसे कई ज्ञानी जिन्होंने ने ‘वह’ के अस्तित्व को समझाने की कोशिश की उनकी बातों को लोगों ने भूलवश अपने ही रंग में रंग दिया। हम शब्दों को पकड़ने में लग जाते हैं और अपने अनुभवों के आधार पर उनकी विवेचना शुरू कर देते हैं। इसी तरह देवस्थानों और पूजास्थलों की स्थापना होती चली गई। हमने असीम ‘वह’ को भी ‘मैं’ की ही तरह सीमाओं में बांधने का प्रयास किया और जितना उसे पकड़ने की कोशिश की उतना ही वो हाथ से फिसलता गया। वो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान है हम उसे अपनी मुठ़्ठी में, अपनी प्रार्थनाओं मे, अपनी किताबों में या अपने देवालयों में जकड़ कर नहीं रख सकते हैं। उसके गुणों को हम धारण कर सकते हैं। वो दयालू है, उदार है, सबका है और समदृष्टि वाला है। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है सृष्टि की उत्पत्ति की इच्छा की तरह वो हमारी इच्छाओं के प्रति भी उदारता दिखाता है। सदइच्छा से सदपरिणाम और मलिन इच्छाओं के दुष्परिणाम तो हम स्वयं ही पैदा करते हैं। ‘वह’ के इन गुणों को हम ‘मैं’ में भी विकसित कर सकते हैं। उदार हो सकते है, दयालू हो सकते हैं, समभाव रख सकते हैं, इच्छाओं से रहित हो सकते हैं। ‘वह’ के गुणों को प्राप्त करने वाले मानवों को हमने योगी का नाम दिया। योग का मतलब ही ही जुड़ना। जब ‘मैं’ का योग ‘वह’ से हो जाता है तो योगी बनता है। सामान्य तौर पर कसरत करने, शरीर को स्वस्थ रखने के तरीकों आदि को योग की संज्ञा देना हास्यास्पद है। क्यूंकि मानव अपनी सीमित दृष्टि से ‘वह’ की खोज करता है इसीलिए वो और दूर प्रतीत होता है। जैसे ही ‘मैं’ के असत अस्तित्व का लोप होते है ‘वह’ की ओर यात्रा शुरू हो जाती है। यात्रा शुरू भर करनी है उसके बाद राह स्वयं प्रशस्त होती चली जाती है।
मंगलवार, 4 नवंबर 2014
दिमाग़ के भूसे में विचार की सूई!
भूलने की बीमारी बहुत आम होती है। आप याद रखने के लिए कई जतन करते हैं। कई बार तो हम किसी और को बोल देते हैं कि मुझे फलां बात याद दिला देना लेकिन होता ये है कि वो भी इस बात को भूल जाता है। कई मौकों पर ये तरकीब काम भी करती है और ये बहुत से लोगों का बातों को याद रखने का तरीका भी बन जाता है। आप घर के नजदीक घूम रहे होंगे तो अपने बच्चों को स्वछंद छोड़ देंगे लेकिन अगर किसी मेले में होंगे तो क्या होगा? भीड़ भाड़ वाले इलाकों में हम अतरिक्त सतर्क हो जाते हैं। जरा सी देर के लिए ध्यान चूका नहीं कि कोई भी गुम हो सकता है। कुछ ऐसा ही हमारे दिमाग के साथ होता है जब हम स्वयं में होते हैं या शांत होते हैं तो कोई बात भूलने का डर नहीं होता लेकिन अगर हम बहुत से विचारों के मेले में हैं तो उसमें काम की बात भी गुम हो जाती है। जरा गौर कीजिए आप किसी बात को क्यूं भूल जाते हैं? दरअसल बहुत सी और बातों को सोचते रहने की वजह से ऐसा होता है। आमतौर पर हम एक जुमला इस्तेमाल करते हैं, क्या बात है बहुत खोए खोए से हो? चाहे मेला हो या हमारा दिमाग खोने की वजह एक ही है, भीड़। दिमाग में बेवजह के विचारों की भीड़ में हमारे आवश्यक विचार और कार्य भी खो जाते हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम ये होता है कि हम अपनी पूरी मानसिक ऊर्जा का इस्तेमाल सही जगह पर नहीं कर पाते हैं। किसी काम के सुंदर परिणामों के लिए उसपर एकाग्रता आवश्यक है। ये हम सब का अनुभव है कि जब हम कोई काम डूब कर करते हैं तो उसमें रस भी आता है और परिणाम भी सुंदर होते हैं। रचनात्मक कार्यों में संलग्न लोगों को एकांत आवश्यक होता है। लेखक, चित्रकार, कलाकार आदि अपनी रचनाएं शांत मन और एकांत में बेहतर कर पाते हैं। ये एकांत महज लोगों और परिस्थितियों तक सीमित नहीं होना चाहिए। मन में भीड़ हो और बाहर एकांत तो कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा। अलबत्ता बाहर भीड़ हो और मन में एकांत तो बहुत ही निर्दोष और सुंदर परिणाम आएंगे। एक और कहावत हम आमतौर पर इस्तेमाल करते रहते हैं। भूसे के ढेर में सूई को ढूंढना, दरअसल दिमाग में भरा अनावश्यक विचारों का कचरा और कुछ नहीं यही भूसे का ढेर है। जब तक इस भूसे को स्वाहा नहीं कर देंगे लक्ष्य रूपी एक विचार की वो सूई आप कभी नहीं पा पाएंगे जिससे अपने पूरे जीवन को आप सी सकते हैं। किसी कार्य को करते वक्त नीरसता के अनुभव के मूल में भी अनावश्यक विचारों का ही ज्वार होता है। समस्या तो हम सब को समझ आ गई लेकिन समाधान के नाम पर फिर भूसे में ही कूद जाते हैं। भूसे को स्वाहा करने का मतलब है अनावश्यक विचारों का अंत। इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि हम अनावश्यक विचारों को अपने भीतर प्रवेश न करने दें। अनावश्यक विचारों के दो दरवाजे है एक बीता हुआ कल और एक आने वाला कल। इन दोनों दरवाजों को बंद कर दीजिए और देखिए कैसे वर्तमान में आप अपने जीवन को सुंदर और शांत पाते हैं। अगर अनावश्यक विचाररूपी भूसे का ढेर बढ़ गया है तो ध्यान रूपी अग्नि से ही इसका अंत होगा। शरीर और मन की प्रकृति में बड़ फर्क है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए दौड़ाना पड़ता है पर मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए उसकी दौड़ पर लगाम लगान पड़ती है। दिन भर में कुछ समय के लिए निर्विचार होने का प्रयास कीजिए। drpsawakening@gmail.com
सोमवार, 3 नवंबर 2014
दूसरों से जलन की बीमारी
मैंने हाल ही में एक कंस्ट्रक्शन कंपनी का विज्ञापन देखा। ये विज्ञापन कहता है कि हम आपको ऐसा घर देंगे जिसे देखकर दूसरे जलन करेंगे। आपको याद होगा कुछ ऐसा ही विज्ञापन एक टेलीविजन कंपनी ने भी कई सालों पहले किया था। वैसे देखा जाए तो ये कोई नया पैंतरा नही है आम तौर पर हम इस तरह के पैंतरे मार्केटिंग योजनाओं में देखते रहते हैं। एटवरटाइजर जानते हैं कि आजकल लोगों के दिल में दूसरों के सामने दिखावा करने की और खुद को उत्कृष्ट दिखाकर अपने आसपास के लोगों को जलाने की एक भावना रहती है। वहीं ये भी देखा गया है कि दूसरों की तरक्की और वैभव को देखकर भी कई लोगों में कुंठा का भाव जागृत होता है। अब जरा गंभीरता से विचार कीजिए आखिर ये स्थिती क्यों बनी? विचार करने पर जवाब खुद मिल जाएगा लेकिन जो इस बीमारी से बुरी तरह ग्रसित हो चुके हैं वो इस पर विचार करने के बारे में भी सोच नहीं पाएंगे क्योंकि अब इसी तरह से सोचना उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है। मनोविज्ञान पर किये गए तमाम शोध बहुत ही स्पष्टता से इस बात को सामने रखते हैं कि लगातार हम जिन बातों को सोचते रहते हैं वही हमारे कर्म में परिवर्तित होती हैं और लगातार हम जिन कर्मों को करते रहते हैं वही हमारे चरित्र में परिवर्तित होता है। यही चरित्र हमारा अस्तित्व बन जाता है और फिर हम जीवन के हर क्षण और हर रण में इसी के हिसाब से अपनी योजनाएं बनाते हैं। आप स्वयं अंदाजा लगा सकते है। जलना और दिखावा करना अगर किसी का चरित्र बन जाए तो ऐसे विकृत चरित्र के साथ वो क्या योजनाएं बनाएगा। दरअसल वैभव का दिखावा और उसकी चाहत दोनों आज की बात नहीं है शायद मानव सभ्यता के विकास के साथ ही इस विकृति का भी प्रादुर्भाव हो गया था। विकृति इसीलिए क्योंकि मानव सभ्यता के विकास से इसका कोई लेना देना नहीं है। दुनिया में जिन अविष्कारों और वैभवपूर्ण चीजों के विकास को आप देखते हैं वो मानव जिज्ञासा और विज्ञान के सतत विकास का नतीजा है। फिर इसका इस्तेमाल बाजार और व्यवसायियों ने किया। बड़ी चालाकी से मानव की इस सामान्य मनोवैज्ञानिक कमजोरी को भुनाया गया जिसमें वह दूसरों से बेहतर दिखना और रहना चाहता है। जरा गंभीरता से विचार कीजिए ऐसा करने से हमें क्या प्राप्त होता है और इससे हमारा और समाज का क्या विकास होता है? पीढ़ी दर पीढ़ी ये परंपरा कुछ इस तरह आगे बढ़ती गई की आज तो ये जीवनचर्या का सामान्य हिस्सा बन चुकी है। इसके बारे में अब सोचने की क्या आवश्यक्ता है। जब इंसान ने धरती से पहली बार चांद तारे देखे होंगे तो आश्चर्य चकित हुआ होगा। फिर उसकी जिज्ञासा पूर्ती के लिए खगोल शास्त्र बना और आज हम बेशक इन तारों के बारे में सबकुछ न जानते हो लेकिन बहुत कुछ तो जानते ही हैं। आज आसमान में झांकते हुए हमें उतना आश्चर्य नहीं होता और ये हमारे लिए सामान्य बात है। इसी तरह मानव सभ्यता के विकास के साथ कई बातें हमारे लिए बहुत सामान्य हो गई और हमने इन पर सोचना छोड़ दिया। अविष्कारों और सुविधाओं के साथ आमतौर पर कई मनोवैज्ञानिक विकृतियां भी हमारे समाज का हिस्सा बनती चली गई और यही वजह है कि आज समाज सुंदर और सुरक्षित के बजाय असुरक्षित ज्यादा लगता है। एक दूसरे के प्रति प्रेम के बजाय ईर्ष्या को ज्यादा भुनाया जाता है। दुनिया की छोड़िए कुछ देर अपने साथ बैठिए और सोचिए कहीं मैं भी तो अनजाने में इस रोग से पीड़ित नही हो गया हूं? मन की इस चोरी को पकड़ लें और भविष्य के लिए सतर्क हो जाएं तो हमेशा हमेशा के लिए जलन की बीमारी से मुक्त हो सकते हैं। drpsawakening@gmail.com
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014
मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014
दिन भर सोचने की बीमारी
मानव मस्तिष्क तीन कार्यों में दक्ष है । कल्पना शील है, किसी दृश्य की विवेचना कर सकता है या शांत रह सकता है । जीवन पर्यंत हमारे जो भी अनुभव होते हैं उनसे हमारी कल्पनाओं का निर्माण होता है । हम जैसा देखते सुनते और महसूस करते हैं तदनुरूप हमारी कल्पनाओं का भी परिमाण है । थियेटर के छात्रों को एक एक्सरसाइज़ करवाइ जाती है । इसमें सामुहिक रूप से छात्रों को बैठाया जाता है और उन्हें एक काल्पनिक परिस्थिति दी जाती है । उनसे कहा जाता है कि उन्हें सड़क पर एक झोला मिला है उसमें क्या हो सकता है? इसमें भाँति भाँति की प्रतिक्रियाएँ और कल्पनाएँ सामने आती हैँ। कोई कहता है उसमें लाखों रुपय हैं, कोई कहता है इसमें हीरे जवाहरात है, कोई कहेगा हम लावारिस चीज क्यूँ उठाएँगे, कोई कहता है इसमें बम हो सकता है आदि इत्यादि । ऐसे ही एक सवाल के जवाब में मेरा जवाब था उसमें जादुई अँगूठी होगी जिसे पहन कर मैं ग़ायब हो जाऊँगा । सब हँसने लगे लेकिन उस वक़्त थियेटर सीखाने वाले सर बहुत ख़ुश गए उन्होंने कहा सही तरह से इस एक्सरसाइज़ को तुम्ही कर पाए । कल्पनाशीलता का इस्तेमाल तो कोइ कर ही नहीं पा रहा था सब अपने निजी जीवन के अनुभवों से कुछ तस्वीरें खींच दे रहे थे । इस घटना ने मुझे ये सीख तो दी की कल्पनाशीलता का मतलब रोज़मर्रा की इधर उधर की बातों को सोचना नहीं बल्कि कुछ नई बातों का सृजन करना है । सामान्यतः हम ऐसी ही तुच्छ कल्पनाओं में पूरा दिन और पूरा जीवन गुज़ार देते हैं । ये कुछ नया नहीं रचती बल्कि कोल्हू के बैल की तरह हमें गोल गोल घुमाती रहती है । हम इन्हीं की अलग अलग तरह से विवेचना करते रहते हैं। हासिल कुछ नहीं होता और भ्रम बना रहता है । हमारी अपेक्षाएँ और कल्पनाएँ सबका एक दायरा बन जाता है और इसे हम नियति और भाग्य का नाम भी दे देते हैं । ये भाव मन में इतने गहरे घर कर जाता है कि सत्य कहने वाला भी मूर्ख मालूम पड़ता है। शांत रहने का काम मस्तिष्क तभी कर पाएगा जब वो इस दिन भर चलने वाले कल्पनाओं के क्षूद्र जाल को तोड़ देगा । कल्पनाशीलता का उपयोग करें लेकिन उसे समझने के बाद ही और जब समझ जाएँगे तो इसके चमत्कार भी देख पाएँगे । आपका मस्तिष्क विचारों की फैक्ट्री की तरह काम कर रहा है लेकिन इसके उत्पाद ज्यादातर व्यर्थ ही हैं। व्यर्थ उत्पादों को हम कूड़ा कहते हैं और इनको रखने के लिए भी जगह चाहिए। ये व्यर्थ विचार मानसिक प्रदूषण का भी कारण हैं। कल्पनाओं में जीते हुए हम वर्तमान का जरा भी सम्मान नहीं कर पाते हैं। बीता हुआ कल और आने वाला कल दोनों ही असत्य हैं। इन दोनों का चिंतन वर्तमान की हत्या है और इसी का अभ्यास करते करते हम इसे सामान्य प्रक्रिया मान लेते हैं। चौबीस घंटे बिना वजह कल्पनाएं और विवेचनाएं करते रहना एक गंभीर मनोरोग है। इस रोग से बचने का एक मात्र उपाय है सही अभ्यास करना। ये सही अभ्यास है वर्तमान में जीना। क्या नहाते हुए अपने दफ्तर की बातों को सोचना, अपने बच्चे के साथ खेलते हुए किसी और बात को सोचना या दफ्तर में काम करते हुए अपने घर के बारे में सोचना, ये सब ठीक हैं ? अभी तो फौरन जवाब आएगा नहीं ठीक तो नहीं हैं, लेकिन हम करें क्या? अपने मस्तिष्क को विश्राम दीजिए। जब जो कर रहे हैं उसी में पूरी तरह खुद को लगाईये। सीढ़ियां चढ़ते वक्त उन्हे भी आप महसूस कर सकते हैं अपने दिल की धड़कन को महसूस कर सकते हैं। नहाते वक्त हम साबुन की खुशबू या उसके हमारे शरीर से स्पर्श को महसूस कर सकते हैं। ये तो कुछ उदाहरण हैं लेकिन इसी तरह अगर हम हर कार्य को सूक्ष्मता से महसूस करते हुए करेंगे तो अवश्य ही ये अभ्यास भी हमारी आदत बन जाएगा और हम वर्तमान में जीना सीख लेंगे। drpsawakening@gmail.com
सोमवार, 20 अक्टूबर 2014
कब तक भटकते रहोगे इस भूलभुलैया में?
ध्यानी नाम का लड़का एक भयानक जंगल मे भटक गया था
और वो बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहा था। कई दिनों की मेहनत के बाद उसने रास्ता
ढूंढ निकाला। वो जहां जहां से गुजरा वहां कुछ निशान बनाता चला गया ताकि इस
भूलभुलैया जंगल में दोबारा भटकने पर भी रास्ता याद रहे। रास्ता ढूंढने के दौरान वो
एक ऐसी खतरनाक जगह पर भी पहुंचा जहां घनी झाड़ियों के बीच एक गहरा दल दल था। उस
लड़के को याद था कि उस दलदल में अगर वो जरा और फंस जाता तो कभी जीवित इस जंगल से
बाहर नहीं जा पाता। उसे इस बात की भी चिंता थी कि वो तो किस्मत वाला था सो बच गया
लेकिन कई और लोग भी इस तरह भटक सकते हैं या भटके होंगे जो शायद इतने चौकन्ने नहीं
रहे होंगे। एक झटके में ही ऐसे कई अनभिज्ञ लोग झाड़ियों में छिपे इस दल दल में समा
गए होंगे। उसने चेतावनी के तौर पर यहां कुछ लिख देने की ठानी। लिखने के लिए उसने अपने
कपड़े को कागज बनाने की बात सोची और पेड़ पौधों फलों आदि से स्याही बनाने का दिमाग
लगाया। अभी वो इस तैयारी में लगा ही था कि तीन लोग और भटकते हुए वहां पहुंच गए। ये
शायद अभी अभी भटके थे क्यूंकि उनके कपड़े और हालत उतनी गंदी नहीं थी जितनी रास्ता
खोज चुके ध्यानी की थी। वे तीनों उसी तरफ बढ़ने लगे जिस तरफ दलदल था। ध्यानी ने
जोर से चिल्ला कर उन्हें चेताया कि कुछ ही कदम पर भयानक दलदल है, एक दो कदम और
बढ़े तो निश्चित ही मौत है। ध्यानी ने कहा मैं वो रास्ता जानता हूं जो तुम्हें
जंगल से बाहर ले जाएगा। तीनों ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा चेतावनी लिखने के लिए
अपने कपड़े तक उतार चुके ध्यानी को उन लोगों ने पागल समझा। हांलाकि इनमें से एक जो
थोड़ा डरा हुआ था वो उसकी बात सुनकर ठिठक गया। बाकी दो उसके लाख मना करने पर भी
आगे बढ़े और दलदल में समा गए। ध्यानी रोता पीटता रहा पर अब कुछ नहीं हो सकता था।
जो एक व्यक्ति ध्यानी की बात मानकर रुक गया था उसने ध्यानी के पैर पकड़ लिए और कहा
कि यहां रुककर किसी को लाख समझाओगे तो भी कोई नहीं मानेगा। ध्यानी ने उसकी तरफ देख
और एक उम्मीद बंधी। उसने कहा तुमने तो मेरी बात सुनी तुम तो बच गए। उसने अपनी
चेतावनी यहां बांधने के कार्य को जारी रखा। उसके मन में ये बात तो आ गई थी कि जो
चेतावनी को सच मानेगा वो तो कम से कम बच जाएगा। बाकि सबका अपना विवेक और ईश्वर
इच्छा है। ये मेरी ही रची एक काल्पनिक कहानी है। ये सुनते ही उस दलदल का डर आपके
मन से निकल गया होगा लेकिन जरा ध्यान दीजिए क्या हम सभी ऐसे ही एक जंगल में नहीं
भटक रहे हैं। इस असत माया रूप जंगल से बाहर निकलने का रास्ता कई ध्यानियों ने खोजा
है। इसके बारे में वे कई चेतावनियां लिख चुके हैं। कुछ तो आज भी ध्यानी की तरह
चिल्ला चिल्ला कर लोगों को दलदल में धंसने से रोकने की कोशिश में चिल्लाते रहते
हैं। कुछ हैं जो उस बचे हुए एक शख्स कि तरह किसी संशय या अपने डर से ठिठक जाते हैं।
रास्ता हम सब खोज सकते हैं बशर्ते चेतावनियों का ध्यान रखें। कई ज्ञानी अपनी बातों
को लिख गए हैं उनके महान शब्दों को कपड़े में लपेटकर पूजा घर में रखने वाले भी उसी
दलदल की ओर बढ़ते है। उन्हें पढ़िए और समझिए कि सत्य क्या है। समझ में नहीं आता तो
उनके पास जाइए जिन्होंने रास्ता खोज लिया है। drpsawakening@gmail.com
रविवार, 19 अक्टूबर 2014
जरूरत से ज्यादा की अंधी दौड़!
जिस तरह भोजन की गुणवत्ता से ही उसके आपके शरीर
पर पड़ने वाले असर को हम जानते हैं, जिस तरह एक विचार की गुणवत्ता से उसके हमारे
मन पर पड़ने वाले असर को हम जानते हैं ठीक वैसे ही धनोपार्जन के तरीके से ही हमारे
जीवन पर पड़ने वाले उसके असर को भी हमें देखना समझना और सीखना चाहिए। हममें से कई
लोग भोजन करते वक्त सर्तकता बरतते हैं। खास तौर पर जब बाहर खाना खाते हैं तो खाने
की गुणवत्ता और शरीर के हित-अनहित का विशेष ध्यान रखते हैं। जो पूरी तरह स्वाद के
या इंद्रिय भोग के गुलाम होते हैं उन्हें इस पर भी विचार करने की आवश्यक्ता नहीं
पड़ती है। फिर एक पुरानी कहावत भी है जैसा खाएंगे अन्न, वैसा रहेगा मन। शरीर पर
पड़ने वाले असर के अलावा मन पर भी इसका असर पड़ता है। मन जो आपके विचारों का
पुलिंदा भर है। आप दिन रात जिस तरह की बातें सोच रहे हैं वही आपका स्वभाव बना देता
है। आप चिड़चिड़े हैं तो बहुत साफ है कि आप तनावग्रस्त विचारों से गुजर रहे हैं।
आप जीवन की चाह और आनंद को खो चुके हैं तो आप अवसादग्रस्त विचारों से गुजर रहे
हैं। इस वैचारिक भोजन को हम जानते बूझते इसीलिए लेते चले जाते हैं क्यूंकि हम इसका
भी मजा लेने लगते हैं। इस मूर्खता को ही अपना जीवन समझने लगते हैं। जैसे बीमारी
में भोजन के परहेज बताएं जाते हैं ठीक वैसे ही मनोविकारों की बिमारी में विचारों
के परहेज होना चाहिए। वैसे जीवन में अगर भोजन की गड़बड़ियां ना हो तो ज्यादतर
बीमारियों आती ही नहीं है और हम स्वस्थ बने रहते हैं। ठीक ऐसे ही अगर विचार भ्रमित
न हो तो मनोविकार उत्पन्न ही नही होगा।
भ्रष्ट संस्कारों से मनोविकारों के जन्म और
भ्रष्ट कर्मों के दुष्परिणामों को हम आए दिन देख रहे हैं। हम जानते हैं कि उच्च
पदों पर बैठे लोग, बड़े-बड़े राजनैतिज्ञ, फिल्मी सितारे या उनके बच्चे ऐसी अवस्था
में दिख रहे हैं जिसकी भरसक निंदा की जा रही है। आज एक ऐसा समय है जब जाने माने और
ताकतवर राजनेता ही नहीं बल्कि छोटे मोटे अनजान से सरकारी कर्मचारियों के पास भी
अकूत काल धन मिल रहा है। धन और वैभव को ही युवा अपने आदर्श के तौर पर ही देख रहे
हैं लेकिन वो इनके दुष्परिणामों पर विचार करने को तैयार ही नहीं है। धन की भूख भी
ठीक भोजन और विचारों की भूख की तरह होती है। अगर न खाने योग्य चीजें खाने से बीमार
होते हैं, न सोचने योग्य विचारों से मनोरोगी होते हैं, तो न कमाने वाले तरीकों से
लाए गए धन से घर में बीमारी ही लाते हैं। आंखों पर मूर्खता की पट्टी बांधे कई लोग
महत्वपूर्ण पदों पर होते हुए भी इस भूख के ऐसे शिकार होते हैं कि उन्हें अपने दुखद
अंत का अंदाजा होते हुए भी वो इस बुरी लत को छोड़ने में खुद को असमर्थ पाते हैं।
देश के प्रतिष्ठित संत पं. देवप्रभाकर शास्त्री इस पर अपना मत रखते हुए कहते हैं
कि ‘बहु
जोतना, बहु खाना’ यही आज के समाज की सबसे बड़ी समस्या है। कितना सुंदर वाक्य है ये जो
पुरी बात एक झटके में समझा देता है।
आज का समाज ज्यादा कमाने की भागदौड़ में है।
क्यूं? इसका
जवाब ढूंढना तो छोड़िए प्रश्न की आवश्यक्ता ही महसूस नहीं होती। बड़ा सीधा जवाब
मौजूद सब ऐसा करते हैं इसीलिए हम भी ऐसा कर रहे हैं। वैभवपूर्ण जीवन कौन नहीं
चाहता? जबकि सब
जानते हैं अच्छी नींद महंगे बिस्तर से नहीं, स्वस्थ मन और परिश्रमी शरीर से आती
है। आवश्यक्ता से अधिक के लिए भागने वालों को कुछ हासिल नहीं होता सिवाय अवसाद के।
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शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014
आप कुछ भूल गए हैं।
आप कार से या अपने किसी भी वाहन से कहीं जाते हैं
तो गंतव्य पर पहुंच कर इंजन बंद करना नहीं भूलते। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो ईंधन
की बर्बादी होगी नुकसान होगा। बिजली के तमाम उपकरण चाहे वो पंखा हो, एसी हो,
माइक्रोवेव हो, जब इनका इस्तेमाल हो जाता है तो आप स्विच ऑफ कर देते हैं। अगर भूल
जाते हैं तो बिजली की बर्बादी होती है और नुकसान होता है। नल के नीचे लगी बाल्टी
भर जाने के बाद नल चलता छोड़ देना पानी की बर्बादी करता है। ऐसा ही आप दुनिया में
इस्तेमाल की जाने वाली हर चीज के बारे में देखते हैं कि उस चीज का उपयोग हो जाने
के बाद आप उसके क्षय को रोकने के लिए उसे बंद कर देते हैं। लेकिन क्या आप जानते
हैं कि आपके पैदा होने के बाद से लेकर आज तक आप कुछ बंद करना भूल गए हैं। इस भूल
की वजह से ऊर्जा की बर्बादी हो रही है। आपकी शांति, आनंद, प्रज्ञा, ओज, सामर्थ्य,
ज्ञान, प्रेम सबकी बर्बादी हो रही है और जीवन का भारी नुकसान हो रहा है।
हां, ये सच है कि आप जीवन उपभोग की सारी वस्तुओं
को इस्तेमाल करने के बाद उन्हें विराम देते हैं। यहां तक की अपने शारीरिक परिश्रम
से थककर आप शरीर को भी विश्राम देते हैं लेकिन आपका मस्तिष्क आज तक विराम को
प्राप्त नहीं हो पाया है। आप उसे इस्तेमाल करने के बाद बंद करना भूल गए हैं। यही
वजह है कि हर बीतते पल के साथ आप उसे कमजोर करते जा रहे हैं। नई चीजों के प्रति
उदासीन होते जा रहे हैं। बच्चों की तरह चंचलता, सीखने की ललक को खोते चले जा रहे
हैं। जाहिर सी बात है इसे विराम नहीं मिलेगा तो ये अपने निर्धारित कामों को ठीक से
नहीं कर पाएगा। हम पेट्रोल की कीमत जानते हैं इसीलिए गाड़ी फौरन बंद कर लेते हैं।
हम बिजली के बिल से डरते हैं इसीलिए सोच समझकर बिजली का उपयोग करते हैं लेकिन जरा
गंभीरता से विचार करिए आप जीवन ऊर्जा और विचार शक्ति का क्या करते हैं?
विश्वास जानिए इस बर्बादी की जितनी कीमत आपको
चुकानी पड़ती है वो इन दुनियावी खर्चों और बर्बादियों से कहीं ज्यादा है। आप उस
ईश्वरीय देन को क्षीण करते जाते हैं जो आपको सत्य के दर्शन करवाती है। आनंद आपके
भीतर है, आप ज्ञानपुंच के तौर पर ही मानव बने हैं। आपके इंद्रिय ज्ञान आपको योगवित
बनाने के लिए हैं। जैसे जैसे आपकी विचारशक्ति की बर्बादी होती जाती है आप इन सब
बातों को भूलते जाते हैं जो आप के भीतर बीजरूप में मौजूद हैं। एक समय ऐसा भी आता
है जब ये इतनी क्षीण हो जाती है कि आप इस बात को स्वीकार ही नहीं करते हैं और जिस
भी परिस्थिती में जैसा भी जीवन जी रहे होते हैं उसे ही भूलवश सत्य मान बैठते हैं।
इसी समय से आपकी असीमित ऊर्जा सीमा के बंधनों में बंधकर आपको तुच्छ कर देती है।
प्रश्न ये है कि इंजन बंद करनी की चाबी है, बिजली
का स्विच है, नल की टोंटी है, पर दिमाग का कौनसा बटन है? अदृश्य बटन आपके विचार ही हैं और इन
विचारों को विराम देने की कुंजी सिवाय ध्यान के और कुछ नहीं। ध्यान का मतलब है
निर्विचारता को प्राप्त होना। इसकी कई विधियां कई ज्ञानियों ने कही हैं और ध्यानियों
के कई अनुभव भी हैं। कुछ ज्योति पुंज में, कुछ ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों में
ध्यान लगाते हैं। उत्तम ध्यान की अवस्था है अनहद नाद को सुनना और हर ध्यानी के
ध्यान का चरम यही ब्रह्मनाद ओंकार है। drpsawakening@gmail.com
गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014
सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग!
एक सज्जन बाल झड़ने से बहुत परेशान थे। किसी की
सलाह पर एक आयुर्वेदाचार्य के पास गए। वेद जी आयुर्वेद तो जानते ही थे तत्व ज्ञानी
भी थी। वे मन और शरीर दोनों के इलाज में विश्वास करते थे। पीड़ित ने कहा वेद जी
कोई ऐसा उपाय कीजिए कि बाल न झड़े। वेद जी ने पूछा बाल तो एक दिन जाने ही हैं फिर
इनकी इतनी चिंता क्यूं करते हो। उस व्यक्ति ने कहा बाल झड़ गए तो लोग क्या
सोचेंगे, मैं बड़ा ही बदसूरत दिखने लगूंगा। वेद जी ने कहा और बाल रहे तब क्या कर
गुजरोगे। वो कुछ देर चुप रहा फिर बोला आत्मविश्वास बढ़ता है। वेद जी ने कहा मेरे
पास दवा तो है और इतनी असरदार कि इस दवा से बाल झड़ना रुकेंगे भी और नए बाल भी आ
जाएंगे पर परेशानी ये है कि तुम्हारी नेत्र ज्योति पर इसका बुरा असर पड़ेगा। उस
व्यक्ति ने क्षण भर विचार किया और हां कह दिया। उसने कहा मैं भले ही साफ न देख
पाउं लेकिन लोग तो मुझे देख पाएंगे। वेद जी समझ गए कि जब इसे बाह्य दृष्टि की ही
कीमत नहीं तो ये अंतर्दृष्टि क्या समझ पाएगा। लगता है ना ये शख्स एक मूर्ख के
समान। अगर हां तब तो आप बाह्यदृष्टि की कीमत करते हैं और सत्य की खोज में आगे
बढ़ने को तैयार है और नहीं तो आप भी दूसरों की दृष्टि में आप कैसे और क्या हैं को
ही महत्व दीजिए।
ये कहानी बेशक बहुत हास्यापद लगे लेकिन भूलवश हम
जीवन में कई ऐसे ही काम किए चले जा रहे हैं। आपको बालों की नहीं तो गाड़ी, घर, पद
आदि जाने कितनी बातों की असत पीड़ा होगी। फिर इस सबके मूल में भी दूसरे आपके बारे
में क्या सोचते हैं का ही चिंतन रहता है। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ का स्तर
बहुत गिरा हुआ है। प्रतिस्पर्धा उन्नति के लिए हो तो रचनात्मक होता है लेकिन
मूर्खतापूर्ण हो तो विनाशकारी है। आप किसी से ज्यादा वैभवपूर्ण दिखे, किसी से ज्यादा
सुंदर दिखे, ज्याद बड़ा घर लें जैसी बातों के मूल में क्या है? कभी विचार किया?
इस सबके मूल में भेद
है। मैं और मेरा को महत्व देना मनुष्य को आत्ममुग्ध और स्वार्थी बना देता है। हम
अपनी सीमित दुनिया बनाकर उसी को दिन रात सजाने संवारने में जुटे रहते हैं। उस बाल झड़ने
वाले की बात तो हमें मूर्खता लगेगी लेकिन अपने जीवन में दूसरों को दिखाने के लिए
दिन रात गधा हम्माली करना हमें समझदार लगती है। इसकी बड़ी वजह ये है कि जब सभी
मूर्खता करते हैं तो भीड़ मूर्खता को ही समझदारी मानने लगती है। ये मूर्खता इसीलिए
है क्यूंकि हम अगर झूठे वैभव और झूठी सुंदरता में ही लगे रहेंगे तो सच्चे वैभव और
सच्ची सुंदरता का क्या होगा?
महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, अलबर्ट
आइंस्टाइन ये सब अपने बालों के बारे में या धन दौलत, वैभव के बारे में सोचते तो
क्या होता? जवाब साफ है ये सब वो नहीं होते जिनके लिए दुनिया इन्हें सलाम करती
है। इनकी तस्वीरें भर घर में टांग देने से बात नहीं बनेगी। एक युवक ने इस पर जवाब
दिया सब तो इनकी तरह नहीं बन सकते। हां बात सच है लेकिन थोड़ा सुधार है। सब इनकी
तरह बन सकते हैं लेकिन सब इनकी तरह बन सकने को सत्य मानते ही नहीं। फिर कहा ये भी
जा सकता नहीं हम तो छोटे लक्ष्यों के साथ अपनी जिंदगी को ज्यादातर लोगों की तरह
जीना ही बेहतर मानते हैं। कोई रोक नहीं आप ऐसे भी जी सकते हैं बस जीवन में कभी कोई
शिकवा मत करना क्यूंकि ये आपकी अपनी पसंद है।
मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014
परिश्रम नहीं विश्राम करें!
जीवन में परिश्रम पर बहुत जोर दिया जाता है लेकिन
जीवन का रस और अनंत आनंद तो विश्राम में है। विश्राम और आलस्य में फर्क करना आना
चाहिए। आलस्य जहां कमजोर और विसादग्रस्त बनाता है वहीं विश्राम शक्तिशाली और
आनंदपूर्ण बनाता है। किसी कार्य को करते वक्त श्रम किया जाता है लेकिन उसके बाद
उससे होने वाली प्राप्ति उसकी सफलता असफलता का चिंतन आदि में व्यर्थ परिश्रम किया
जाता है। कार्य के संपादन के बाद यही विश्राम का समय होता है। जिन्हें विश्राम की
कला आती है वे ज्यादा श्रमी होते हैं क्यूंकि उनके श्रम का शत-प्रतिशत इस्तेमाल
किसी कार्य के संपादन में होता है। आमतौर पर यही देखने में आता है कि हमारे जीवन
में ज्यादातर श्रम बेकार का है क्यूंकि हम उन बातों के विषय में चिंतन करते हैं
जिनका सचमुच उस कार्य से कोई लेना देना नहीं होता है। किसी छात्र के लिए परीक्षा
में किस तरह के प्रश्न आएंगे, वो पास होगा या फैल, अगर फैल हुआ तो क्या होगा आदि
इत्यादि जैसे सवाल व्यर्थ हैं। विवेकपूर्ण तरीकें से ये छात्र विचार करें तो
उन्हें भी अनुभव होगा कि परीक्षा की तैयारी में कम श्रम और इस व्यर्थ चिंतन में
अधिक परिश्रम लगता है। अगर तैयारी के श्रम के साथ विश्राम को अपनाया जाए तो अधिक
संभावनाशील परिणाम आने निश्चित हैं। प्रश्न ये उठता है कि आखिर विश्राम कैसे करें?
बढ़ी दिलचस्प बात ये
है कि कुछ नहीं करने को तो ही विश्राम कहते हैं। दरअसल शारीरिक श्रम तो कुछ नहीं,
आपको थकाने वाला असली श्रम मानसिक है। हम सभी जानते हैं और अनुभव करते है कि शांत
मन और मस्तिष्क शरीर को भी ऊर्जा से भरे रखता है। मन का तेज घोड़ा कुछ-कुछ देर में
हमें घसीटता हुआ कहां से कहां ले जाता है। घसीटे जाने में जो कुछ होता है वो सब
आपके साथ इस प्रक्रिया में होता है। आपकी दिशा, नियंत्रण, सुरक्षा कुछ भी आपके हाथ
में नहीं होती। सबसे अहम बात ये कि आप न चाहते हुए भी परिश्रम करते हैं, थकते हैं,
चोटिल होते हैं। क्यूंकि ये शारीरिक श्रम नहीं है इसीलिए चोटें भी बाहर महसूस नहीं
होंगी। अंदर की चोटें महसूस तो होती हैं लेकिन कभी समझ नहीं पाते ये क्यूं है किस
वजह से है। ये बेवजह के परिश्रम से है जो मन का घोड़ा आपसे करवाता है। विचारों से
मन बनता है। आपके अनुभव, जीवन की घटनाएं, चाहतें आदि आपके मन को संचालित करते हैं।
विचार के संस्कार इन्हीं से आते हैं। मन चंचल है इसीलिए अपनी जगह बीते कल और आने
वाले कल तक बनाता है। हम वर्तमान विचारों को इन्हीं के आधार पर कहीं के कहीं ले
जाते हैं। पुरानी असफलताएं और भय हमें नए प्रयासों में भी डरा कर रखते हैं। इतना
भर जान लेने से कि मन आपके अधीन है आप उसके अधीन नहीं, विचार आपके अधीन है आप उनके
अधीन नहीं विश्राम की ओर कदम बढ़ जाते हैं। जब विचार वर्तमान में स्थिर होते हैं
तो आप विश्राम में होते हैं। कभी अपनी सांसों, इर्दगिर्द की आवाजों, खुशबुओं,
दृश्यों आदि को निर्विचारता के साथ अनुभव कीजिए। उनकी समीक्षा मत कीजिए, कोई निर्णय
मत बनाइए बस देखिए, सुनिए और महसूस कीजिए। ये विश्राम की ओर पहला कदम होगा। इसका
अभ्यास जैसे जैसे बढ़ता जाएगा विश्राम की स्थिरता आती जाएगी। विश्राम ऊर्जा को सही
दिशा देता है और जब श्रम की आवश्यक्ता होती है तो वो पूरी तरह से कार्यसिद्धि में
लगता है। हमेशा याद रखिए जो विश्राम में है उनका श्रम अवश्य ही सुंदर सृजन करता
है।
सोमवार, 13 अक्टूबर 2014
आस्था और अंधविश्वास
ईश्वर है और सिर्फ वहीं है। मैं अनंत चैतन्य
ईश्वर का ही अंश हूं। समस्त सृष्टि का जन्मदाता वही है। ये आस्था है। ईश्वर है और
वो मेरी क्षूद्र भौतिक मनोकामनाओं की पूर्ती के लिए देवस्थानों या मूर्तियों,
पेड़ों, नदी-नालों आदि इत्यादि में वास करता है ये अंधविश्वास है। ईश्वर के इस असत
स्वरूप को सत्य मानने वाले ईश्वर प्राप्ति से बहुत दूर हो जाते हैं। सांसरिक लोगों
कि सामान्य मनोवृत्तियों और अपेक्षाओं को जानते हुए कई लोगों ने अंधविश्वास की बड़ी-बड़ी
दुकानों को रच दिया। हालत तो ये हो गई कि ईश्वर उपासना के महत्व से ही हम बहुत दूर
निकल आए। हर पल प्रकृति सुंदर रचनाएं करती रहती है और मनुष्य भी अपनी सुविधा के
लिए नित नए अविष्कार करता चला जा रहा है। इन दोनों के बीच एक झूठ भी पलता रहता है
और वो ये कि मनुष्य की समझ से परे कई परलौकिक बातें भी हैं। इन्हीं के किस्से
कहानियां बनाकर लोगों की समस्याओं को दूर करने उनकी मनोकामनाओं को पूरा करने की
ठगविद्या शुरू हो जाती है। आज हम मंगल पर यान भेज रहे हैं लेकिन मांगलिक दोष से
हमारा पीछा नहीं छूट रहा। हम मंगल पर जा सकते हैं ये आस्था और विश्वास है और बिना
जाने मंगल हम पर कोई असर करता है ये अंधविश्वास है। ऐसे ही जाने कितने मन्नतों के
धागे, नारियल आप बांधते और तोड़ते रहे हैं। भजन कीर्तन पूजा पाठ ईश्वर के गुणगान
करने के तरीके हैं और उस परमशक्ति का जितना गुणगान किया जाए उतना कम है। लेकिन अगर
इस सबके मूल में घर, गाड़ी, पदोन्नती आदि की चाह है तो ये न पूजा है न ही भजन।
स्वार्थ सिद्धि को उपासना मानना बड़ी मूर्खता है। अपने से बड़ों को हमने जो कुछ
करते देखा है आंख मूंद कर वही सब करते रहना कोई समझदारी नहीं है। हर मानव मात्र को
विवेक का प्रकाश मिला है जो बातें हमारे ज्ञान से सिद्ध हैं उन्हें हमें स्वीकार
करना चाहिए लेकिन जिन बातों का कोई तुक नहीं दिखाई देता उनका पल्ला पकड़ के रखना
घोर अंधविश्वास है। अंधविश्वास इतने गहरे घर कर गया है कि आज कई लोग धर्मांध होकर
अपनी विचारशीलता और विवेक को ही खो बैठे हैं। कोई इन बातों पर लोगों को सत्य का
प्रकाश देने की कोशिश करे तो उसका ही विरोध शुरू हो जाता है। वेदों पुराणों के नाम
पर बहुत से लोगों ने बहुत ही भ्रामक स्थितियां पैदा कर दी हैं। ये वे लोग है
जिन्होंने वेद पुराण का अध्ययन भी नहीं किया है हां जब भी कोई प्रश्न पैदा हो तो
उस पर वेदों में ऐसा लिखा है कहकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। कई बच्चों
को मैंने मंदिरों में धागे बांधते देखा है। पूछा ऐसा क्यूं करते हो? तो कहते हैं परीक्षा
में पास होने के लिए। हास्यापद नहीं लगता ये? अगर नहीं लगता तो आप भी अज्ञान की पट्टी
हटाएं और अपने ज्ञान के प्रकाश में सत्य को जानने का प्रयास करे। आप मनुष्य हैं
जिसके पास तर्कशक्ति है। आज बड़े-बड़े पुल, इमारतें, सड़के, हवाई जहाज, सैटेलाइट
आदि जैसी मानव की जिन रचनाओं को आप देखते हैं उसके पीछे यही तर्क शक्ति है। ऐसा है
तो क्यूं है? ऐसा कैसे हो सकता है? जैसे कई सामान्य सवाल हमारी शंकाओं का निदान
करते हैं लेकिन हम ईश्वर के मामले में पूरी तरह रूढ़िवादी बने रहते हैं। इसकी वजह
है ईश्वर को स्वयं खोजने के बजाए दूसरे के बताए गलत रास्तों पर भटक जाना। देखिए
रास्ता बताने वाले सही लोग भी हैं गलत भी पर आपकी विवेकशीलता आपको गलत और सही का
फर्क बताती है। अपने विवेक को जागृत रखने के लिए उस पर चढ़ी अज्ञान की मोटी चादर
को उतार फेंकने की जरूरत है। अज्ञान है बिना जांचे परखे किसी भी मान्यता के साथ चल
पड़ना। स्वामी विवेकानंद युवाओं से हमेशा ये आह्वान करते रहे कि जब तक स्वयं जांच
परख न लो दुनिया की किसी मान्यता पर विश्वास न करो। हम किसी को अगरबत्ती लगाते
देखते हैं तो वैसा ही करने लगते हैं। ईश्वर के जिस रूप को पूजते देखते हैं उसी में
आस्था करने लगते हैं। किस्से कहानियां सुन-सुनकर अपनी आस्थाएं बना लेते हैं। एक
समय ऐसा आता है जब हम इन देख-देखकर सीखी हुई बातों को इतना गहरे बैठा लेते हैं कि
इन्हें अपने विवेक से सिद्ध मानने लगते हैं। खुद विरोध करना तो छोड़िए किसी और के
विरोध को भी नास्तिकता मानने लगते हैं। नास्तिक वो नहीं जो सदग्रंथों को पढ़कर
सामान्य पुस्तकों के साथ रख देते है नास्तिक वे हैं जो सद्ग्रंथों को कपड़ों में लपेट
कर मंदिर में रख देते हैं रोज उन्हें प्रणाम करते हैं लेकिन कभी उनके संदेशों को
समझने का प्रयास नहीं करते। ईश्वर को सीमित स्थानों पर देखने वाले नास्तिक हैं और
हर मानवमात्र और प्राणीमात्र के साथ समस्त सृष्टि में ईश्वर ही हैं ऐसा मानने वाले
सच्चे आस्तिक है बाकि अंधविश्वासी।
डॉ प्रवीण श्रीराम
शनिवार, 4 अक्टूबर 2014
महत्वपूर्ण ये नहीं कि आप कब मरेंगे, महत्वपूर्ण ये है कि आप कब जीना शुरू करेंगे।
पहले तो मैं मानव हूं इस बात के लिए ईश्वर का बहुत-बहुत धन्यवाद। मानव होने में क्या विशेषता है? आनंद करना, भोजन करना, बच्चे पैदा करना, सुख-दुख का अनुभव करना आदि इत्यादि अगर यही जीवन है तो हमारे और एक पशु के जीवन में क्या अंतर है? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यक्ता है। ये सभी कार्य पशुओं के द्वारा भी संपन्न किए जाते हैं। महंगे और बड़े घरों में रहने का सुख कई पालतू जानवरों को मिलता है और ऐसा ही कई महंगी गाड़ियों के लिए भी है। ये बात तो साफ है कि वैभव पूर्ण जीवन और भोग के लिए मानव जीवन होना महत्वपूर्ण नहीं वो तो पशुओं को भी मिल सकता है। फिर ये भी सत्य है कि ये सारे भोग भी नश्वर आनंद ही देते हैं स्थायी आनंद नहीं। प्रश्न उठेगा ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई आनंद स्थायी हो जाए? देखिए कितना समझदार होता है मानव। उसमें तर्क और विचार की वो सकती होती है जो अन्य पशुओं में या तो नहीं होती या बहुत क्षूद्र होती है। मानव की विचारशक्ति ही उसे पशुओं से अलग बनाती है। हांलाकि पशुवत ही जीवन जीते हुए हम कभी इस विशेषता को समझ ही नहीं पाते। जीवनपर्यंत इसी प्रश्न और उत्तर के बीच के कथन, ऐसा कैसे हो सकता है! ... के साथ ही जीवन जीये चले जाते हैं। एक बड़ा सुंदर कथन एक ज्ञानी के द्वारा कहा गया है। डर इस बात का नहीं कि हम कब मरेंगे बल्कि डर इस बात का है कि हम कभी जीना शुरू भी कर पाएंगे या नहीं। ये तो सच है कि जब तक भोग-विलासिता का पशुवत जीवन हम जीते रहेंगे तब तक हम जीवन शुरू ही नहीं कर पाएंगे। मानव के दिव्य जीवन को पाने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना है बल्कि विश्राम ही इसके मूल में है। विश्राम का मतलब आलसी होकर बिस्तर पर अकर्मण्य की तरह पड़े रहना नहीं बल्कि सांसरिक कार्यों में निर्लिप्त भाव से उन्हें करते हुए उनका आनंद लेना है।
ज्ञानयुक्त दिव्य मानव जीवन किसी महात्मा के प्रवचन, किसी लेख को पढ़ने या किसी व्रत को करने से नहीं मिलता। ये सब आप में पहले से मौजूद ज्ञान को जागृत करने में उत्प्रेरक की भूमिका भर निभा सकते हैं। जिस तरह अंधकार का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं वैसे ही अज्ञान का भी कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। प्रकाश की अनुपस्थिती को हम अंधकार कहते हैं और इसी तरह ज्ञान की अनुपस्थिती अज्ञान है। ज्ञान की अनुपस्थिती का कारण विचारों का भ्रमित होना मात्र है। हमारे विचार ही हमारा व्यक्तित्व बनाते हैं। हम ज्यादातर समय व्यर्थचिंतन की वजह से प्रकाश को ढंक कर रखते है और ज्ञान से दूर रहते हैं। जिस पल आप व्यर्थचिंतन की मोटी चादर को गिरा देते हैं उसी पहले से मौजूद ज्ञान का प्रकाश आपको परमशांति का अनुभव करवाता है।
अप्राप्त परिस्थिती का चिंतन ही अज्ञान की इस मोटी चादर के मूल में है। जिस समय जिस वक्त जिस जगह पर हम हैं उसके अलावा हम बाकी सब कुछ सोच रहे हैं और यही हमें वर्तमान की सुंदरता और सदुपयोग से दूर कर रहा है। इसी वक्त जरा अपने इर्द-गिर्द की चीजों पर निगाह दौड़ाईये। इन पर कोई निर्णय मत दीजिए, कोई अन्य विचार मत लाइये, कोई विवेचना मत कीजिए, बस देखिए। अपनी सांसों को दिल की धड़कन को जरा महसूस कीजिए। अपने इर्द-गिर्द की हर चीज की खूबसूरती और चमक को महसूस कीजिए। आप पाएंगे की आपकी कल्पनाएं और व्यर्थ विचार आपको कहां ले जाते है। एक झूठे संसार में, जिसका कोई अस्तित्व है ही नहीं।
कुछ छात्रों और दोस्तों को जब ये बात कहता हूं तो वो कहते हैं ये सब तो होता ही है। इससे कहां बचा जा सकता है। बचा जा सकता है? ये प्रश्न ही बताता है कि वे जानते है कि ये कोई ऐसी गलत चीज है जिससे बचने की जरूरत है लेकिन उसमें खुद को असमर्थ पाते हैं। ये असमर्थता धीरे—धीरे आदत बन जाती है और इच्छा शक्ति के अभाव में हम अपने सामर्थ्य को पूरी तरह से नकार देते हैं। आज असमर्थता को ही सत्य मानकर चलने की वजह से नशाखोरी भी बढ़ती जा रही है। कहते हैं ग़म मिटाने के लिए, तनाव खत्म करने के लिए नशा करते हैं। हा हा हा। इससे ज्यादा हास्यास्पद और क्या होगा कि अपनी बनाई परेशानियों और छद्म दुखों से क्षणिक छुटकारे के लिए हम बड़ी मुसीबतों को निमंत्रण देते हैं और अंततः इस सुंदर मानव जीवन को पशुओं जैसा ही बनाकर छोड़ देते हैं।
क्रोध, ईर्ष्या, भय ये मानव के स्वभाविक गुण नहीं है अज्ञान और जीवन को नहीं समझ पाने की वजह से उपजे अवसाद की वजह से इनका जन्म होता है। इसी बात से ये सिद्ध हो जाता है कि सत्य जीवन को समझना और हमेशा आनंद में रहना (जो हमें फिलहाल असंभव लगता है) यही हर मानव मात्र के जीवन का सही उद्देश्य है। इस सुंदर प्रकृति में समदृष्टि और समभाव रखना जहां आप हैं कि उपयोगिता सिद्ध करता है। मैं मानव हूं, अलौकिक सृष्टि का हिस्सा हूं और सत्य का अनुसंधान स्व-रूप (अपने जीवन का सही सही ज्ञान) यही मेरे होने की वजह है।
सभी बातों को समाहित एक लेख में समाहित कर पाना जरा मुश्किल होता है। हम तर्क और विचार शीलता की वजह से ही मानव है। आप अपने सुझाव, प्रश्न, अनुभव मुझे drpraveentiwari@gmail.com पर जरूर भेजें। धन्यवाद, आपको स्व-रूप का ज्ञान हो।
मंगलवार, 5 अगस्त 2014
बिल्लू-पिंकी बूढ़े क्यूं नहीं हुए और चाचा चौधरी की उम्र क्या है। प्राण साहब को श्रद्धांजली।
आपके बिल्लू-पिंकी पिछले 40 साल से बच्चे के बच्चे क्यूं हैं? मेरे इस सवाल पर प्राण साहब ठहाके मार के हंसने लगे और कहा क्युंकि वो बिल्लू-पिंकी हैं बड़े हो जाएंगे तो खत्म हो जाएंगे। चाचा चौधरी की उम्र भी नहीं बदली और साबू ने भी जूपीटर जाने का मोह छोड़ दिया। प्राण साहब ने कहा कि उन्हें कल्पना की उड़ान भरने में बड़ा मजा आता है और इसीलिए वो ये सब सोच पाते हैं। बच्चे सपनों में जीते हैं, कल्पनाओं में जीते हैं और बच्चों की कल्पनाओं को समझने के लिए उनकी तरह सोचना बहुत जरूरी है। इसीलिए मैं जब पिंकी-बिल्लू या बच्चों के लिए कुछ भी बनाता हूं तो खुद भी बच्चा बन जाता हूं। मैंने पूछा लेकिन आपकी तो अच्छी खासी उम्र हो गई है फिर कैसे बच्चों जैसे सोच पाते हैं? जवाब था मैं भी तो कभी बच्चा था और जानता हूं कि बच्चे कैसे सोचते हैं, कैसे सपने देखते हैं.. ये बात और है कि हममें से ज्यादातर उस बचपने को भूल जाते हैं उन सपनों और कल्पनाओं को भी लेकिन मेरे लिए तो कितनी मजेदार जिंदगी है मैं उन सपनों को देख भी सकता हूं और दुनिया के सामने रख भी सकता हूं...
जो कार्टूनिस्ट प्राण को निजी तौर पर जानते हैं वो हमेशा उनके सहज शालीन व्यक्तित्व की बात करते दिखेंगे। मेरे लिए ये आश्चर्यजनक खबर थी कि वो कैंसर के मरीज थे। 74 वर्ष के अपने जीवन काल में वो चाचा चौधरी, साबू, बिल्लू-पिंकी, श्रीमती जी, रमन आदि जैसे जाने कितने किरदारों को लोगों के बीच जिंदा कर गए हैं। प्राण साहब का इंटरव्यू करने से पहले मैं बहुत उत्साहित था क्यूंकि अपनी एक रिसर्च के दौरान मैं देश के सभी बड़े कार्टूनिस्टों से मिला हांलाकि वे सभी पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट थे। बहुत मन था कि प्राण साहब का इंटरव्यू भी करूं। उस वक्त उनका संपर्क निकाल पाना टेढ़ी खीर थी और मुझे भी चाचा चौधरी के जनक प्राण साहब किसी बहुत बड़े स्टार से कम मालूम नहीं पड़ते थे। खैर तब उनसे कोई मुलाकात नहीं हो पाई। कुछ सालों बाद जनमत के कार्यक्रम में नया दिन नई बात में जब उनके आने की खबर मिली तो मैं बहुत उत्साहित हो गया था। बार-बार बाहर जाकर देख रहा था कि प्राण साहब कौन हैं, कैसे दिखते होंगे, कहीं चाचा चौधरी जैसे ही तो नहीं, कड़क मिजाज होंगे या हंसी मजाक करने वाले ? बहुत से सवाल थे और साथ ही ये डर भी कि इतनी बड़ी सेलिब्रिटी हैं कैसे बात करेंगे सवालों के जवाब ठीक से देंगे या नहीं बहुत सी बातें सचमुच दिमाग में उमड़-घुमड़ रही थी। समय से आधा घंटा बीत जाने के बाद भी वो नहीं आए तो लगा कि कुछ भी कहो हैं तो बड़े आदमी ही। दो तीन बार बाहर उन्हें देखने के लिए जाते वक्त रिसेप्शन पर एक बुजुर्गवार से बैठे थे। छोटे कद के ये सज्जन मुझे देखकर मुस्कुराए भी थे और अभिवादन में मैं भी पलटकर मुस्कुरा दिया। स्टुडियो की तरफ वापस लौटते हुए मैंने उनसे पूछा सर आप किससे मिलने आए हैं। उन्होंने जवाब दिया एक कार्यक्रम में मुझे यहां बुलाया गया है। मैंने कहा किस कार्यक्रम में उनका जवाब था कार्यक्रम का तो पता नहीं मेरा नाम प्राण है और मैं कार्टूनिस्ट हूं। मैं समझ गया था कि वो कौन है और अपने गेस्ट कोर्डिनेटर से लेकर फेसिलिटी तक हर एक पर नाराजगी भी जतायी कि वो पिछले आधे घंटे से वहां बैठे हैं और किसी को इस बात की जानकारी भी नहीं। खुद पर भी गुस्सा आया कि बार बार बाहर जाकर देखने के बजाय एक फोन लगा लिया होता या इन्हीं सज्जन को इतनी देर से यहां बैठे हुए देख रहे हो एक बार उनसे पूछ ही लिया होता। खैर अच्छी बात ये थी कि वो एकदम शांत चित्त थे और उन्हें बहुत देर तक बैठे रहने के बावजूद किसी से कोई नाराजगी नहीं थी बल्कि वो मुझे ही समझाते हुए कह रहे थे कोई बात नहीं मैं कोई फिल्म स्टार थोड़े ही हूं जो मुझे कोई शक्ल से पहचान लेगा एक कार्टूनिस्ट ही तो हूं। उनसे ये मुलाकात जिंदगी की यादगार मुलाकातों में से एक थी और उनके कार्टून कैरेक्टर्स की तरह वो भी हमेशा हमेशा अमर रहेंगे। कार्टूनिस्ट प्राण को श्रद्धांजली। डॉ. प्रवीण श्रीराम
शुक्रवार, 1 अगस्त 2014
दिल की सुनो तो जो दिल से चाहते हो मिल जाएगा।
ये एक बहुत बड़ा भ्रम है कि जिन्हें हम महान लोगों की श्रेणी में रखते हैं वो अद्भुत होते हैं या कुछ विशेष क्षमताओं वाले होते हैं। एक बहुत ही सामान्य प्रश्न बचपन से ही आप सुनते आ रहे हैं, आप क्या बनना चाहते हैं? छोटे बच्चे आज भी मासूमियत से जवाब देते हैं मैं डॉक्टर बनना चाहता हूं, मैं एअर होस्टेस बनना चाहती हूं, मैं फिल्म स्टार बनना चाहता हूं आदि इत्यादि। ये सवाल कुछ सालों तक तो हमारे साथ रहता है लेकिन उसके बाद दसवीं के बाद कौन सा विषय लेना है पर बात जा टिकती है। किसी तरह 12 वीं पास हो जाए तो कॉलेज का मुंह देखें। फिर फलां कॉलेज फलां विषय का मामला आता है। आप सब दिमाग पर थोड़ा जोर डालेंगे तो याद आएगा कि फाइनल इयर में कैसे भगवान से मन्नत मांगी कि ग्रेज्यूएट करा दो बस। फिर नौकरी... फिर नौकरी में आगे बढ़ते रहने की दौड़। सबकी कहानी लगभग मिलती जुलती मिलेगी। समानता इस बात की भी मिलेगी कि ये सब करते करते जो जहां पहुंच गया है उसे ही वो सबसे सुरक्षित स्थान मानता है। उसे बचाए रखने की और उसी के दायरे में आगे बढ़ते रहने की अपेक्षा से उसके सपने संकुचित हो जाते हैं। यूं तो हम तमाम उदाहरणों को पढ़ते रहे हैं लेकिन अपने निजी जीवन में मैं कुछ लोगों से मिला और बहुत प्रभावित हुआ। ये वो लोग थे जो अपनी पढ़ाई और नौकरी में एक मुकाम पर पहुंचे और फिर उन्होंने अपने शौक और खुशी को अपनी पढ़ाई लिखाई पर तरजीह दी।
पलाश सेन का नाम आप सबने सुना होगा। जो नहीं जानते उन्हें यूफोरिया बैंड या माईरी गीत की याद दिलाने पर उनका चेहरा सामने आ जाएगा। पलाश पेशे से एक डॉक्टर रहे हैं लेकिन उनका दिल कहीं और लगता था। उन्होंने दिल की सुनी और संगीत को चुना। वो डाक्टर बन कर भी समाज को कुछ दे सकते थे लेकिन तब शायद वो अपने साथ न्याय नहीं करते और अगर उनका दिल इस काम में नहीं लगता तो कोई बहुत अच्छे डॉक्टर भी साबित नहीं होते। लेकिन गायक और संगीतकार के तौर पर उन्होंने बहुत लोगों का दिल जीता और आज भी उनके ये गीत सुकून देते हैं। कुछ ऐसी कहानी राहुल राम की है जो इंडियन ओशन बैंड के लीड सिंगर है। आईआईटी से पढ़ाई और विदेश की जानी मानी युनिवर्सिटी से environmental toxicology जैसे विषय पर पीएचडी के बाद किसी के लिए गिटार पकड़ना असंभव सा लगता है लेकिन ऐसा हुआ है। राहुल राम ने अपने गानों से धमाल मचा दिया।
ये बात अपने करियर छोड़ कर संगीत या मनोरंजन के क्षैत्र में आए कुछ नामों की हुई, लेकिन ऐसा नहीं है कि सबके सब गायक ही बनेंगे बात सिर्फ अपने मिज़ाज के काम को चुनने की है। मेलूहा के मृत्यूजंय (the immortal of Meluha) लिखकर अपनी पहचान बनाने वाले अमीश त्रिपाठी ने बैंकिंग क्षैत्र में लंबे समय काम करने और स्थापित हो जाने के बाद लेखक का करियर चुना।
मन की सुनी तो पाठकों ने भी हाथों हाथ लिया। अमीश बहुत ही शानदार इंसान भी है गाहे बगाहे उनसे बात होती रहती है और वो इसे शिव की कृपा मानते हैं। ये बात तो सच है कि पैसे और जिम्मेदारियों के चक्कर में बंधे न रहकर जिस किसी ने भी इस बंधन को तोड़ा उसे पैसा, शोहरत आदि अपने मूल काम से ज्यादा ही मिला। सिद्धांत ये कहता है कि पैसे और स्थायित्व के चिंतन से या चाहे जिस काम में इन्हें तलाशने से इनकी प्राप्ति नहीं होती, हां, ऐसा कुछ करने लगे जिसमें हमें मजा आता हो या जो हमारे मिजाज का हो तो काम तो करेंगे ही पैसा आदि खुद ब खुद खिंचा चला आएगा। अमीश की तरह ही मैनेजमेंट फील्ड के आदमी चेतन भगत आज फिल्में लिख रहे हैं, उनके उपन्यास युवाओं की पसंद बन गए हैं। ऐसी जाने कितनी कहानियां आपको मिल जाएंगी जो बताती हैं कि अगर हम दिल की सुनते हैं तो ये आवाज हमें सचमुच वो दिला देती है जो हम सचमुच दिल से चाहते हैं। मेरे अपने जीवन में मैंने कुछ मित्रों को सफलता पूर्वक ये करते हुए देखा है।
एक मित्र अकांउट की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर पत्रकारिता करने चले आए। मुझे जब मिले तो मैंने कहा आपको भी इस उम्र में क्या कीड़ा काट गया। साल 2004 में वो 30000 हजार रु. की नौकरी छोड़कर एक चैनल में इंटर्न तक बनने को तैयार हो गए। आज मेरे जीवन के कुछ प्रेरणादायी लोगों में शुमार ये बड़े भाई देश के नामी गिरामी चैनल के बहुत सम्मानित पद पर हैं। उनमें लगन थी और उस लगन को मैंने नजदीक से महसूस किया है। सबकुछ दांव पर लगा देने के बाद ये जुनून बन जाता है और फिर कोई आपको नहीं रोक सकता। एक और मित्र ने करीब 14 साल एंकरिंग करने के बाद ये महसूस किया कि उन्हें इस काम में वो सुकून नहीं मिलता जो शायद व्यवसाय में मिल पाए। व्यवसायिक बुद्धि के होने की वजह से वो शेयर मार्केट और छोटे मोटे व्यवसायों में अपनी ऊर्जा तो लगाते थे लेकिन इसका बहुत ज्यादा फायदा उन्हें नहीं हो पाता था। अलबत्ता नुकसान ये होता था कि नौकरी में समय पर नहीं आने पर तनख्वाह कटना या अपने काम में अरुचि होने से काम की गुणवत्ता में कमी आना, ऐसी परिस्थितियों से उपजी खीज को अपने साथियों पर निकालने जैसे कई लक्षणों का तो मैं खुद चश्मदीद भी बना। एक दिन उन्होंने फैसला किया कि वो अब बिजनेस पर ही पूरा ध्यान लगाएंगे। मैंने प्रोत्साहित किया लेकिन मन में ये भय भी आया कि बिजनेस चले ना चले। सैलरी नहीं आएगी तो घर कैसे चलाएंगे। घर में कमाने वाले अकेले हैं और दो छोटे-छोटे बच्चे भी हैं। हांलाकि ये मेरा भय था वो शायद अपनी बिजनेस प्रतिभा को लेकर आश्वस्त थे। कोई आश्चर्य आपको नहीं होगा कि आज वो अपनी सैलरी से कई गुना ज्यादा पैसा कमा रहे हैं। आज उनसे मिला तो एक कामयाब व्यवसायी कि तरह हंसते मुस्कुराते गर्मजोशी के साथ उनकी प्रोत्साहित करने वाली बातों ने इस सिद्धांत को और मजबूत किया कि दिल की सुनो तो दिल से मांगा हुआ मिल जाता है। अंग्रेजी में half heartedly का इस्तेमाल होता है हम उसे अनमने ढंग से कह सकते हैं। अनमना होकर या आधे मन से काम करना हमें तकलीफ तो देता ही है साथ ही कोल्हू के बैल की तरह हम गोल गोल चक्कर लगाकर अपनी बेशकीमती ऊर्जा, बेशकीमती समय भी बर्बाद कर देते हैं। आज आप अनमने ढंग से काम करने वालों की एक बड़ी भीड़ अपने इर्द-गिर्द पाएंगे। हो सकता है आप भी आधे मन से काम करने के रोग से ग्रस्त हों। हैं? … बस इतना जान लेना भर ही तो आपको अपने दिल की आवाज सुनने की तरफ अग्रसर कर देगा। डर तो लगेगा भाई लेकिन अभी तक के सारे मामले जहां पूरी शिद्दत से दिल की आवाज सुनी गई है, वो इस ओर इशारा करते है कि दिल से चाही मुराद भी पूरी हो सकती है। पसंद आपकी है.. गोल.. गोल.. गोल... घूमते रहिए, या तोड़िए घेरा.. अगर जरूरत है तो। जबरदस्ती आजमाना तो महंगा पड़ेगा ही। डॉ. प्रवीण श्रीराम
बुधवार, 2 जुलाई 2014
साईं के बहाने......
शनिवार, 3 मई 2014
क्या कर रहे हैं से ज्यादा क्या हो रहा है कि सोचना.. एक सामान्य बेवकूफी !
सोमवार, 28 अप्रैल 2014
देख तेरे टीवी की हालत क्या हो गई इंसान.....
शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014
मंदिरों में लोगों की मन्नतों का बोझ ढोने वाली मूरत
शनिवार, 12 अप्रैल 2014
हंसते चेहरे के पीछे पनपता अवसाद... खुदकुशी
खुदकुशी.... जो मानसिक रूप से स्वस्थ हैं वो ये शब्द सुनते ही सिहर जाते हैं। जो किसी अवसाद से ग्रस्त है वो किसी को बताते तक नहीं और मन ही मन इस खतरनाक फैसले के लिए खुद को मजबूत कर लेते हैं। गौर कीजिएगा मैंने कहा मजबूत। जीने की इच्छा का त्यागना एक ऐसा रोग है जो दिमाग में एक बार घुस जाए तो धीरे-धीरे अपनी जड़े मजबूत करता है और फिर वो होता है जिसे हम-आप सुनकर भी दहल जाएं। इस विषय पर लिखने का संदर्भ है एक 27-28 साल के युवा का ऐसा ही एक खतरनाक और रुला देने वाला फैसला। कपड़ों, अलग-अलग हेअर स्टाइल, दाढ़ी के अलग-अलग अंदाज रखने का ऐसा ही शौकीन लड़का था.... राहुल। परसों ही वो फांसी के फंदे पर झूल गया और उसके साथ काम करने वाला हर शख्स स्तब्ध रह गया। मैं भी उनमें से एक हूं। एक सीनियर के तौर पर राहुल मेरी बहुत इज्जत करता था और मैंने हमेशा उसे एक हंसमुख और दिलखुश मिजाज इंसान के तौर पर ही देखा था। सिर्फ मेरी ही नहीं मेरे साथ काम करने वाले हर साथी की यही प्रतिक्रिया थी की.. अरे ये कैसे हो सकता है.. कल ही तो मिला था.. मुझसे बड़े अच्छे से बात की थी। कोई नहीं जानता था कि उसके हंसते हुए चेहरे के पीछे एक अवसाद उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। उसके करियर में सबकुछ ठीक था लेकिन परिवार में शायद नहीं। वो अपने आप को इस खतरनाक फैसले के लिए तो तैयार कर रहा था लेकिन अपनी परेशानियों के आगे उसने हथियार डाल दिए थे। जो जानकारी मुझे उसके कुछ साथियों से मिली उसके मुताबिक आखिरी दिनों में नशाखोरी ने उसकी रही सही हिम्मत को भी तोड़ दिया था। मैं इस विषय को लेकर इसीलिए भी संवेदनशील हूं क्योंकि बीते साल ही मेरे ताउजी के बेटे यानि मेरे बड़े भाई ने भी ऐसा ही खौफनाक कदम उठाया था। आज तक परिवार इस बात को नहीं समझ पाया कि सब तो ठीक था फिर क्या हुआ? दरअसल ऐसी घटनाएं हम सब के लिए एक सबक हैं कि अच्छा और बुरा बाहर नहीं भीतर चलता है। यही वजह है कि जहां शारिरीक रूप से विकलांग तमाम लोग अपनी जिंदगी, सम्मान के साथ, खुशी-खुशी जीते हैं वहीं बाहर से स्वस्थ दिखने वाले ऐसे कई लोग भीतर से पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। आज की भाग-दौड़ की जिंदगी में हम व्यवसाय परिवार, सम्मान, धन, शोहरत सबकुछ पाना चाहते हैं और इन अपेक्षाओं के साथ-साथ कमियों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाते जा रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि ये सब हासिल मत कीजिए लेकिन पहले अपने अनमोल मानव जीवन की कीमत को समझिए। स्वामी शरणानंद कहते थे कि आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह खुश हो और क्या आपने कोई ऐसा मनुष्य देखा है जो पूरी तरह दुखी हो। कोई किसी अंश में सुखी होता है तो वो किसी अंश में दुखी भी होता है। और ऐसा ही दुखियों के लिए भी है। जब तक हम सुख-दुख से अतीत का जीवन नहीं पा लेते ये चक्र यूं ही चलता रहेगा। ऐसा ही मामला टाटा समूह के एक बड़े अधिकारी का भी देखने को मिली था जो हाल में विदेश यात्रा के दौरान ऊंची इमारत से कूद गए थे। वैभव और सम्मान की उनके जीवन में कोई कमी नहीं थी। और ऐसा ये अकेला मामला नहीं है बाहर से समृद्ध और सुखी दिखने वाले कई लोगों ने ये काम किया है। ये तो साफ है कि इन परिस्थितियों में शांति नहीं है नहीं तो इन्हें प्राप्त करने वाले लोग सबसे शांत लोग होते। शांत इनके अभाव में भी नहीं है क्योंकि दुनिया में ज्यादतर लोग इसी अभाव को जीवन में रस नहीं होने की बड़ी वजह मानते हैं। इन दोनों ही परिस्थितियों से अतीत कोई जीवन तो है, जहां सचमुच रस है। उस रस को समझाते हुए कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि जल में रस मैं ही हूं। रस बाहर होता तो शायद सबको अच्छी लगने वाली कोई तो चीज होती। इन्द्रीय भोगों के जरिए भोग के आनंद को रस मानने के गलती करने वाले हमेशा इसमें फंसते जाते हैं और इस रस से अतीत किसी रस की अपेक्षा करते हैं जो सदैव उनमें है, उनका है और उनके लिए है। राहुल को श्रद्धांजली और ईश्वर से सबको विवेक की प्रार्थना के साथ। आपका डॉ प्रवीण श्रीराम
सोमवार, 7 अप्रैल 2014
तमसो मा 'गहनतमं प्रति' गमयः (अंधकार से गहन अंधकार की ओर!)
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